महाराष्ट्र के समुद्री किनारे पर कई क़िले हैं, जिन्हें देखने के लिये बड़ी संख्या में सैलानी आते हैं। इनमें से ज़्यादातर 17वीं शताब्दी के अंत में मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के शासनकाल के दौरान बनाए गए थे। लेकिन उनमें से एक समुद्री क़िला ‘जलदुर्ग’ बहुत ख़ास है, जो मराठा क़िलों से भी लगभग छह सौ साल पहले बनवाया गया था। इतना ही नहीं, सन 1756 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस क़िले पर कब्ज़ा कर लिया था। उसी के साथ मराठा नौसैनिक शक्ति का अंत हो गया था। दरअसल ये क़िला मराठा नौसैनिक शक्ति के उत्थान और पतन की कहानी है।
विजयदुर्ग या ‘जलदुर्ग’ क़िला महाराष्ट्र में सिंधुदुर्ग ज़िले के देवगढ़ तालुक़ा में है, और विशाल अरब सागर से सटा हुआ है। अंग्रेज़ इसे ‘पूर्वी गिब्राल्टर’ कहते थे।
विजयदुर्ग क़िला वाघोटन क्रीक पर स्थित है, जो रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग के बीच सीमा है। इसके तीन तरफ़ समुद्र है और यह उथले नाले से घिरा हुआ था, जो इसे प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान करता था। इसकी वजह से दुश्मन के जहाज़ों को क़िले तक पहुंचने में मुश्किल होती थी।
विजयदुर्ग के पास के एक गांव है, जो ‘घेड़िया’ के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है, कि इसे 12वीं शताब्दी में कोल्हापुर के अंतिम शिलाहारा राजा भोज-द्वितीय (1175-1212) के शासन के दौरान बसाया गया था।ये महाराष्ट्र के सबसे पुराने क़िलों में से एक है।लगभग 5 एकड़ क्षेत्र में फैले इस क़िले को यहां चल रही व्यापारिक गतिविधियों की सुरक्षा के लिए एक सैन्य चौकी के रूप में बनाया गया था। प्राकृतिक बंदरगाह होने की वजह से क़िले के आसपास के क्षेत्र में,मानसून के मौसम में बड़े जहाज़ रुका करते थे। राजा भोज की मृत्यु के बाद लगभग 400 वर्षों तक ये क़िला वीरान पड़ा रहा था। उसके बाद आदिल शाही सल्तनत ने 16 वीं शताब्दी की शुरुआत में इसपर क़ब्ज़ा किया। कहा जाता है, कि पश्चिमी तट पर पुर्तगालियों के बढ़ते प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए क़िले में सुल्तानों ने सात मज़बूत बुर्ज बनवाये थे।
17 वीं शताब्दी के मध्य में क़िले को तब नयी ज़िंदगी मिली, जब छत्रपति शिवाजी (1627-1680) के नेतृत्व में मराठा दक्कन में शक्तिशाली होने लगे। उन्होंने एक नौसैनिक शक्ति की आवश्यकता को महसूस करते हुए न सिर्फ़ इलाक़ों पर कब्ज़ा करना शुरू किया, बल्कि क़िले भी बनवाये। अपनी सैन्य मुहिम के तहत मराठों ने सन 1653 में सातवें सुल्तान मुहम्मद आदिल शाह (1627-1655) से विजयदुर्ग क़िला छीन लिया। चूंकि क़िले पर विजयसंवतसर वर्ष में क़ब्ज़ा किया गया था, इसलिये इसका नाम विजयदुर्ग रख दिया गया। शिवाजी के शासनकाल के दौरान इसे लेटराइट पत्थरों से दोबारा बनाया गया था, और इसका परिसर 17 एकड़ भूमि तक फैला दिया गया था।साथ ही, बुर्जों की संख्या 27 तक बढ़ा दी गई थी। क़िले में कई सैन्य-स्थल बने हुये थे, जैसे घुड़साल, शस्त्रागार, आपातकालीन निकासी के लिए 200 मीटर लंबी सुरंग और समुद्र के नीचे एक लंबी बाड़। इन्हीं वजहों से ये कोंकण तट पर मराठाओं का एक शक्तिशाली गढ़ बन गया।
17 वीं शताब्दी के अंत में यहां से पूरी तरह से काम होने लगा। छत्रपति शाहू- प्रथम (छत्रपति शिवाजी के पोते/ 1682-1649) के शासनकाल में मराठा एडमिरल “सरखेल” कान्होजी आंग्रे (1669-1729) ने इसे मराठा नौसेना का मुख्यालय बनाया, जहां से वह यूरोपीय और सिद्दी की नौसैनिक शक्ति का मुक़ाबला करते थे। छापेमारी युद्धनीति के ज़रिये, कान्होजी ने मराठा नौसेना को बहुत शक्तिशाली बनाया। उन्होंने चप्पू वाली नौकाओं, और विजयदुर्ग में तैनात लंबी दूरी तक मार करने वाली तोपों, और तोपख़ानों की मदद से यूरोपीय नौकाओं पर कब्ज़ा कर लिया, और उनकी धन-दौलत लूट ली। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश, पुर्तगाली, सिद्दी और डच ने आंग्रे से मुक़ाबले के लिये विजयदुर्ग क़िले पर उत्तर या उत्तर-पूर्वी दिशा से कई हमले किए। इनमें से कुछ उनके संयुक्त अभियान थे। लेकिन आंग्रे के युद्ध कौशल और क़िले के आसपास की खाड़ी की प्राकृतिक सुरक्षा की वजह से हमले सफल नहीं हो सके, और इस तरह आंग्रे और उनकी नौसेना पश्चिमी तट में शक्तिशाली हो गई। कई यूरोपीय दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि विजयदुर्ग में स्थिततोपें कहीं ज़्यादा कारगर थीं, जबकि युद्धपोतों में तैनात तोपों से दाग़े जाने वाले गोले हमेशा लक्ष्य से चूक जाते थे, और समुद्र में ही गिर जाते थे।
सन 1729 में आंग्रे की मृत्यु के बाद, उनके पुत्र सेखोजी और संभाजी के संक्षिप्त शासन के बाद अन्य दो पुत्रों- मनाजी और तुलाजी के बीच सत्ता संघर्ष शुरु हो गया। यह वह दौर था, जब मराठा राजनीति में पेशवा का प्रभाव बढ़ रहा था, जो तुलाजी की बेचैनी का सबब बन गया था, और जो उन्हें छत्रपति के अंतर्गत मानते थे। इस बीच पेशवाओं ने मनाजी का समर्थन किया। इसी वजह से उन्हें कोंकण को अपने अधीन करने का अवसर मिल गया। हालांकि पेशवाओं के आंग्रे के साथ संबंध अच्छे नहीं थे। दूसरी तरफ़ छत्रपति शाहू-ने तुलाजी को सरखेल बनाया, जिसने बाद में अपनी योग्यता भी साबित कर दी। शाहू की मौत के बाद तुलाजी को हराने के लिए बालाजी बाजी राव (1720-1761) ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ हाथ मिलाया। समझौता इस शर्त पर हुआ था, कि पैदल सेना पेशवा के मातहत होगी और विजयदुर्ग क़िले पर हमला करने के लिए नौसेना कंपनी के मातहत होगी। बाद में किले को पेशवाओं को सौंप दिया जाएगा।
मार्च-जुलाई सन 1755 के बीच संयुक्त सेना ने मानसून आने तक जयगढ़, अंजनवेल और सुवर्णदुर्ग क़िलों पर कब्जा कर लिया।सन 1755 के अंत में तुलाजी ने गोवा में पुर्तगालियों के साथ सैनिक मदद के लिए एक संधि पर दस्तख़त किए, लेकिन पेशवा और अंग्रेज़ों के विरोध के कारण इसे रद्द कर दिया गया।
आख़िरकार..अंतिम मुठभेड़ की घड़ी आ ही गई। फ़रवरी सन 1756 को ब्रिटिश एडमिरल चार्ल्स वॉटसन और रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में 500 नौसैनिकों और तीन जहाज़ों के साथ विजयदुर्ग क़िले की तरफ़ रवाना हुए। विजयदुर्ग पर अपने पिछले हमलों से सबक़ लेते हुए, अंग्रेज़ों ने अपना एक जहाज़ नष्ट होने के बाद, क़िले पर पूर्वी तरफ़ से तोपों से भारी बमबारी कर बारुद का गोदाम और पूरे मराठा बेड़े को तबाह कर दिया। हालात की नज़ाकत को देखते हुये तुलाजी पेशवाओं के साथ बातचीत करने के लिए विजयदुर्ग क़िले के बाहर निकल आये। पेशवाओं ने क़रीब में ही डेरा डाला हुआ था। लेकिन दुर्भाग्य से तुलाजी को धोखे से गिरफ़्तार कर लिया गया। तुलाजी मृत्यु तक क़ैद में रहे। 11 फ़रवरी, सन 1756 में ब्रिटिश सैनिकों ने क़िले की घेराबंदी कर भारी मात्रा में सामान लूटा, और हथियारों पर कब्ज़ा कर लिया। कंपनी ने विजयदुर्ग क़िला बाणकोट क़िले के बदले पेशवाओं को दे दिया, लेकिन तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (1818) के बाद, विजयदुर्ग क़िला अंग्रेज़ों को सौंप दिया गया। अंग्रेज़ो ने सन 1858 तक यहां अपने सैनिकों को रखा। इसके बाद क़िला वीरान हो गया।
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, विजयदुर्ग क़िला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में आ गया। भारतीय नौसेना ने सन 1976 में अपने प्रमुख जहाज़ों में से एक का नाम आई एन एस विजयदुर्ग रख दिया।इस तरह विजयदुर्ग क़िले की शान में चार चांद लग गये।
विजयदुर्ग क़िला आज भी मराठा नौसेना की ताक़त का गवाह बनकर खड़ा है।
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