तिरुमलाई: जहां है तमिलनाडु की सबसे ऊंची जैन तीर्थंकर की मूर्ति

तिरुमलाई: जहां है तमिलनाडु की सबसे ऊंची जैन तीर्थंकर की मूर्ति

बात जब जैन धर्म की होती है, तो सबसे पहले दिलवाड़ा, पालीताना और रणकपुर के भव्य मंदिर और श्रवणबेलगोला की विशाल प्रतिमा हमारे दिमाग़ में आती है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि तमिलनाडु में एक पहाड़ी पर एक जैन परिसर है, जो कभी एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था और ये तमिलनाडु में जैन तीर्थंकर की सबसे ऊंची मूर्ति भी है?

तमिलनाडु में तिरुवन्नामलाई ज़िले में स्थित तिरुमलाई या पवित्र पर्वत एक जैन गुफा और मंदिर परिसर है, जो लगभग 9वीं सदी का है। तमिलनाडु में प्राचीन काल से ही जैन धर्म की जड़ें रही हैं। हालांकि इस क्षेत्र में इसकी शुरूआत कब हुई थी, ये स्पष्ट नही है। ऐसा कहा जाता है, कि यहां जैन धर्म संगम काल (छठी ई.पू.-तीसरी ई.) से पहले आया था। एक मत के अनुसार जैन भिक्षु लगभग तीसरी सदी (ई.पू.) में कर्नाटक से तमिलनाडु गए थे। ये भिक्षु जैन भिक्षु आचार्य भद्रबाहु के शिष्य थे, जिन्होंने तीसरी सदी (ई.पू.) में उत्तर में अकाल पड़ने के कारण अपने शिष्यों और मौर्य राजा चंद्रगुप्त के साथ कर्नाटक में श्रवणबेलगोला आए थे। भद्रबाहु के आदेश पर उनके शिष्यों ने चोल और पांड्य साम्राज्य की यात्रा की थी।

तिरुमलाई की चोटी | प्रत्ययका-विकिमीडिया कॉमन्स

कालभ्रा, चोल, पांड्या और पल्लव जैसे कई शासकों के शाही परिवारों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया था। जल्द ही इस क्षेत्र में जैन धर्म फैलने लगा, और 5वीं सदी तक ये तमिलनाडु में पूरी तरह स्थापित हो गया। हालांकि इस क्षेत्र में शैववाद के उदय के कारण 8वीं सदी में इसे एक झटका लगा, लेकिन फिर भी ये 12वीं सदी तक इस क्षेत्र में अपनी जगह बनाए रखने में सफल रहा।इस दौरान तमिलनाडु में कई जैन केंद्र स्थापित होने लगे थे। जल्द ही, कांची, पुदुक्कोट्टई, मदुरा और तिरुमलाई के क्षेत्रों में जैन संस्कृति और धर्म फलने फूलने लगा था।

 विडंबना यह है, कि प्राचीन काल में एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र होने के बावजूद हमें तिरुमलाई के सही इतिहास के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है। कहा जाता है, कि कई जैन भिक्षु तपस्या और ध्यान लगाने के लिए तिरुमलाई आए थे। दरअसल पर्वत को अरिहंतगिरी या अरिहंत के पवित्र पर्वत के रूप में भी जाना जाता है। इसके अलावा यह कांचीपुरम से लगभग 80 किमी दूर स्थित है, जो कभी दक्षिण में सबसे महत्वपूर्ण जैन केंद्रों में से एक था। यह एक लोकप्रिय शिक्षा केंद्र भी था। कहा जाता है, कि भद्रबाहु के साथ आए 8 हज़ार से अधिक भिक्षुओं ने तिरुमलाई में तपस्या की थी। दिलचस्प बात यह है, कि चट्टान पर पावों के निशान को भी उकेरा है माना जाता है, कि पांवों के यह निशान जैन गुरु वेशभाचार्य, समतभद्राचार्य और वर्दत्त गांधार के थे।

जैन गुरुओं के पदचिन्ह | विकिमीडिया कॉमन्स

तिरुमलाई में कई ढ़ांचे मौजूद हैं। पहाड़ी पर लगभग तीन गुफाएं और पहाड़ी की तलहटी में दो संरचनात्मक मंदिर हैं। कहा जाता है कि इन्हें दक्षिण भारत के विभिन्न शासकों ने अपने शासकाल में तराशकर बनवाया था।

इस पहाड़ी की सबसे बड़ी विशेषता है, कि यहां कि एक गुफा में कायोत्सर्ग (ध्यान में खड़े) मुद्रा में 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की मूर्ति बनी हुई है। चट्टान को तराशकर बनाई गई साढ़े सोलह फ़ुट की मूर्ति तमिलनाडु की सबसे ऊंची जैन प्रतिमा मानी जाती है। प्रतिमा को चोल राजा राजराजा की बहन कुंडवई ने लगभग 10वीं सदी में बनवाया था।

तिरुमलाई में नेमिनाथ की मूर्ति | प्रत्यायका- विकिमीडिया कॉमन्स

गुफाओं की दीवारों और छतों को जीवंत चित्रों से सजाया गया है। ये जैन देवताओं के विभिन्न रूपांकनों, सजावट और छवियों को दर्शाते हैं। एक दिलचस्प पेंटिंग समवसरण या तीर्थंकरों के दिव्य उपदेश हॉल की हैजो श्रवणबेलगोला की तरह है। इसमें केंद्र में एक तीर्थंकर को अन्य शिष्यों और अन्य लोगों के बीच बैठा दिखाया गया है। ये सभी चित्र बहुत बाद के काल के लगभग 12वीं-15वीं सदी के हैं।

गुफा में भित्ति चित्र | विकिमीडिया कॉमन्स

पहाड़ की तलहटी में कुंडवई जिनालय यानी जैन मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है, कि इसे चोल राजकुमारी कुंडवई ने 10वीं सदी में बनवाया था। मंदिर तीर्थंकर नेमिनाथ को समर्पित है। इसमें तीर्थंकरों और जैन देवताओं की कई छवियां हैं। नेमिनाथ मंदिर के पास महावीर मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है, कि इसे विजयनगर काल के दौरान 16वीं सदी में बनाया गया था। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण गर्भगृह में महावीर की छवि है। तीर्थंकर की बैठी हुई छवि के पीछे विजयनगर काल के भित्तिचित्रों के अवशेष हैं। इस मंदिर का गोपुरम तीर्थंकरों की छवियों से सजा हूआ है।

संभवतः परिसर की सबसे आकर्षक चीज़ों में यहां पाए गए शिला-लेखों का ख़ज़ाना है। परिसर में कई शिला-लेख मिले हैं, जो गुफाओं के पास और पहाड़ी की तलहटी में स्थित विभिन्न चट्टानों पर उकेरे गए हैं। तमिल और ग्रंथ लिपि में लिखे गए शिला-लेखों से विभिन्न शासकों के शासन के दौरान बने मंदिर की जानकारी मिलती है। सबसे पहले शिला-लेखों में से एक चोल राजा परंतक- प्रथम के शासनकाल का है, जो लगभग सन 910 का है। इसमें तिरुमलई के जैन मंदिर में, एक भक्त के भोजन के लिए सोने का बना उपहार दिए जाने का उल्लेख है। 11वीं शताब्दी के चोल राजा राजराजा- प्रथम के शासनकाल से संबंधित दो शिलालेखों में जैन मंदिरों को किए गए दान का उल्लेख है।

तिरुमलाई में एक शिलालेख | विकिमीडिया कॉमन्स

सिर्फ़ चोल ही नहीं बल्कि अन्य राजवंशों ने भी मंदिरों के लिए दान किया था। केरल के क्षेत्र पर शासन करने वाले चेर राजवंश के एक राजकुमार ने तिरुमलाई में एक यक्ष और यक्षी की मूर्तियां स्थापित की थीं। एक शिला-लेख में तिरुमलई में एक नहर के निर्माण के साथ-साथ मंदिर को एक घंटा उपहार दिए जाने का उल्लेख है। सभी शिला-लेखों में दान का उल्लेख है, जिससे पता चलता है, कि तिरुमलई एक समय निश्चित रूप से एक पवित्र स्थान और एक धार्मिक केंद्र रहा होगा।

आज दुख की बात ये है, कि तिरुमलाई जैन परिसर को बहुत लोग भूल चुके हैं। इसकी देखरे ख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण करता है।

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