कालपी- रानी लक्ष्मीबाई की गुमनाम ऐतिहासिक धरोहर

यौद्धा महारानी लक्ष्मीबाई का संबंध भरत के तीन शहरों से रहा है- झांसी जहाँ उन्होंने शासन किया, ग्वालियर जहां उनका निधन हुआ था और कालपी जहां उन्होंने आरंभ में लड़ाई लड़ी थी। झांसी और ग्वालियर से उनका संबंध जग ज़ाहिर है और उनके नाम के साथ इन शहरों का अक्सर ज़िक्र होता है। लेकिन कालपी को अमूमन भुला दिया जाता है। हम आपको बताने जा रहे हैं कालपी के बारे में और सन 1857 में आज़ादी की लड़ाई में इसकी भूमिका के बारे में।

छोटा-सा शहर कालपी उत्तर प्रदेश में, राष्ट्रीय राजमार्ग 27 पर झांसी और कानपुर के बीच यमुना नदी के तट पर स्थित है। पहली नज़र में ये शहर मामूली-सा लग सकता है लेकिन क़रीब से देखने पर आपको मेहसूस होगा कि यहां इतिहास और एतिहासिक धरोहर का भंडार है।

कालपी का इतिहास 45 हज़ार साल पुराना है। यहां पुरातात्विक खुदाई से पता चलता है कि ये स्थान मध्य पुरापाषाण युग के समय का है। मध्य पुरापाषाण युग तीन लाख से तीस हज़ार साल पहले हुआ करता था। ये स्थल गंगा-यमुना के बीच के क्षेत्र में उन कुछ स्थलों में से है जहां मानव बस्ती के सबूत मिले हैं। यहां खुदाई में अन्य चीज़ों के अलावा हाथी का एक 3.54 मीटर लंबा दांत और जानवरों की हड्डियों से बनाए गए औज़ार मिले हैं। इससे पता चलता है कि यहां पाषाण युग के लोग रहते थे। माना जाता है कि कालपी, महा-काव्य महाभारत के रचयिता ऋषि वेद व्यास की जन्म-स्थली भी है।

मध्यकालीन युग की बात करें तो कालपी, जो जेजाकभुक्ति क्षेत्र (आधुनिक समय में बुंदेलखंड) का हिस्सा हुआ करता था, 10वीं-11वीं सदी में चंदेल राजवंश के साम्राज्य में आता था। चंदेलों ने यहां एक क़िला बनवाया था जिसे चंदेलों द्वारा बनवाए गए आठ भव्य क़िलों में से एक माना जाता है। चंदेल राजवंश के शासक कला और वास्तुकला के संरक्षक माने जाते हैं और मशहूर खजुराहो मंदिर परिसर की लजह से भी उन्हें जाना जा सता है। वहां के मंदिर भी इन्होंने ही बनवाए थे।

सन 1196 में कालपी पर मोहम्मद घोरी की सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था जिसने भारत में दिल्ली सल्तनत की नींव डाली थी।ममलूक, ख़िलजी, तुग़लक़ सैयद और लोदी ये सब राजवंश इस सल्तनत के हिस्सा रहे थे। कालपी क़िला इनका मज़बूत केंद्र हुआ करता था और यमुना नदी से यहां सम्पर्क-सूत्र क़ायम रहते थे और आवाजाही हुआ करती थी।

14वीं सदी में तुग़लक़ साम्राज्य का पतन हो गया और महत्वाकांक्षी सूबेदारों ने इसका फ़ायदा उठाया। इनमें से एक सूबेदार मलिकज़ादा नसरउद्दीन मेहमूद ने सन 1390 में अपने लिए एक अलग साम्राज्य बना लिया जिसकी राजधानी कालपी थी। इस तरह कालपी थोड़े समय के लिए एक छोटी सी रियासत बन गई थी।

शहर में सल्तनत के दौर के कई अवशेष बिखरे पड़े हैं। ख़ासकर मक़बरों के रुप में। उनमें सबसे भव्य है “लोदी बादशाह का चौरासी मक़बरा”। यह मक़बरा सात मेहराबदार प्रवेश-द्वारों से घिरा है।

इस मक़बरे के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह भी पता नहीं है कि इसे बनवानेवाला बादशाह कौन था लेकिन इस बारे में कुछ अंदाज़े ज़रूर लगाए गए हैं। इनमें एक अंदाज़ा ये है कि ये बादशाह दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी (1517-1526) के भाई जलाल ख़ान था। जलाल ख़ान ने अपने भाई के समानांतर ख़ुद का प्रभुत्व जमाने की कोशिश की थी और उसने जौनपुर शहर के पास अपनी राजधानी बनाई थी। लेकिन इब्राहिम लोदी ने उसे मना लिया और जलाल अपनी पुरानी जागीर कालपी में वापस आ गया। उसकी मृत्यु के बाद उसे शायद इसी मक़बरे में दफ़्न कर दिया गया होगा ।

दिल्ली सल्तनत के बाद मुग़ल वंश का आगमन हुआ। पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हरा दिया और पूरे क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया। अकबर के शासनकाल में कालपी में सूबेदार हुआ करता था और यहां तांबे के सिक्कों की टकसाल भी थी। माना जाता है कि अकबर के वज़ीर बीरबल का जन्म भी यहीं हुआ था।

सन 1670 के दशक में मुग़लों को चंदेल राजपूत राजवंश के राजा छत्रसाल के विद्रोह का सामना करना पड़ा। छत्रसाल इसके पहले मुग़ल और मराठा सेना में रह चुका था। बाद में उसने बुंदेलखंड में एक छोटा-सा साम्राज्य स्थापित कर लिया था। वह बाजीराव पेशवा की दूसरी पत्नी मस्तानी का पिता भी था। सन 1731 में उसके निधन के बाद कालपी सहित उसके अन्य क्षेत्र मराठाओं के पास चले गए। मराठा शासकों ने इस क़िले का इस्तेमाल राजकोष के रुप में किया।

सन 1803 के आसपास अंग्रेज़ो ने कालपी पर नियंत्रण कर इसे बुंदेलखंड का एक हिस्सा बना लिया। सन 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई के दौरान यहां अंग्रेज़ सेना के सिपाहियों ने अपने अधिकारियों के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी और यहां घमासान युद्ध हुआ था।

अंग्रेज़ सेना ने जब झांसी का घेराव कर लिया तब महारानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर के साथ आधी रात में कुछ रक्षकों के साथ, वहां से निकल गईं। वे उत्तर-पूर्व में कालपी की तरफ़ रवाना हुए जो झांसी से 150 कि.मी. दूर था। उन्होंने कालपी में पड़ाव डाल दिया । वहां उन्हें तात्या टोपे की अतिरुक्त सेना उनके साथ जुड़ गई।

लेकिन जल्द ही अंग्रेजों की सेना ने कालपी पर भी हमला बोल दिया। अंग्रेज़ सेना के ख़िलाफ़ लक्ष्मीबाई ने अपनी सेना की कमान ख़ुद संभाली। लेकिन उस लड़ाई में वह हार गईं। इसके बाद उन्होंने ग्वालियर की तरफ़ रुख़ किया।

कालपी फिर अंग्रेज़ों के अधिकार क्षेत्र में आ गया और आज आप यहां औपनिवेशिक धरोहर के रुप में एक क़ब्रिस्तान के अवेशष देख सकते हैं।

कालपी में एक और देखने लायक़ स्मारक “लंका मीनार” है जो 225 फ़ुट ऊंचा है। इसे एक धनवान नागरिक मथुरा प्रसाद निगम ने सन 1885 में बनवाया था। इस मीनार पर रामायण के दृश्य अंकित हैं।

दुख की बात ये है कि समय के साथ ये ऐतिहासिक शहर गुमनामी के अंधेरे में खो गया है। यहां के समृद्ध और सुंदर स्मारक जर्जर हालत में हैं। समय रहते सरकार को उत्तर प्रदेश और भारत के इतिहास की इस अनमोल धरोहर पर ध्यान देना चाहिये और उचित ढ़ंग से इसकी देख-रेख करनी चाहिए।

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