गुवाहाटी शहर में ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी तट पर एक द्वीप है, जहां ईंटों और पत्थरों का एक मंदिर परिसर स्थित है। इस मंदिर में शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों की मिली-जुली झलक मिलती है। भगवान शिव से जुड़ी कई कहानियों में इसके उल्लेख की वजह से ये भारत के अनूठे मंदिरों में से एक है। महाशिवरात्रि त्यौहार के दौरान पूरे देश से लाखों श्रद्धालू यहां आते हैं।
यह द्वीप, जिसका नाम उमानंद है, इसके बारे में कई लोगों का दावा है, कि ये आबादी वाला भारत का सबसे छोटा द्वीप है। ये द्वीप असम के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण वक्तें का गवाह भी रहा है, जिन्होंने असम का इतिहास बनाने में योगदान दिया है। । द्वीप के अंदर एक पहाड़ी है, जिसे स्थानीय लोक कथाओं में भस्माचल कहते हैं। यहां भगवान शिव को समर्पित मंदिर उमानंद देवालोई है। ये कामरुप क्षेत्र के पांच मुख्य तीर्थ-स्थलों में से एक है। हालांकि लोग इस तीर्थ स्थल के बारे में कम ही जानते हैं, लेकिन इसके बावजूद ये भारत में पूजनीय स्थलों में से एक है। मंदिर में पत्थरों को तराश कर बनाई गई कई ढांचे हैं, जिससे इस क्षेत्र की मूर्तिकला की शानदार कारीगरी के बारे में पता चलता है।
असम को पहले कामरुप के नाम से जाना जाता था। कालिका पुराण, योगिनी तंत्र, हर्षचरित और देवी पुराण जैसे अनेक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। कहा जाता है, कि असम का आधिकारिक इतिहास चौथी सदी से शुरु होता है, जब यहां वर्मन राजवंश का शासन होता था। दस्तावेज़ों के अनुसार यहां तांत्रिक शक्तिवाद और शैव जैसे धार्मिक संप्रदाय हुआ करते थे तथा अहोम के शासनकाल के दौरान, 17वीं सदी में यहां वैष्णव संप्रदाय का आगमन हुआ था। कई इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं, कि अन्य संप्रदायों की तुलना में शैव संप्रदाय सबसे ज़्यादा लोकप्रिय था। कई प्राचीन ग्रंथों और भगवान शिव से जुड़ी लोक कथाओं में उमानंद द्वीप का उल्लेख है। प्राचीन युग से स्थानीय लोग कामख्या मंदिर के साथ-साथ भगवान शिव को समर्पित मंदिर उमानंद देवालोई में पूजा करते रहे हैं।
उमानंद द्वीप का आरंभिक उल्लेख कालिका पुराण में मिलता है। इससे हमें प्राचीन असम के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। कामरुप के पाल शासनकाल (10वीं-11वीं सदी) में रचित कालिका पुराण में उमानंद द्वीप से जुड़ी एक स्थानीय कथा का ज़िक्र है। इस लोककथा के अनुसार ये द्वीप भगवान शिव ने सती के लिए बनाया था, जिन्हें उनके पिता दक्षराज ने शिव से विवाह करने के कारण त्याग दिया था। यहीं पर प्रेम के देवता कामदेव पर शिव का प्रकोप टूटा था, क्योंकि उसने शिव की तपस्या में विध्न डाला था। शिव के प्रकोप की वजह से कामदेव भस्म हो गया था। जिस पहाड़ी पर शिव मंदिर है उसे भस्माचल भी कहा जाता है, जहां कामदेव की भस्म है। इसी लोककथा का उल्लेख योगिनी तंत्र में भी है, जो 16वीं सदी में कोच शासकों के शासनकाल में लिखा गया था।
वह स्थान जहां शिव द्वारा काम ने अपना मूल रुप प्राप्त किया था, उसे बाद में कामरुप कहा जाने लगा- जो असम राज्य का मूल नाम हुआ करता था।
नीरद बरुआ अपनी किताब ‘प्राग्ज्योतिषपुर- ए कल्चरल ज़ोन ऑफ़ अर्ली असम (2004)’ में उमाचल रॉक शिला-लेख (नीलांचल पर्वत-5वीं सदी) के बारे में बताते हैं, जो वर्मन राजवंश के समय का है। इस शिला-लेख में मंदिर-निर्माण की आरंभिक वास्तुकला का वर्णन है। ये वास्तुकला उत्तर भारत की नागर शैली से प्रेरित है। उमानंद द्वीप में शिव मंदिर (उमानंद देवालोई) में हमें इसके उदाहरण देखने को मिलते हैं। यहां सीढ़ियां, गुफाएं और दीवारें जैसी संरचानाएं चट्टान तराश कर बनाईं गई हैं। यहां गणेश की पत्थर को तराश कर बनाई गई एक छवि और गुफा के अलावा पत्थर की एक महिला की अष्टभुज छवि आज भी मौजूद है।
मध्यकालीन युग में एक तरफ़ जहां कामता, औऱ कोच जैसे राजवंशों का साम्राज्य रहा, वहीं दूसरी तरफ़ प्रथम अहोम राजा सुकफ़ा के नेतृत्व में 13वीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में अहोम साम्राज्य का उदय हुआ। अनुपमा घोष अपनी किताब ‘लैंड ग्रांट्स टू कामख्या टेंपल ऑफ़ असम-ए स्टडी ऑफ़ द चैंजिंग स्टेट पॉलिसीज़’ (2010-11) में लिखती हैं, कि 14वीं सदी तक शुरु में अहोम शासक हीनयान बौद्ध और फिर हिंदू धर्म अपनाने लगे थे। वे शाही पूजापाठ के लिए पुजारियों को बुलवाते थे और उन्हें अपने शाही दरबार में शामिल भी करते थे। कुछ सदियों के बाद अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए दोआर पड़ौस से कोच शासकों ने असम के कुछ हिस्सों को हथियाकर अपने क्षेत्रों में मिला लिया। इन पर उनका 17वीं सदी की शुरुआत तक कब्ज़ा रहा। सन 1603 सदी में एक युद्ध में अहोम ने उन्हें हरा दिया और इस तरह इन क्षेत्रों पर उनका कब्ज़ा समाप्त हो गया। यहां जब अहोम का शासन हो गया, तब कूच राजा उन्हें वार्षिक राशि देने लगे। कूच राजा कामाख्या और उमानंद मंदिरों के लिए भी वित्तीय अनुदान देते थे।
गोपेश कुमार सरमा अपनी किताब ‘किंग्स एंड कल्ट्स इन द लैंड ऑफ़ कामाख्या टिल 1947’ (2015) में लिखते हैं कि सन 1662 में मीर जुमला के नेतृत्व में मुग़ल फौजों ने समधारा और कलियाबोर की लड़ाई के बाद गुवाहाटी और अहोम की राजधानी गढ़गांव पर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन उमानंद और कामाख्या मंदिरों को अनुदान मिलना जारी रहा। अब ये अनुदान मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से मिलता था। समुद्री गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए ब्रह्मपुत्र पर एक छोटी-सी मुग़ल चौकी बनाई गई थी, जिसके अवशेष सन 1897 में असम में आए भूकंप में नष्ट हो गए थे।
सन 1671 में मशहूर असमी सेनापति लचित बोरफुकन के नेतृत्व में सरायघाट के भीषण युद्ध के बाद अहोम ने गुवाहाटी पर फिर कब्ज़ा कर लिया और उमानंद द्वीप में सीमा चौकी को निष्प्रभावी कर दिया गया। सन 1694 में अहोम शासक गदाधर सिंह (शासनकाल 1681-1696) ने अपनी पत्नी सती जयमती के लिए उमानंद मंदिर को दोबारा बनाने का आदेश दिया। ये मंदिर पुराने मंदिर के ढांचे के ऊपर ही बनवाया गया था। अहोम शासक की पत्नी शिव भक्त थी। यह मंदिर अपनी पत्नी के नाम बनवाने का काम गदाधर सिंह ने अपने दरबारी बोड़फुकन गृहगण्य हांदीक़ी को सौंपा था।
दोनों मंदिरों (कामाख्या और उमानंद) को अब अहोम और कूच शासकों से और संरक्षण मिलने लगा। इसके बाद अहोम शासकों ने कामरुप क्षेत्र में और भी मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें पत्थरों के दो मंदिर उमानंद मंदिर के पास बनवाए गए थे। सन1782 में शासक गोरीनाथ सिंह (शासनकाल 1780-1795) ने हारा गोरी मंदिर बनवाया। सन 1820 में राजा चंद्रकांत सिंह (शासनकाल 1819-1821) ने अष्टकोणीय चंद्रशेखर मंदिर का निर्माण करवाया। ये वो समय था, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अहोम शासकों के ख़िलाफ़ मोआमोरिया विद्रोह (1769-1805) को कुचलने के बाद असम में घुसपैठ कर रही थी। मोआमोरिया विद्रोह से अहोम शासन की कमज़ोरी उजागर हो गई और ये भी पता चल गया कि इसी कमज़ोरी की वजह से बर्मा के शासकों ने यहां कब्ज़ा कर लिया था।
एंग्लो-बर्मा युद्ध (1821-1826) और सन 1826 में यान्डाबू संधि के बाद असम पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। अंग्रेज़ जब असम की खोजबीन कर रहे थे तभी उनकी नज़र उमानंद द्वीप पर पड़ी। अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से ये किसी मोर के फैले हुए पंखों की तरह लगता था और इसीलिए एक अंग्रेज़ अफ़सर ने इस द्वीप का नाम पिकॉक आइलैंड (मोर द्वीप) रख दिया।
सन 1897 में ये द्वीप एक प्राकृतिक आपदा का शिकार हो गया था। एक भीषण भूकंप में तीनों मंदिर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए और यहां रहने वाले सभी लोग मारे गए। कुछ साल बाद एक स्थानीय रईस व्यापारी (नाम अज्ञात) ने इनकी मरम्मत करवाई और मुख्य शिव मंदिर के भीतरी हिस्से पर वैष्णव संप्रदाय संबंधी पठन सामग्री लिखवाई। यहां विष्णु और उनके दस अवतार के अलावा सूर्य, गणेश, शिव और देवी (बिच्छू के प्रतीक चिन्ह के साथ) की भी मूर्तियां लगाई गईं, जिन्हें आज भी देखा जा सकता है। मौजूदा समय का ये मंदिर असमिया वास्तुकला का एक सुंदर उदाहरण पेश करता है।
मंदिर के अलावा, ये द्वीप गोल्डन लंगूर (सुनहरे लंगूर) की वजह से भी बहुत लोकप्रिय है। गोल्डन लंगूर एशिया की सबसे ज़्यादा विलुप्तप्राय: नर वानर प्रजातियों में से एक हैं। इसके बारे में एक क़िस्सा है। कहते हैं कि सन 1980 के दशक में दो युवक इन्हें यहां छोड़ गए थे और तभी से ये यहां रह रहे हैं। इन्हें हिमालय के आसपास रहने वाले लोग बहुत लंबे समय तक पवित्र मानते थे। गोल्डन लंगूर पश्चिमी असम और भूटान के पहाड़ों में ही पाए जाते हैं। चूंकि यहां सैलानी आते रहते हैं इसलिए अब इंसानी सोहबत के आदी हो गए हैं।
बाढ़ को लेकर एक स्थानीय असमी कहावत भी है। कहते हैं, कि अगर किसी दिन उमानंद डूब गया, तो पूरा गुवाहाटी जलमग्न हो जाएगा। बाढ़ के समय उमानंद बाक़ी हिस्सों से कट जाता है, क्योंकि ब्रह्मपुत्र नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। इस दौरान द्वीप पर रहने वाले लोग दिन में भोग (प्रसाद) पर निर्भर करते हैं और रात को ही भोजन बनाते हैं। चाय की दुकान वाले उमानंद आने वाले सैलानियों से कमाई करते हैं।
प्रसिद्ध असमी उपन्यासकार इंदिरा गोस्वामी के मशहूर उपन्यास द मैन फ़्रॉम छिन्नमस्ता (2005),जिसमें इसे भस्माचल कहा गया है, और अमित सरकार के मोमेंट्स इन टाइम (2013) सहित कई किताबों में उमानंद द्वीप का ज़िक्र है।
मंदिर के साथ-साथ ये द्वीप शादीशुदा युवाओं के बीच भी बहुत लोकप्रिय है, जो दीर्घायु की कामना करने यहां आते हैं। स्थानीय मान्यता है, कि कामाख्या मंदिर जाने के पहले इस द्वीप में जाना चाहिए।
हाल ही के वर्षों में उमानंद द्वीप के सामने ब्रह्मपुत्र के तटों पर सांस्कृतिक और सरकारी समारोह होने लगे हैं, जिनकी वजह से भी लोग यहां आने लगे हैं। यहां काछेरी, उज़ानबाज़ार, सुकलेश्वर और फ़ैंसी बाज़ार घाटों से नाव और मोटर बोट से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
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