बनारस से १४ किलोमीटर की ही दूरी पर हैं एक आश्चर्यजनक क़िला, जिसके कई सारे राज़ इतिहासकार आज तक नहीं सुलझा पाए हैं। चुनर क़िला हमेशा से ख़ास रहा हैं, पर क्यों? इसकी वजह हैं – पत्थर! गंगा नदी के आसपास की भूमि कृषि उत्पाद के लिए उच्च स्तरीय माना जाता हैं, इसकी इसी खूबी की वजह है की इस पूरे इलाक़े में मज़बूत पत्थर मिलना बहुत मुश्किल हैं। लेकिन इलाक़े में सिर्फ एक ही जगह थी जहां उच्च दर्जे का पत्थर मिल पाता था, और वह थी कैमूर की पहाड़ी जहाँ चुनर क़िला भी उपस्थित हैं।
‘चुनार पत्थर’ कुछ हद्द तक संगमरमर की तरह लगता था जिसके कारण ये व्यापार के लिए एक ख़ास वस्तु बन गया।
यह कब से शुरू हुआ कहना मुश्किल हैं, पर यह मौर्या राज्य में महत्त्वपूर्ण था। इसका हमारे पास कई सारे प्रमाण हैं, विश्व प्रसिद्द वस्तुओ के निर्माण में चुनर पत्थर का इस्तेमाल किया गया, जैसे की अशोक के स्तम्भ, सारनाथ की मूर्तिया और मशहूर दीदरगंज की यक्षी जो आज बिहार संग्रहालय में हैं – ये सब चुनर पत्थर से बने हैं। इसे इस्तेमाल करने की परंपरा शुंगा और गुप्ता वंशो ने जारी रखी। मुग़ल बादशाह अकबर ने भी इलाहाबाद (प्रयागरज) में बनाए गए क़िले में इसी पत्थर का इस्तेमाल करवाया। इसका प्रयोग बनारस के कई घाट के निर्माण में भी हुआ।
ऐसी कीमती वस्तु की मूल्य को समझते हुए इसे सुरक्षित रखने के लिए शायद चुनर क़िले को बनाया गया, हालांकि अभी तक यह पता नहीं लग पाया हैं की क़िले का निर्माण किसने किया। चुनार की सामरिक विशेषता की वजह से कई राज्यों ने इस पर कब्ज़ा किया | 1775 में यह अंग्रेज़ो के हुक़ूमत में आ गया। उनके लिए यह गंगा द्वारा किये जा रहे व्यापार का अहम स्थल था। पर जैसे-जैसे व्यापार रेलगाड़ी द्वारा किये जाने लगा, चुनर की महत्वता कम होती गयी।
पर आज हम शायद इस सुन्दर क़िले को पूरी तरह से भूल चुके होते, अगर 1888 में छापा गया उपन्यास ‘चंद्रकांता’ हमारे ज़हन में जगह न बनाता। कहानी के खलनायक का तिलस्मी अड्डा ‘चुनारगढ़’ तो याद होगा ही। आज ऐसा कहना गलत नहीं होगा की इसी काल्पनिक कहानी ने इस सुन्दर क़िले की वास्तविकता को ज़िंदा रखा हैं!