प्राकृतिक सुंदरता और कई ऐतिहासिक धरोहरों की वजह से बड़ी संख्या में लोग उदयपुर घूमने आते हैं। लेकिन भव्य महलें और सुंदर झीलों वाले शहर उदयपुर से 40 कि.मी. दूर एक ऐसा भी भूगर्भीय ख़ज़ाना है जिसे ज़रुर देखा जाना चाहिये।
ज़ावर ऊबड़-खाबड़ अरावली पर्वत श्रंखला में स्थित है। इस क्षेत्र में सात मुख्य पर्वत हैं। ज़ावर के अलावा इस पर्वत श्रंखला में बरोई, हारणा, मोचिया, बलारिया, कठोलिया और धानताली पर्वत भी शामिल हैं। लेकिन इसमें सबसे प्रमुख है ज़ावर क्योंकि यहां जस्ते की विश्व की सबसे पुरानी खान है जो लगभग ढ़ाई हज़ार साल पुरानी है। आप विश्वास करें या न करें, यहां की खानों से आज भी जस्ता और सीसा निकलता है।
इतिहास में उदयपुर शहर का उल्लेख मेवाड़ साम्राज्य की राजधानी के रुप में मिलता है जिसमें मौजूदा समय के दक्षिण राजस्थान के काफ़ी हिस्से शामिल थे। उदयपुर के राजधानी बनने के पहले राजस्थान में नागदा और चित्तौड़ जैसे समृद्ध शहर मेवाड़ शासकों की राजधानी हुआ करते थे। लेकिन 16वीं शताब्दी में बारुदी-युद्ध की वजह से चित्तौड़गढ़ का क़िला सुरक्षा की दृष्टि से कमज़ोर लगने लगा था और इसीलिए महाराणा उदय सिंह-द्वितीय (1540-72) ने पिछोला झील के पास सन 1553-1559 के दौरान अपने साम्राज्य के लिए एक नई राजधानी बनाई जिसे आज हम उदयपुर शहर के नाम से जानते हैं।
मेवाड़ साम्राज्य शक्तिशाली भी था और समृद्ध भी। 15वीं और 16वीं सदी में महाराणा कुंभा और महाराणा सांगा जैसे शासकों के शासनकाल में यहां बहुत ख़ुशहाली आई। लेकिन एक पक्ष जो इसके प्रसंग में हमेशा नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है वो ये है कि कैसे मेवाड़ की संपन्नता में इस क्षेत्र के भूगर्भित-संपदा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ज़ावर की खानें बहुत पुरानी हैं जिसका पता हमें इस क्षेत्र में की गई कई खोजों से चलता है। प्राचीन खानों के अवशेषों से लोहे की कुछ छेनियां और मूसल की तरह दिखने वाले हथोड़े भी मिले हैं,जिनका इतिहास खानों के इतिहास जितना पुराना ही माना जाता है। कई खानों में लकड़ी की सीढ़ियों और ढुलाई के मचान के अवशेष भी बचे रह गए हैं। यहां प्राचीन मंदिर, एक क़िला, एक पत्थर की चिनाई से बनाया गया गुरुत्वाकर्षण बांध, धातु के ढ़ेर, अर्क खींचने के मिट्टी के बर्तन, कई पुराने मकान तथा झोपड़ियां भी हैं जिसकी वजह से यह एक अनोखा धरोहर स्थल बन गया है।
ज़ावर के इतिहास के बारे में चट्टानों पर अंकित अभिलेखों और निजी पोथियों से पता चलता है। इसके अलावा आधुनिक डेटिंग तकनीक से भी इसके इतिहास की जानकारी मिलती है। मसोली गांव में मिला राजा शिलादित्य गहलोत के सन 646 के समोली अभिलेख के अनुसार इस क्षेत्र में बहुत खनिज संपदा थी जिसका खनन किया जाता था। अभिलेख से ये भी पता चलता है कि इस ख़ुशहाल शहर में अमीर लोग रहते थे और यहां आते जाते भी रहते थे।
इतिहासकार डॉ. रीमा हूजा अपनी किताब ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ राजस्थान’ (2006) में लिखती हैं कि अभिलेख से पता लगता है कि एक व्यापारिक समुदाय ने अरण्यकुपागिरि ( ज़ावर) में अगारा या खान शुरु की थी जो लोगों की आजीविका का साधन बन गई थी। अभिलेख में 18 विशेषज्ञ इंजीनियरों और सैंकड़ों स्वस्थ कर्मचारियों का भी उल्लेख है। इससे 7वीं सदी में गुहिला राजवंश के शासनकाल के दौरान ज़ावर में खनन गतिविधियों की पुष्टि होती है।
जावर अपने चांदी के उत्पादन के लिए भी मशहूर रहा है। यहाँ कि खानों में सीसा के खनन की प्रक्रिया से ही चांदी भी निकलता है। चांदी का अयस्क यहाँ अलग से नहीं पाया जाता। बल्कि ऐसा भी माना जाता है कि ज़ावर शब्द शायद अरबी शब्द ज़ेवर से ही लिया गया है जिसका अर्थ होता है आभूषण। यहां एक समय चांदी के ज़ेवर बनते थे और अरब व्यापारी गुजरात के बंदरगाहों के ज़रिये पूरे विश्व में इसका व्यापार करते थे। मेवाड़ के महाराणा लाखा (1382-1421) के शासनकाल के दौरान कारीगर ज़ेवर बनाने के लिये चांदी का इस्तेमाल करते थे और इनका बड़े पैमाने पर निर्यात होता था।
यह शहर या इसकी खानों का कब पता लगा इसका कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है लेकिन इसमें कोई शक़ नहीं कि मध्यकालीन समय में ज़ावर एक समृद्ध और व्यापारिक शहर था जहां बड़ी संख्या में लोग रहते थे। पुराने मंदिरों और घरों के अवशेषों से साबित होता है कि यह इलाक़ा बहुत आबाद था। यहां काफ़ी बड़ी संख्या में महाजन और व्यापारी आते थे। खनन उद्योग पर जैन व्यापारियों का प्रभुत्व था जिसका अंदाज़ा यहां पत्थरों पर अंकित अभिलेखों और जैन मंदिरों से लगता है।
कुछ लोग ज़ावर की खानों की खोज का श्रेय महाराणा लाखा को देते हैं लेकिन इसकी वजह राजपुताना रियासतों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट जैम्स टोड हैं जिन्होंने 19वीं सदी में राजस्थान का व्यापक वृत्तांत लिखा था। टोड अपने रिकॉर्ड्स में कहते हैं कि महाराणा लाखा के शासनकाल में ही ज़ावर की टिन और चांदी की खानों का पता चला था। डॉ. हूजा के अनुसार हो सकता है कि मध्यकालीन युग में महाराणा लाखा पहले शासक रहे हों जिन्होंने ज़ावर की खानों से सीसा और चांदी निकालने को बढ़ावा दिया हो।
एक तरफ जहां मेवाड़ की खानों से ताम्बा, चांदी, जस्ता और सीसा निकल रहा था वहीं यहां बालु-पत्थर, क्वार्टज़ाइट,चूना-पत्थर, संगमरमर और सर्पेनटिनाइट जैसे भवन निर्माण में इस्तेमाल होने वाली चीज़ों का भंडार भी था। 15वीं और 16वीं सदी में साम्राज्य के चरम विकास में मेवाड़ की भूगर्भित संपदा का बहुत बड़ा योगदान था।
ये क्षेत्र जल संबंधी आवश्यकताओं के मामले में भी आत्मनिर्भर था। बरसात का पानी झीलों और तालाबों में जमा किया जाता था और अगर मानसून कमज़ोर भी रहता तो भी साल भर तक कोई जल संकट नहीं होता था। प्राकृतिक संसाधनों और भोगोलिक स्थिति की वजह से मेवाड़ के शासकों ने न सिर्फ़ भव्य क़िले और महल बनवाए बल्कि इनकी वजह से उन्हें वैश्विक व्यापार तथा वाणिज्य में भी सफल होने में मदद मिली।
कहा जाता है कि सन 1950 के दशक में ज़ावर में सीसा, जस्ता और चांदी का देश का सबसे बड़ा भंडार था। सीसा और जस्ता अब भी खानों से निकाला जा रहा है। हिंदुस्तान ज़िंक लिमिटेड इस क्षेत्र में चार खानों मोचिया, बलारिया, ज़ावर माला और बरोई में खनन करता है।
सन 1983 में पूरी दुनिया का, ज़ावर पर उस समय ध्यान गया जब लंदन में ब्रिटिश म्यूज़ियम ने भारतीय शिक्षाविदों और उद्योग-वैज्ञानिकों के सहयोग से ज़ावर को जस्ता गलाने वाली विश्व की पहली खान के रुप में मान्यता दी। प्राचीन खनन और कोयले तथा लकड़ी के नमूनों की डेटिंग से पता चलता है कि ये 430-100 ई.पू. के हैं और इस तरह इस स्थान के इतिहास की पुष्टि होती है।
द् अमेरिकन सोसाइटी ऑफ़ मेटल्स (ए.एस.एम. इंटरनेशनल) ने सन 1988 में इस क्षेत्र का वर्णन कुछ इस तरह से किया था- “इस स्थान में जस्ता को पिघलाकर साफ़ करने की भट्टियां और इससे संबंधित गतिविधियों के अवशेष हैं। गांव की कलाकृतियां और मंदिरों के अवशेष इस धातु-उद्योग तकनीक की सफलता को दर्शाते हैं। पीतल की वस्तुएं बनाने के लिये यहां से जस्ता यूरोप सप्लाई किया जाता था जहां सबसे पहले औद्योगिक क्रांति हुई थी।”
कई सालों से स्थानीय संगठन और लोग ज़ावर को भू-विरासत-स्थल के रुप में मान्यता दिलवाने का प्रयास कर रहे हैं। भूविज्ञान-विशेषज्ञ और एम.एल.एस. विश्वविद्यालय, उदयपुर के भूविज्ञान के सेवानिवृत्त प्रो. पुष्पेंद्र राणावत सन 2016 से ज़ावर में भूगर्भीय पार्क बनाने के एक प्रस्ताव पर काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस पार्क से न सिर्फ़ ज़ावर में हुई खोज तथा यहां मिले अवशेषों को दुनिया के सामने रखा जा सकेगा बल्कि भूगर्भीय स्थल के रुप में इस स्थल को संरक्षित करने में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा इससे पर्यटन, ख़ासकर भू-पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा।
राजस्थान खनन एवं भू-विज्ञान विभाग, एम.एल.एस. विश्वविद्यालय का भू-विज्ञान विभाग और इंटेक का प्राकृतिक विरासत विभाग भी इस स्थल को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन फ़िलहाल प्राथमिकता ज़ावर को भारतीय भूगर्भित सर्वेक्षण (जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया) से राष्ट्रीय भू-विरासत स्थल के रुप में मान्यता दिलाने की है।
भारतीय भूगर्भित सर्वेक्षण (जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया) ने राजस्थान में राष्ट्रीय भूगर्भीय स्मारक/भू-विरासत के रुप में 10 स्थलों को मान्यता दी हुई है। प्रो. राणावत और अन्य लोगों ने इस दिशा में प्रयास शुरु कर दिये हैं और जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के प्रदेश विभाग ने सन 2019 में ज़ावर जाकर क़ानूनी दस्तावेज़ भी तैयार कर लिए हैं। व्यक्तिगत स्तर पर प्रो. राणावत राजस्थान के मुख्यमंत्री को पत्र लिखते रहे हैं और वह ज़ावर को दृष्टि में रखकर एम.एल.एस. विश्वविद्यालय के भू-विज्ञान के छात्रों को प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। हाल ही में उन्होंने इस स्थल पर एक विशेष निबंध भी लिखा है।
प्रो. राणावत का मानना है कि प्रशासनिक कार्रावीयों की वजह से इस स्थल को बढ़ावा देने में समय लग सकता है लेकिन स्थल संबंधी लेखों, परिचर्चा और बातचीत से लोगों में इस स्थल को लेकर जागरुकता बढ़ाने में मदद मिलेगी। इस दिशा में एम.एल.एस. विश्वविद्यालय ने भू-विज्ञान के छात्रों के पाठ्यक्रम में भू-पर्यटन को शामिल कर एक क़दम बढ़ाया है।
विश्वविद्यालय छात्रों को ज़ावर सहित विभिन्न भू-विरासत स्थलों पर लेकर जाता है। इस मुहिम को सेवानिवृत्त पेशेवर भू-वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का भी समर्थन प्राप्त है। इसमें लखनऊ की सोसाइटी ऑफ़ अर्थ साइंटिस्ट और जियो-हेरिटेज इंडिया ग्रुप भी शामिल हैं। महाराणा ऑफ़ मेवाड़ चैरिटेबल फ़ाउंडेशन और उदयपुर में सिटी पैलेस म्यूज़ियम ने भी ज़ावर के विकास के लिये किये जा रहे प्रयासों पर ध्यान दिया है।
प्रो. राणावत के अनुसार सिटी पैलेस म्यूज़ियम में सिल्वर गैलरी शायद कभी ज़ावर से संबंधित प्राकृतिक विरासत और खनन को अपने यहां शामिल करे। “इससे लोगों को यह समझने में मदद मिलेगी कि कैसे इस क्षेत्र के भू-विज्ञान ने मेवाड़ की संपदा और प्रतिष्ठा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।”
मुख्य चित्र: ज़ावर की खान का एक चित्र, अप्रकाशित रिपोर्ट, INTACH, 2016