कर्नाटक में ऐहोल शहर मंदिरों का पर्याय है। ये मंदिर बादामी के चालुक्य राजवंश के शासनकाल के दौरान आरंभिक वास्तुकला के नमूने हैं। यहां के मंदिर चट्टान तराश कर बनाए गए थे। लेकिन कुछ मंदिर संरचनात्मक भी हैं। यहां के एक मंदिर कर्नाटक के प्रसिद्ध ऐहोल मंदिर, बादामी के चालुक्य राजवंश के शासनकाल के दौरान आरंभिक वास्तुकला के अद्भुत नमूने हैं। पर क्या आप जानते हैं, कि यहाँ के मेगुती मंदिर में एक महत्वपूर्ण अभिलेख है जिस से हमें शक्तिशाली चालुक्य राजवंश की जानकारी मिलती है और ये मंदिर महाराष्ट्र नाम का आरंभिक संदर्भ भी माना जाता है।
मेगुती मंदिर में पत्थर की एक सिल्ली पर पुलकेशिन-द्वितीय का एक ऐहोल अभिलेख है, जो दरअसल बादामी के चालुक्य राजवंश का प्रशस्ति लेख है।
ऐहोल कर्नाटक के बागलकोट ज़िले में मलप्रभा नदी के तट पर स्थित है। ऐहोल का उल्लेख पुराणों में मिलता है।
कहा जाता है, कि भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के बाद अपनी कुल्हाड़ी मलप्रभा नदी में धोयी थी और इसी वजह से यहां की ज़मीन का रंग लाल है। यहां दूसरी सदी ई.पू. से लेकर तीसरी सदी ईसवी तक सातवाहनों का शासन था और फिर इनके बाद चौथी सदी ईसवी में यहां कदंब राजवंश का राज हो गया।
इस क्षेत्र के आरंभिक ऐतिहासिक दस्तावेजों से ये पता चलता है, कि छठी से लेकर आठवीं सदी ईस्वी तक यहां बादामी के चालुक्य राजवंश का शासन हुआ करता था। चालुक्य राजवंश के पतन के बाद नौवीं से लेकर दसवीं सदी तक यहां राष्ट्रकूट राजवंश का शासन हो गया। पश्चिमी चालुक्य अथवा कल्याणी के चालुक्य शासकों ने यहां ग्यारहवीं से लेकर बारहवीं सदी ईस्वी तक राज किया।
कोंकण और कर्नाटक पर चौथी सदी से लेकर छठी सदी ईस्वी तक शासन करने वाले कदंब राजवंश के पतन के बाद बादामी के चालुक्य स्वतंत्र हो गये थे। चालुक्य राजवंश ने अनेक सैन्य सफलताएं हासिल की। इसके अलावा वे कला तथा वास्तुशिल्प के भी बड़े संरक्षक थे, जिसका अंदाज़ा ऐहोल, बादामी और पत्तदकल में स्थित कई मंदिरों से लगता है। बादामी के चालुक्य राजवंश का शासनकाल कुछ उत्कृष्ट प्राचीन भारतीय वास्तुकला का साक्षी है।
प्रसिद्ध दुर्गा मंदिर से लगभग आठ सौ मीटर के फ़ासले पर एक पहाड़ी के ऊपर स्थित मेगुती मंदिर ऐहोल में चालुक्य शासकों द्वारा बनवाए गये आरंभिक मंदिरों में से एक है। द्रविड शैली के इस मंदिर में एक गर्भगृह, एक प्रदक्षिणा पथ, बाहर एक दालान और एक मंडप है। मंदिर की डिज़ाइन साधारण है। गर्भगृह में जिना की छवि बनी हुई है। इस मंदिर की विशेषता यहाँ मौजूद एक अभिलेख है, जिसे पुलकेशिन-द्वितीय का ऐहोल अभिलेख अथवा ऐहोल प्रशस्ति कहा जाता है।
पुलकेशिन-द्वितीय के दरबारी जैन कवि रविकीर्ति ने सन 634 ईस्वी में इस मंदिर का निर्माण करवाया था और अभिलेख भी लिखवाया था। रविकीर्ति को बुद्धिमान व्यक्ति माना जाता था और लगता है, कि वह पुलकेशिन-द्वितीय के दरबार में बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे, जिन पर शासक की अति कृपा रही थी। उन्हें भारतीय साहित्य के महान कवि कालिदास और भारवि की रचनाओं की जानकारी थी और यहां तक कि उन्होंने उनके लेखन के मामले में ख़ुद की तुलना महाकवि कालिदास और भारवि से की थी। रविकीर्ति ने संस्कृत भाषा में काव्य शैली में ऐहोल प्रशस्ति लिखा था, जो पुरानी कन्नड लिपि में था।
प्रशस्ति में बादामी के चालुक्य शासक जयसिम्हा वल्लभी और रणराग का संक्षिप्त उल्लेख है, लेकिन इन शासकों के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। सन 540 ईस्वी में रणराग के बाद पुलकेशिन-प्रथम का शासन हो गया, जिसने अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित किया और वातापी (बादामी) को अपनी राजधानी बनाया।
सन 567 ईस्वी में, पुलाकेशन-प्रथम के पुत्र कीर्तिवर्मन ने राजपाठ संभाला । उसने अपने शासनकाल के दौरान छत्तीसगढ़ के नाला, कोंकण के मौर्य और वनवासी के कदंब शासकों को हराया। कीर्तिवर्मन के बाद सन 598 ईस्वी में उसका छोटा भाई मंगलेश सत्ता में आया और उसने कलचुरि शासकों को हराया, जिन्होंने छठी-सातवीं सदी में पश्चिम भारत पर शासन किया था।
पुलकेशिन-द्वितीय के शानकाल में बादामी चालुक्य साम्राज्य अपने चरम पर था। पुलकेशिन-द्वितीय कीर्तिवर्मन का पुत्र और एक महान शासक था। उसके शासनकाल में दक्कन के अधिकतर क्षेत्रों पर चालुक्य का राज था। लेकिन राजगद्दी पर बैठने की उसकी राह इतनी आसान नहीं थी। पुलकेशिन- द्वितीय और उनके चाचा मंगलेश के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया था, जिसमें आख़िरकार पुलकेशिन की जीत हुई। इस युद्ध के दौरान चालुक्य साम्राज्य को कई क्षेत्रों से हाथ धोना पड़ा था ,जिन्हें बाद में पुलकेशिन -द्वितीय ने दोबारा जीता।
रविकीर्ति ने अपनी कविता में अपने संरक्षक पुलकेशिन-द्वितीय की सैन्य सफलताओं का बहुत महिमा मंडन किया है।
सत्ता में आने के बाद पुलकेशिन-द्वितीय को दो शासकों अप्पयिका और गोविंद के विद्रोह का सामना करना पड़ा। दुर्भाग्य से इन दोनों शासकों के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। अभिलेख से बस इतना ही पता चलता है, कि पुलकेशिन-द्वितीय ने गोविंद से दोस्ती की और उसके साथ मिलकर अप्पयिका को हरा दिया था।
पुलकेशिन-द्वितीय ने कदंब राजवंश की राजधानी वनवासी पर भी फ़तह हासिल की थी। कर्नाटक में मैसूर और अलूपा के गंग शासकों ने पुलकेशिन-द्वितीय का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। पुलकेशिन-द्वितीय ने कोंकण के मौर्य साम्राज्य पर भी हमला कर उन्हें परास्त किया। पश्चिम में पुलकेशिन-द्वितीय ने लता औऱ गुर्जरा क्षेत्रों पर भी कब्ज़ा कर लिया था।
पुलकेशिन-द्वितीय के शासनकाल की सबसे बड़ी घटना शायद वर्धन (पुष्यभूति) राजवंश के राजा हर्षवर्धन के साथ युद्ध था। पुलकेशिन-द्वितीय का समकालीन हर्षवर्धन प्राचीन भारत के शक्तिशाली राजाओं में से एक माना जाता था, जिसने सन 606 ईस्वी से लेकर सन 647 ईस्वी तक शासन किया था। उसका साम्राज्य पूरे उत्तर और उत्तर-पश्चिम के अधिकतर क्षेत्रों तक फैला हुआ था। उसके साम्राज्य में पूर्व में कामरुप से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के इलाक़े आते थे। नर्मदा के आगे के भी क्षेत्र जीतने के इरादे से हर्षवर्धन ने दक्षिणापथ की तरफ़ कूच किया, लेकिन पुलकेशिन-द्वितीय ने रोड़ा अटका दिया। अभिलेख में पुलकेशिन-द्वितीय के हाथों हर्षवर्धन की हार का उल्लेख है। इसे पुलकेशिन-द्वितीय की महान जीत माना जाता था। कहा जाता है, कि हर्षवर्धन को हराने के बाद पुलकेशिन-द्वितीय को परमेश्वर कहा जाने लगा था।
पुलकेशिन-द्वितीय की सैन्य सफलताओं में महाराष्ट्र के क्षेत्रों पर कब्ज़ा करना एक बड़ी सफलता मानी जाती है। इन क्षेत्रों में 99 हज़ार गांव आते थे। महाराष्ट्र के ये कौन-से क्षेत्र थे, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों का मानना है, कि इस क्षेत्र में महाराष्ट्र, कुंतल और कर्नाटक आते थे। दिलचस्प बात ये है, कि इसे महाराष्ट्र शब्द का आरंभिक संदर्भ माना जाता है। सातवीं सदी ईस्वी में भारत आए चीन के यात्री ह्वेन त्सांग ने पुलकेशिन-द्वितीय का मो-हो-लो-चा (महाराष्ट्र) के शासक के रुप में उल्लेख किया है। इस मामले में इतिहासकार दुर्गा प्रसाद दीक्षित का मानना है, कि ह्वेन त्सांग ने शायद यह शब्द अभिलेख पर देखकर लिखा होगा।
उत्तर में शानदार सैन्य सफलता के बाद पुलकेशिन-द्वितीय ने पूर्वी तथा दक्षिणी क्षेत्रों की तरफ़ रुख़ किया था।
पूर्व में पुलकेशिन-द्वितीय ने कलिंग और दक्षिण कोसाला साम्राज्य पर जीत हासिल की। उसने विष्णुकुंदिन को हराकर आंध्रप्रदेश में पिष्तापुर क़िले पर कब्ज़ा कर लिया। पांचवीं से लेकर सातवीं सदी ईस्वी तक विष्णुकुंदिन राजवंश का शासन होता था। इस विजय के बाद पुलकेशिन-द्वितीय ने अपने भाई कुब्ज विष्णुवर्धन को पिष्तापुर का गवर्नर नियुक्त कर दिया और इसके साथ ही सन 624 ईस्वी में चालुक्य राजवंश की एक अलग शाखा वेंगी चालुक्य अथवा पूर्वी चालुक्य का जन्म हुआ।
रविकीर्ति ने पल्लव, चोल औऱ पंड्या के दक्षिणी साम्राज्यों के ख़िलाफ़ पुलकेशिन-द्वितीय के सैन्य अभियान का भी ज़िक्र किया है। उसने चोल और पंड्या साम्राज्यों को अपना मित्र बना लिया था।
अभिलेख के अनुसार पुलकेशिन-द्वितीय ने पल्लव शासकों को हराया था, जिन्हें मजबूरन अपनी राजधानी कांचीपुरम में शरण लेनी पड़ी थी। इस मुहिम की वजह से बादामी चालुक्य और पल्लवों के बीच संबंध बहुत ख़राब हो गये थे, जिसकी परिणति दोनों साम्राज्यों के बीच टकराव में हुई, जो कई सालों चला।
अपनी तमाम मुहिमों को सफलतापूर्वक अंजाम देने के बाद, पुलकेशिन-द्वितीय अपनी राजधानी वातापी (बादामी) वापस आया। सन 642 ईस्वी में पुलकेशिन-द्वितीय को पल्लव राजा नरसिम्हावर्मन ने हराया और इस तरह चालुक्य राजवंश कमज़ोर होने लगा। लेकिन बाद में पुलकेशिन-द्वितीय के पुत्र विक्रमादित्य-प्रथम ने सन 655 ईस्वी में इसे दोबारा मज़बूत कर दिया।
ऐहोल प्रशस्ति पर लोगों का ध्यान अंग्रेज़ इतिहासकार जॉन फ़ैथफ़ुल फ़्लीट के प्रयासों की वजह से हुआ। इन्होने सन 1876 में सबसे पहले अभिलेख का संपादन किया था। उनके बाद जर्मनी के भारतीय इतिहास के जानकार लॉरेंज़ फ़्रांज़ किलहॉर्न ने सन 1901 में इसका संपादन किया।
आज इसी अभिलेख की मदद से बादामी के चालुक्य शासकों के इतिहास की जानकारी मिलती है।
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