आंध्र प्रदेश के तिरुपति में श्री वेंकटेश्वर मंदिर भारत के उन मंदिरों में से एक है जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिये जाते तो हैं लेकिन इनमें से कुछ लोगों को ही पता है कि ये मंदिर कितना पुराना है। मंदिर को लेकर कई दंतकथाएं हैं लेकिन एक बात जो हम अच्छी तरह जानते हैं वो ये कि ये हज़ार बरसों से पूजा-अर्चना का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है और इसे दक्षिण में पल्लव से लेकर विजयनगर के राय राजवंश का संरक्षण प्राप्त था। इस मंदिर में आज भी लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
ये मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर ज़िले के तिरुपति शहर में तिरुमाला अथवा तिरुमलय पहाड़ी पर स्थित है। ये पूर्वी घाटों में शेषाचलम पर्वतमाला का हिस्सा है जिसकी सात चोटियां हैं। श्रद्धालुओं का मानना है कि ये सात चोटियां नागराज आदिशेष के सात फनों का प्रतिनिधित्व करती हैं। पर्वतमाला को देखने से लगता है मानों कोई सांप कुंडली मारे बैठा हो।
कहा जाता है कि तिरुमाला के भगवान श्री वेंकटेश्वर का आरंभिक उल्लेख ई.पू.दूसरी सदी के तमिल साहित्यिक ग्रंथ तोल्काप्पियम में मिला था। श्री वेंकटेश्वर सात पर्वतों के भगवान के रुप में जाने जाते हैं और ऐसा विश्वास किया जाता है कि वह कलि युग (हिंदू धर्म के अनुसार विश्व की चार अवस्थाओं में से एक) में भागवान विष्णु के अवतार हैं। श्री वेंकटेश्वर मंदिर के साथ कई कथाएं जुड़ी हुई हैं और इनमें एक कथा ये भी है कि यहां मुख्य देवता की प्रतिमा स्वयंभू मूर्ति है। इसी वजह से मंदिर को अपने तमाम श्रृद्धालों के लिये पवित्र स्थान माना जाता है।
पुराणों में मंदिर को लेकर कई कहानी-क़िस्से हैं। वराह पुराण के अनुसार मंदिर का निर्माण टोंडामन शासक ने करवाया था। राजा टोंडामन को ये मंदिर एक बांबी ( चीटियों का पहाड़ ) से खोज निकाला था और फिर इसे बनवाकर यहां पूजा करने लगा था। कहा जाता है कि टोंडामन ने मंदिर में कई त्यौहारों की शुरुआत की थी। राजा टोंडामन कौन था, इसे लेकर अलग अलग बाते हैं। विश्वास किया जाता है कि टोंडामन वैष्णव संप्रदाय का एक मुखिया था जिसके नाम पर क्षेत्र का नाम टोंडैमंडलम पड़ा। इस क्षेत्र में कांचीपुरम ज़िला, तिरुवल्लूर ज़िला, मद्रास शहर, वेल्लोर, तिरुवन्नमलय, विल्लूपुरम ज़िले और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से आते हैं।
मूल मंदिर के निर्माण को लेकर कोई ठोस सबूत नहीं हैं हालंकि मंदिर में कई अभिलेख मौजूद हैं लेकिन इनमें सिर्फ़ मंदिर के विस्तार और दान का ही उल्लेख मिलता है। मंदिर का विस्तार और दान 9वीं शताब्दी के बाद पल्लव, चोल और विजयनगर के राय राजवंशों ने किया था। मंदिर की दीवारों, खंबों और गोपुरम में तमिल, तेलुगु और संस्कृत भाषा में 600 से अधिक अभिलेख अंकित हैं। इनसे हमें 9वीं शताब्दी में पल्लव शासकों के समय में मंदिर के क्रमिक उदय से लेकर 17वीं शताब्दी में विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय और उनके उत्तराधिकारी अच्युतादेव राय के समय तक मंदिर के वैभव और संपदा के बारे में जानकारी मिलती है।
तिरुपति का मंदिर द्रविड वास्तुकला शैली में बना है। गर्भगृह, जहां श्री वेंकटेश्वर की मूर्ति स्थापित है, उसे आनंद निलायम भी कहा जाता है। ये मूर्ति खड़ी हुई अवस्था में है। मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं जो गर्भगृह की तरफ़ जाते हैं। पहले प्रवेश द्वार के सामने एक विशाल दरवाज़ा या गोपुरम है जो पचास फ़ुट ऊंचा है। मंदिर में दो घुमावदार पथ हैं। पहले पथ में स्तंभों पर आश्रित कई हॉल, ध्वज स्टाफ़ और एक निश्चित स्थान है जहां से श्रद्धालुओं को प्रसाद दिया जाता है। दूसरे पथ में अन्य उप-मंदिर और मुख्य रसोईघर जैसे अन्य भवन हैं। श्रद्धालुओं के लिये मंदिर परिसर में हाल ही में गेस्ट हाउस और खाने-पीने के काउंटर बनाए गए हैं।
टोंडैमंडलम में बदलते राजनीतिक परिदृश्य का असर मंदिर और मंदिर के प्रशासन पर भी पड़ता था। टोंडैमंडलम और तिरुमाला-तिरुपति क्षेत्र के इतिहास में पहली युगांतकारी घटना पल्लव शासकों (तीसरी सदी से 9वीं सदी) के दौर में हुई थी। तिरुमाला-तिरुपति क्षेत्र बाद में टोंडैमंडलम में मिला लिया गया था। ये वो दौर था जब सातवाहन साम्राज्य (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व- तीसरी शताब्दी) का पतन हो गया था। बाहरी क्षेत्रों को नियंत्रित करने वाले सूबेदार अपने-अपने क्षेत्रों के शासक बन बैठे।
सातवाहन साम्राज्य में जागीरदारों की हैसियत रखने वाले पल्लवों ने कांचीपुरम में धीरे-धीरे अपने साम्राज्य को आज़ाद घोषित कर दिया। मंदिर में मिले पल्लव शासन के अभिलेख में पल्लव शासकों द्वारा शुरु की गई ज्योत, भोजन के लिए दान और मंदिर के प्रशासन का उल्लेख मिलता है। दिलचस्प बात ये है कि पल्लव के अधीन चोल राजा,राजा-प्रथम की पत्नी सामावई 966 के क़रीब मंदिर में दान करने वाले दानदाताओं में से एक थीं। उन्होंने दो ज़मीनें और बहुत सारे गहने मंदिर को दान किए थे।
10वीं शताब्दी में चोल राजा आदित्य-प्रथम ने टोंडैमंडलम पर क़ब्ज़ा कर लिया था और तभी से ये 13वीं शताब्दी के मध्य तक चोल साम्राज्य का हिस्सा बना रहा। चोल राजाओं ने मंदिर का विस्तार तो किया ही इसके अलावा मंदिर के प्रशासन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मंदिर के प्रबंधन के लिये मैनेजर नियुक्त किये जाते थे जिन पर चोल राजाओं के अधिकारी नज़र रखते थे।
टोंडैमंडलम के इतिहास में अगला दौर तिरुपति बालाजी मंदिर के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। सन 1336 में विजयनगर राजवंश ने इस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लिया और ये चोल राजवंश की समाप्ति तक उसी साम्राज्य का हिस्सा बना रहा। विजयनगर के राजाओं के शासनकाल में ही मंदिर को सबसे ज़्यादा संरक्षण मिला और इसी वजह से उसकी संपदा में इज़ाफ़ा हुआ और उसका गौरव भी बढ़ा। विजयनगर साम्राज्य (14वीं से 17वीं शताब्दी) के संगम राजवंश, सालुव राजवंश, तुलुव राजवंश और अराविदु राजवंश के शासन काल में तिरुमाला और तिरुपति ने अपना स्वर्णिम काल देखा।
रिकॉर्ड्स से पता चलता है कि संगम राजवंश के प्रमुख जागीरदार महामंडेश्वर मांगीदेव ने सन 1369 में मंदिर के गर्भगृह में सोने की कलई करवाने के बाद मंदिर के शिखर पर सोने का कलश लगवाया था। सन 1495 के रिकॉर्ड के अभिलेख के अनुसार सलुव राजवंश के नरसिम्हा राय ने मंदिर में तीज-त्यौहार शुरु करवाए थे और बाग़ तथा एक गोपुरम का निर्माण करवाया था। मंदिर के रखरखाव के लिये उन्होंने क़रीब एक दर्जन गांव दान किए थे।
तुलुव राजवंश के दो प्रमुख शासक कृष्णदेव राय और अच्युतादेव राय श्री वेंकटेश्वर के भक्त थे और उन्होंने मंदिर के लिये बहुत दान किया था। विजयनगर के प्रमुख राजाओं में से एक कृष्णदेव राय (1509-1529) ने अनुदान के रुप में मंदिर को क़रीब बीस गांव दान किए थे। वह श्री वेंकटेश्वर को अपना अधिष्ठान देवता मानते थे। तिरुपति मंदिर में मिले क़रीब 85 अभिलेखों में कृष्णदेव राय और उनकी पत्नियों की तिरुमाला की यात्राओं और मंदिर के लिये उनके द्वारा किए गए दान का उल्लेख है। कृष्णदेव राय के शासनकाल में बहुत समृद्धी थी इसका पता इस बात से चलता है कि उस समय के अभिजात वर्ग के लोग, सैनिक और राज अधिकारी मंदिर में धन का दान करते थे। इनके दान के बदले उनके नाम पर मंदिर में धार्मिक संस्कार-अनुष्ठान किये जाते थे। राजा ने भी मंदिर को सोने और चांदी के कई बरतन, गहने आदि दान में दिए थे। कहा जाता है कि तिरुपति वेंकटेश्वर के मध्य मंदिर में जो सोने की क़लाई है वो कृष्णदेव राय ने ही करवाई थी।
17वीं शताब्दी में हालंकि विजयनगर का पतन हो गया था लेकिन मैसूर के वाडियार और नागपुर के भोंसले शासक मंदिर की मदद करते रहे। उस समय 17वीं शताब्दी के मध्य तक गोलकुंडा के सुल्तानों ने तिरुमाला-तिरुपति क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद सन 1758 में तिरुपति पर फ़्रांसीसियों का कब्ज़ा हो गया और मंदिर से मिलने वाले राजस्व से उन्होंने अपनी वित्तीय स्थिति मज़बूत करने की कोशिश भी की। इस क्षेत्र पर कर्नाटक के नवाबों का भी शासन रहा जो सन 1690 और सन 1801 के बीच दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्रों (पूर्वी घाटों और बंगाल की खाड़ी के बीच दक्षिण भारत के क्षेत्र) पर शासन करते थे।
19वीं शताब्दी के आरंभ में भारत में अंग्रेज़ों के आगमन के बाद मंदिर का प्रबंधन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चला गया। ईस्ट इंडिया कंपनी मंदिर के प्रबंधन से लेकर इससे होने वाली आय, आय के स्रोत, पूजा और पूजा की अन्य परंपरओं आदि पर नज़र रखने लगी थी। कहा जाता है कि सन 1801 से लेकर सन 1811 के बीच तिरुपति मंदिर का राजस्व एक लाख रुपये होता था। 19वीं शताब्दी के मध्य में मंदिर के प्रशासन में फेरबदल हुआ।
चित्तूर ज़िले के तहसीलदार रहे वी.एन. श्रीनिवास राव अपनी पुस्तक तिरुपति श्री वेकटेश्वर-बालाजी (1949) में लिखते हैं कि सन 1836 और सन 1842 के बीच भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने एक नोटिस जारी किया था कि सरकारी अधिकारियों को भूमि के प्रबंधन और धार्मिक दान के तमाम मामलों से मुक्त किया जाए। तिरुपति के मंदिर के प्रशासन को ये फ़ैसला पसंद नहीं आया। बहारहाल, सरकार के मातहत काम करने वाले कलैक्टरों से सुझाव मांगा गया कि मंदिर का प्रबंधन किसे सौंपा जाए। सुझाव में कहा गया कि ये ज़िम्मा किसी महंत को सौंपा जाना चाहिये। राव आगे लिखते हैं कि बोर्ड और सरकार को ये सुझाव पसंद आया क्योंकि उनका मक़सद किसी ऐसे व्यक्ति को तलाशना था जिसे मंदिर का इंचार्ज बनाया जा सके ताकि केंद्र सरकार पर ये शक न हो कि वह मंदिर से होने वाली राजस्व के रुप में आय को छोड़ना नहीं चाहती।
तिरुपति सहित क्षेत्र के अन्य मंदिरों का प्रशासन हाथीरामजी मठ के महंतों के हाथों में चला गया। सितंबर सन 1843 में महंत सेवादास तिरुपति-तिरुमलई देवास्थनम के विचारण कर्ता के रुप में इंचार्ज बन गए।
सन1500 में उत्तर भारत के संत हाथीराम भावजी या हाथीराम बाबा मंदिर आए थे और श्री वेंकटेश्वर के भक्त बन गए थे। सन 1843 से सन 1932 के बीच कार्यकारी-समिति या विचारण कर्ता के रुप में मठ ने मंदिर की ज़िम्मेदारी संभाली।सन 1932 में मद्रास सरकार ने तिरुमाला तिरुपति देवास्थनम क़ानून पास किया जिसके तहत मंदिर के लिये एक ट्रस्ट तिरुमाला तिरुपति देवास्थनम बना। आज़ादी के बाद जब भाषा के आधार पर भारतीय राज्यों को बांटा गया तब तिरुपति और मंदिर आंध्र प्रदेश में चले गए।
आज तिरुमाला तिरुपति देवास्थनम एक वृहत संगठन बन चुका है जिसके अंतर्गत न सिर्फ़ तिरुपति मंदिर आता है बल्कि सारा तिरुपति शहर भी आता है। तिरुपति नगर निगम से लेकर विष्णु के निवास सात पहाड़ियों की भी देखरेख यही ट्रस्ट करता है।
मंदिर में आये श्रद्धालु श्री वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए लम्बी कतारों में इंतज़ार तो करते हैं ही, मगर दर्शन करने का एक और तरीका भी है। विष्णु के एक और अवतार, मलयप्पा स्वामी और उनकी दो पत्नियां भू देवी और श्री देवी की मूर्तियों को रोज़, दो बार मंदिर से बहार लाया जाता है जिस से सभी श्रद्धालु इनके दर्शन कर सकें।
मंदिर में एक साल में सैंकड़ों त्यौहार मनाए जाते हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय त्यौहार है ब्रह्मोत्सव। हर साल अक्टूबर या नवंबर के महीने में नवरात्री के दौरान ब्रह्मोत्सव त्यौहार मनाया जाता है जो नौ दिनों तक चलता है। इसमें पूरे देश से श्रद्धालु और सैलानी हिस्सा लेते हैं। दर्शन के बाद श्रद्धालुओं को तिरुपति लड्डू प्रसाद के रुप में दिये जाते हैं। तिरुपति लड्डू को जीआई टैग मिला हुआ है जिसका मतलब कि सिर्फ़ तिरुमाला तिरुपति देवास्थनम ही ये लड्डू बना या बेच सकते हैं।
तिरुपति मंदिर भारत के सबसे मालदार मंदिरों में से एक है। कहा जाता है श्रद्धालुओं के दान और चढ़ावे से मंदिर से सालाना एक से दो हज़ार करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता है। तिरुपति बालाजी मंदिर कालातीत आस्था का प्रतीक है।
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