तुग़लकाबाद और एक अभिशाप

तुग़लकाबाद को अभिशप्त कहा जाये या फिर बदक़िस्मत? दिल्ली के कई शहर हैं जिनके साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। तुग़लकाबाद भी इनमें से एक है जो ख़ासकर अपने क़िले के लिये जाना जाता है। तुग़लकाबाद में वीरानगी छाई रहती है, यहां तक कि सन 1320 में जब ये शहर बनवाया गया था तब भी ये बस कुछ सालों तक ही आबाद रहा वर्ना ये लगभग हमेशा निर्जन ही रहा। ये शहर एकदम जर्जर अवस्था में है ठीक वैसा ही जैसे इसके बारे में 700 साल पहले भविष्यवाणी की गई थी।

तुग़लकाबाद शहर और उसका भव्य क़िला, ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने ऐसे समय में बनवाया था जब मंगोल के हमलों का ख़तरा बना रहता था। 13वीं और 14वीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तानों को मंगलों के हमलों का लगातार सामना करना पड़ रहा था। मंगोल मध्य एशिया में सक्रिय थे और और हमले के बाद सब तहस नहस करके लौट जाते थे। अलाउद्दीन ख़िलजी के समय में वे दिल्ली के दरवाज़ो तक दो बार आ चुके थे। इसी वजह से अलाउद्दीन ने मंगोलों से सुरक्षा के लिये सिरी नाम का क़िलेबंद शहर बनवाया था।

ग़यासउद्दीन तुग़लक को ग़ाज़ी मलिक के नाम से भी जाना जाता था। वह अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना में जनरल था और मुल्तान में तैनात था। कहा जाता है कि ग़यासउद्दीन तुग़लक सिरी की सुरक्षा से संतुष्ट नहीं था । उसने अलाउद्दीन को सलाह दी थी कि राजधानी को, सिरी से 11 कि.मी. दूर ले जाया जाये। यही वह जगह थी जहां आज तुग़लक़ाबाद है। लेकिन अलाउद्दीन ने तुग़लक का सुझाव रद्द कर दिया और व्यंग करते हुए कहा कि तुम जब सुल्तान बनो तब अपनी राजधानी वहां (तुग़लक़ाबाद) बना लेना। तब तुग़लक के सुल्तान बनने की कोई संभावना नहीं थी। लेकिन अलाउद्दीन की बात सच साबित हो गई। अलाउद्दीन के निधन के बाद तख़्ता पलटा और ग़ाज़ी मलिक सुल्तान बन गया और उसने अपना नाम ग़यासुद्दीन तुग़लक़ रख लिया।

बतौर जनरल ग़यासुद्दीन तुग़लक़ मंगोलों से जूझता रहता था और इसका असर उसके शासन में पर भी देखने को मिला। कहा जाता है कि मंगोल उसके ज़हन में हमेशा हावी रहते थे। सुल्तान बनने के कुछ महीने के बाद ही उसने तुग़लक़ाबाद बनवाने का आदेश दिया। तुग़लक़ाबाद जितना बड़ा है उसे देखकर लगता है कि तब इसे बनाना कितना मुश्किल काम रहा होगा।

तुग़लक़ाबाद का क़िला

ढ़लान वाली दीवारों और बुर्ज की वजह से तुग़लक़ाबाद क़िला देखने में आलीशान लगता है। दिलचस्प बात ये है कि तुग़लक़ाबाद क़िले की अंदर की तरफ़ झुकी हुई दीवारें मुल्तान की ईमारतों की वास्तुकला से प्रेरित थीं जहां तुग़लक़, अलाउद्दीन के सूबेदार की हैसियत से तैनात था। मुल्तान में क़िले और मक़बरे की ईंटों के बने होते थे और उनकी दीवारें ढ़लानदार होती थीं। तुग़लक़ ने तुग़लक़ाबाद को ठीक वैसे ही बनवाया जैसा उसने मुल्तान में देखा था।

14वीं शताब्दी में तुग़लक़ाबाद शहर और क़िला भिन्न लगता था। तब क़िले के आसापास पानी भरा रहता था जो ज़ाहिर है कि मंगोलों के आक्रमण से रक्षा के लिये था। क़िले के अंदर शहर तीन हिस्सों में बंटा हुआ था। पहले हिस्से में बुर्ज था, दूसरे हिस्से में साभागार और तीसरे हिस्से में शाही लोगों के लिये महल थे।

इतिहासकार और लेखक डॉ. स्वपन लिड्डले के अनुसार ये क़िला सुरक्षा की दृष्टि से बनवाया गया था। इसकी दीवारें चट्टानों से ऊपर की तरफ़ निकली हुई थी। शहर बनाने का मुख्य कारण ही सुरक्षा था

शहर में घर बनवाए गए थे और माना जाता है कि रईस लोग यहां कुछ समय के लिये रहने आए भी थे। आज घरों और महलों के बस मलबे ही नज़र आते हैं। यहां एक भूमिगत बाज़ार भी है जिसे आज भी देखा जा सकता है।

सुरक्षा की दष्टि से पानी तुग़लक़ाबाद क़िले के आसपास लाया गया था लेकिन इसकी सप्लाई कम थी। यहां पानी के लिये बावड़ियां और जलाशय बनवाए गए थे लेकिन फिर भी पानी का संकट बना रहा और शायद यही वजह है कि लोग इस जगह को छोड़ कर चले गए।

अभिशाप

कहा जाता है कि तुग़लक़ाबाद शुरु से ही अभिशप्त था। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ और सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया के बीच अनबन रहती थी। निज़ामुद्दीन औलिया बहुत मशहूर थे और उनकी दरगाह यहां से 14 कि.मी. दूर दिल्ली में थी, जहां आज भी हज़ारों श्रद्धालू रोज़ आते हैं। कहा जाता है कि ग़यासुद्दीन सूफ़ी संत की लोकप्रियता को लेकर चौकन्ना रहता था।

एक कथा के अनुसार ग़यासुद्दीन तुग़लक़ जब तुग़लक़ाद क़िला बनवा रहा था तभी निज़ामुद्दीन औलिया भी अपने ख़ानगाह के पास एक बावड़ी बनवा रहे थे। तुग़लक़ जल्द से जल्द क़िला बनवावा चाहता था इसलिये उसने हिदायत दी थी कि कोई भी मज़दूर यहां का काम छोड़कर बावड़ी बनवाने नहीं जाएगा। लेकिन निज़ामुद्दीन औलिया का इतना सम्मान था कि मज़दूर दिन में क़िले का काम करके और रात को बावड़ी की खुदाई का काम करने चले जाते थे। इससे तुग़लक़ बहुत नाराज़ हो गया और उसने मज़दूरों पर ज़्यादतियां करनी शुरू कर दीं। ये बात जब निज़ामुद्दीन को पता चली तो उन्होंने बददुआ दी कि तुग़लक़ का नया शहर निर्जन रहेगा। उन्होंने कहा कि यहां या तो सिर्फ़ गुर्जर रहेंगे या फिर ये पूरी तरह वीरान रहेगा। गुर्जर पशुपालक होते थे जो गाय, भेड़-बकरियां चराया करते थे।

कहा जाता है कि अभिशाप के बारे में पता लगने के बाद ग़यासुद्दीन तुग़लक़ और भड़क गया। उस समय वह एक सैन्य अभियान पर था। किवदंती के अनुसार उसने कहा कि सैन्य अभियान ख़त्म होने के बाद वह निज़ामुद्दीन से निबटेगा। ये बात जब निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायियों ने सुनी तो उन्होंने उनसे दिल्ली छोड़ने का आग्रह किया। लेकिन निज़ामुद्दीन औलिया ने दिल्ली छोड़ने से मना कर दिया और कहा- दिल्ली अभी दूर है।

और जैसा कि हम सब जानते हैं, ग़यासुद्दीन दिल्ली नहीं लौट सका और सन 1324 में तम्बू गिरने से रास्ते में ( आज के उत्तर प्रदेश) ही उसकी मौत हो गई। कहा जाता है कि तम्बू गिरने की घटना के पीछे उसके पुत्र मोहम्मद बिन तुग़लक़ का हाथ था। ताज्जुब की बात ये है कि निज़ामउद्दीन का ये कथन “दिल्ली अभी दूर है” आज भी मुहावरे की तरह उपयोग किया जाता है। ये इतना मशहूर हो गया कि आज भी राजनीतिक विश्लेक्षक इसका इस्तेमाल करते हैं। भारत में सत्ता का केंद्र दिल्ली है और तमाम क्षेत्रीय नेता दिल्ली आना चाहते हैं इसिलिये उनसे कहा जाता है कि दिल्ली अभी भी दूर है।

हमें नहीं पता कि ये क़िस्सा कितना सही है लेकिन हमें जानते हैं कि सत्ता संभालने के कुछ साल बाद ही मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने 12 सौ कि.मी. दूर दौलताबाद को अपनी राजधानी बना लिया। मोहम्मद बिन तुग़लक़ वारंगल और दक्षिण में अन्य साम्राज्यों से लड़ने में व्यस्त था और उसे पता था कि उत्तर भारत में रहकर तुग़लक़ साम्राज्य नहीं चलाया जा सकता। इसके अलावा मंगोलों के ख़तरे को भी देखते हुए राजधानी बदलना अक्लमंदी थी।

राजधानी बदलना, प्रशासन, सेना और पूरी आबादी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के, मोहम्मद बिन तुग़लक़ के फ़ैसले को उसके शासन की सबसे बड़ी भूल माना जाता है।

राजधानी को दिल्ली से दक्षिण की तरफ़ ले जाने में बरसों लग गए। इतिहासकार और विद्वान इब्न बतूता और ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार तुग़लक़ को ये फ़ैसला मजबूरन करना पड़ा जो अलोकप्रिय भी था। बरनी का कहना है- सलाह-मश्विरे और बिना सोचे समझे किए गए फ़ैसले से तुग़लक़ ने दिल्ली को बरबाद कर दिया। डेढ़ सौ, पौने दो सौ साल में जो संपन्नता हासिल हुई थी वह बग़दाद तथा क़ाहिरा के बराबर हो चली थी। लेकिन तुग़लक़ के ग़लत फ़ैसले से दिल्ली की सराय और उप-नगर, और दूर दूर तक फैले गांव,सब उजड़ गए। इंसान तो क्या,एक बिल्ली या कुत्ता भी नहीं बचा था।

तुग़लक़ का फ़ैसला विनाशकारी था। शहर छोड़ते हुए कई लोग मौत के मुंह में समा गए और जो लोग दौलताबाद पहुंचे भी, वे बहुत निढ़ाल हो चुके थे और नाराज़ भी थे। बहरहाल सन 1335 में मोहम्मद बिन तुग़लक़ को मजबूरन वापस लौटना पड़ा।.

लेकिन तुग़लक़ वापस तुग़लक़ाबाद नहीं लौटा। वह उस शहर में लौटा जो उसने सत्ता संभालने के बाद बनवाया था। उसने अलाउद्दीन की पुरानी राजधानी सिरी के पास नया शहर जहांपनाह बनाया था। डॉ. स्वप्न लिड्डले जैसे इतिहासकारों के अनुसार तुग़लक़ाबाद के साथ उसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी समस्या थी। ये महरौली और लाल कोट से बहुत दूर था जहां ज़्यादातर लोग रहते थे। तुग़लक़ाबाद जब बना था तब भी लोग वहां बसने से कतरा रहे थे।

तुग़लक़ाबाद इतना अभिशप्त था कि महम्मद बिन तुग़लक़ के उत्तराधिकारी फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ ने भी इससे हाथ झाड़कर दिल्ली में यमुना नदी के किनारे फ़ीरोज़ शाह कोटला को अपनी राजधानी बनाया हालंकि जैसे जैसे दिल्ली का विस्तार होता गया यमुना नदी इससे दूर होती गई।

तुग़लक़ाबाद के मक़बरे

तुग़लक़ाबाद क़िले के प्रवेश द्वार के दूसरी तरफ़ आपको एक छोटा सा क़िलेबंद प्रांगड़ दिखाई पड़ेगा जहां लाल और सफ़ेद रंग का एक सुंदर स्मारक है। यही वह जगह है जहां ग़यासउद्दीन, उसकी पत्नी और उसका पुत्र मोहम्मद बिन तुग़लक़ दफ़्न हैं।

मक़बरे की वास्तुकला तुग़लक़ वास्तुकला की शैली से मेल खाती है। तुग़लक़ाबाद क़िला जहां उजाड़ और बेजान नज़र आता है वहीं लाल और सफ़ेद पत्थरों से बना ये स्मारक लक़दक़ करता दिखाई पड़ता है।

यहां जो क़िलेबंद ढांचा आपको दिखता है वो शायद तुग़लक़ाबाद क़िले की क़िलाबंदी का ही हिस्सा रहा होगा। 14वीं शताब्दी में ये शायद क़िले के आसपास पानी में डूबी हुई चट्टान का उभरा हुआ हिस्सा हो सकता है। पहले ये ग़यासुद्दीन के सिपहसालार ज़फ़र ख़ान के मक़बरे का स्थान था लेकिन बाद में इसे तुग़लक़ सुल्तानों के मक़बरों के परिसर में शामिल कर लिया गया।

इस शांत मक़बरे में आज ग़यासुद्दीन और उसका पुत्र मोहम्मद बिन तुग़लक़ साथ-साथ दफ़्न हैं।

निर्जन शहर

तुग़लक़ाबाद दिल्ली के उन आठ शहरों में से एक है जो निर्जन हैं। अभिशाप के अलावा और भी कई बातें हैं जो इस शहर को रास नही आईं। तुग़लक़ाबाद गहमागहमी वाले शहर महरौली और सूफ़ी-संतों के मज़ारों तथा मस्जिदों से बहुत दूर था। लोग यहां आना ही नहीं चाहते थे। पानी की क़िल्लत भी एक वजह रही होगी। यहां हालंकि आपको बावड़ियां दिखाई देडगीं लेकिन उनमें पानी नहीं होगा।

17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में कुछ समय के लिये तुग़लक़ाबाद थोड़ा बहुत बसा था। फ़रीदाबाद के संस्थापक शेख़ फ़रीद ने इसे अपना केंद्र बनाया था। शेख़ ने यहां एक मस्जिद भी बनवाई थी।

लेकिन वीरान तुग़लक़ाबाद के लंबे इतिहास में ये वक़्फ़ा बहुत छोटा ही रहा। आज ये ऐतिहासिक स्मारक के रुप में जाना जाता है। इसका इतिहास जो भी रहा हो, ये आपको उस दौर में ले जाता है जब दिल्ली पर मंगोल का ख़तरा मंडरा रहा था।

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