तेलियागढ़ी का क़िला ,पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर, मिर्ज़ा चौकी रेलवे स्टेशन के निकट स्थित है। यह जगह बिहार-झारखंड सीमा पर, भागलपुर (बिहार) से 60 किमी. पूरब और साहेबगंज (झारखंड) से 15 किमी. दूर झारखंड के राजमहल पर्वत-माला के बीच है।
इतिहास के पन्नों में तेलियागढ़ी के क़िले का नाम एक ऐसे महत्वपूर्ण स्थान के रूप में दर्ज है जहां कभी हुमायूं, शेरशाह, अकबर और शाह शुजा सरीखे बादशाहों-शहज़ादों की तलवारें चमकी थीं । उनके गोला-बारूदों के धमाकों से पूरा इलाक़ा थरथरा उठता था। समय के थपेड़ों ने भले ही आज इस क़िले को खंडहर के रूप में तब्दील कर दिया है, पर कभी यह पूर्वोत्तर भारत, ख़ासकर बंगाल और बिहार की कई महत्वपूर्ण सियासी घटनाओं का गवाह रहा है । उन घटनाओं की गूंज दिल्ली सल्तनत के दरबार तक सुनाई पड़ी थी।
तेलियागढ़ी क़िले का, राजमहल पर्वत-माला की निचली ढ़लान तथा पठारनुमा ऊंची ज़मीन और दुस्तर गंगा के बीच स्थित होने के कारण अत्यंत सामरिक महत्व था। एक तरफ़ अभेद्य राजमहल पर्वत-माला और दूसरी ओर विशाल गंगा के बीच संकरे मार्ग पर स्थित होने के कारण तेलियागढ़ी की मज़बूत ऊंची-ऊंची दिवारें, बंगाल जाने के रास्ते में दुर्गम चट्टान की तरह खड़ी रहती थीं जिसके कारण इस क़िले को फ़तह किये बिना बंगाल में प्रवेश कर पाना नामुमकिन था। यही कारण है कि इतिहासकारों ने तेलियागढ़ी को ‘बंगाल की चाबी’ और ‘बंगाल का दरवाज़ा’ कहकर भी पुकारा है। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ‘द हिस्ट्री आफ़ बंगाल’ में बताते हैं कि बंगाल प्रवेश के मार्ग के रूप में दरभंगा अर्थात् द्वार-बंगा की तरह तेलियागढ़ी का भी अत्यंत महत्व था।
तेलियागढ़ी के ऐतिहासिक महत्ता के कारण ही ‘आईन-ए-अकबरी’, ‘मख़जन-ए-अफ़ग़ान’, ‘जहांगीरनामा’, आलमगीर नामा’, ‘ सैर-उल-मुख़तरीन’, ‘चैतन्य चरितामृत’ सहित इंपीरियल गज़ेटियर, रेनेल के मैप, बंगाल लिस्ट में भी इसकी चर्चा है। इसके अलावा जनरल कनिंघम, फ़्रांसिस बुकानन, ब्लोच सहित जदुनाथ सरकार, डॉ.डी.आर. पाटिल, डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव सरीखे इतिहासकारों ओर पुराविदों ने भी तेलियागढ़ी की विस्तार से चर्चा की है।
तेलियागढ़ी के नाम के बारे में विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेज़ में रोचक विवरण मिलते हैं। कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि काली चट्टानों से निर्मित होने के कारण इसे ‘तेलिया’ कहा गया क्योंकि तेलिया शब्द का उपयोग कालेपन को दर्शाने के लिये किया जाता है। फ़्रांसिस बुकानन सरीखे विद्वान इसका नाम किसी तेली ज़मींदार के साथ जोड़कर तेलियागढ़ी बताते हैं। ओल्डहम द्वारा प्रस्तुत बुकानन के जर्नल (1810-11) के परिशिष्ट में उल्लेख है कि 16 वीं शताब्दी ई. के अंत में अकबर के सेनापति मानसिंह के समय में, क़िले सहित इस क्षेत्र को, नट पहाड़ियां प्रधान से छीना गया था, जिसने मानसिंह का विरोध किया था। क़ब्ज़े के बाद मानसिंह ने इसे दो तेली ज़मींदारों को दे दिया जिन्होंने उसकी मदद की थी। यह भी कहा जाता है कि पहाड़ की तली में स्थित होने के कारण यह ‘तलियागढ़ी’ भी कहलाता था, जो बाद में तेलियागढ़ी हो गया।
डॉ. डी.आर. पाटिल अपनी पुस्तक ‘द एंटीक्वेरियन रिमेंस इन बिहार’ में कहते हैं कि प्राक-मुस्लिम काल में यह गढ़ी किसी क़िले की वजह से सुरक्षित रही होगी, हालांकि अब उसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। डॉ. पाटिल का मानना है कि चूंकि बंगाल के सुलतानों की राजधानी गौर अथवा पंडुआ तेलियागढ़ी से क़रीब 40 मील उत्तर-पूर्व में स्थित था, इसलिये यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 14 वीं-15 वीं शताब्दी ईस्वी में यहां बंगाल के सुलतानों ने क़िलाबन्दी जैसे सुरक्षात्मक प्रबंध कराये होंगे।
ब्लोच बताते हैं कि तेलियागढ़ी क़िले के पूर्व में स्थित मैदान में उन्होंने कुछ पुरानी संरचनाएं देखी थीं जिनमें अनुमानतः बंगला शैली में बनी एक मस्जिद भी थी। ब्लोच बताते हैं कि तेलियागढ़ी क़िले के मलबों में उन्होंने कुछ नक़्क़ाशीदार खंभे भी देखे थे जैसे गौर (बंगाल की राजधानी) में पाये जाते हैं। डॉ. पाटिल बताते हैं कि क़िले के जो अवशेष बचे हैं उसका श्रेय शाह शुजा को दिया जा सकता है जिनके पिता बादशाह शाहजहां ने उसे बंगाल का सूबेदार बनाया था। सकी राजधानी यहां से 20 मील दूर दक्षिण राजमहल में थी।
उफनती गंगा और राजमहल पर्वत-माला के अभेद्य चट्टानों के बीच स्थित होने के कारण तेलिया गढ़ी दर्रे के क़िले में तैनात पैदल सेना व गंगा में पेट्रोलिंग करनेवाली नौसेना की छोटी-सी टुकड़ियों की मदद से दुश्मन की बड़ी से बड़ी फौज से आसानी से मुकाबला किया जा सकता था। 16 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अबुल फ़ज़ल के समय में तेलिया गढ़ी से बंगाल की उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रारंभ होती थी। पटना से चलकर भागलपुर, कहलगांव होते हुए यहां पहुंचने का मार्ग था।
बंगाल में शत्रुओं के प्रवेश को रोकने के मद्देनज़र वहां के शासकों ने बराबर तेलिया गढ़ी क़िले में अपनी सेना को तैनात रखा। लेखक अख़्तर-उ-ज़्ज़मां बताते हैं कि तेलिया गढ़ी क़िले की विशेष सामरिक स्थिति के कारण ग़्यासुद्दीन ख़िलजी (1212-1227 ई.) के नेतृत्व में बंगाल की सेना ने सुल्तान शम्सउद्दीन इल्तुतमिश को तेलिया गढ़ी से आगे नहीं बढ़ने दिया था। यही कारण है कि सुल्तान ग़्यासउद्दीन तुग़लक़ (1351-1388 ई.) ने बंगाल में प्रवेश करने के लिये तेलिया गढ़ी की बजाय तिरहुत का घुमावदार रास्ता इख़त्यार किया था। इसी तरह दाऊद करनानी (1572-1756 ई.) ने बादशाह अकबर के सिपहसालार ख़ान जहान के नेतृत्व में आई मुग़ल सेना को सन 1575-76 में तेलिया गढ़ी दर्रे के पास छह महीने तक रोक कर रखा था।
तेलिया गढ़ी के साथ न सिर्फ़ मध्यकालीन, वरना प्राचीन इतिहास के संदर्भ भी जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि पुराविदों ने यहां बौद्ध संरचनात्मक ढांचों व मूर्त्तियों के मिलने के उल्लेख किये हैं तथा चीनी यात्री ह्वेन सांग ने यहां का भ्रमण किया था।
एलेक्जेंडर कनिंघम अपनी रिपोर्ट (1879-90) में कजंगल, राजमहल और तेलिया गढ़ (तेलिया गढ़ी) भ्रमण के क्रम में बताते हैं कि चीनी यात्री ह्वेन सांग ने चंपा (प्राचीन अंग की राजधानी, वर्तमान भागलपुर) से 37 मील पूर्व गंगा के तट पर पत्थर और ईंट से निर्मित एक ऊंचे मीनार की चर्चा की है, किंतु इसकी प्रकृति के बारे में यह नहीं बताया है कि यह बौद्ध धर्म से संबंधित है या किसी अन्य धर्म से। कनिंघम ने अपनी यात्रा के दौरान तेलिया गढ़ी में एक ऐसी संरचना देखी थी जिसके अग्रभाग के चारों तरफ़ के पैनल बौद्धों, महात्माओं और देवताओं की मूर्तियों से अलंकृत थे, जिसे वे बौद्ध धर्म से संबंधित होने का दावा करते हैं तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ह्वेन सांग ने कजंगल (राजमहल क्षेत्र) में जिस मीनार के होने का ज़िक्र किया है, वो तेलिया गढ़ी में स्थित रहा होगा।
कनिंघम यह भी बताते हैं कि तेलिया गढ़ी में बड़ी संख्या में बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों से संबंधित बड़ी-बड़ी मूर्तियां पायी गयी हैं जिनमें से अधिकांश यहां से हटाकर कहलगांव (भागलपुर ज़िला) में पहाड़ी पर निर्मित एक बड़े भवन (वर्तमान एस एस भी कालेज, कहलगांव) में रख दी गयी थीं। उपेक्षित अवस्था में पड़ी इनमें से कुछ के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
तेलिया गढ़ी का क़िला और इसके आस-पास का क्षेत्र इतिहास के कई निर्णायक क्षणों के चश्मदीद गवाह रहे हैं। बंगाल को हथियाने की जद्दोजेहद में मुग़ल बादशाह हुमायूं और अफ़ग़ान शासक शेर शाह के बीच हुई मुठभेड़ों की निर्णायक घड़ियों का गवाह रहा है यह क़िला। शेर खां जैसा एक अनजान अफ़ग़ान इन्हीं संघर्षों से गुज़रते हुए शेर शाह के नाम से हिन्दुस्तान के तख़्त पर जा बैठा था।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव बताते हैं कि शेर खां (बाद में शेरशाह के नाम से विख्यात) ने बंगाल अभियान के दौरान वहां के अंतिम स्वतंत्र शासक ग़्यासउद्दीन महमूद को कई बार शिकस्त दी और तेलिया गढ़ी के निकट का उसका सारा क्षेत्र अपने क़ब्ज़े में ले लिया। शत्रु-सेना से बुरी तरह से घिरे बंगाल के शासक महमूद ने मजबूरन चिनसुरा के पुर्तगालियों की सहायता ली। बंगाल और पुर्तगालियों की संयुक्त सेना ने तेलिया गढ़ी और उसके निकट स्थित सिकरी गढ़ी (वर्तमान सकरीगली) के दर्रे को बचाने के प्रयत्न तो किये, पर शेर खां की चतुराई के सामने टिक न सके। दर्रों से हटकर शेर खां चतुरता से शत्रु-सेना का चक्कर काटते हुए बंगाल की राजधानी गौड़ (अथवा गौर) की ओर जा निकला और आक्रमण करने की धमकी दे डाली। ग़्यासउद्दीन महमूद के पुर्तगाली साथी यहां उसकी मदद नहीं कर सके थे। नतीजे में उसे संधि करने के लिये मजबूर होना पड़ा और तेरह लाख रुपयों की क़ीमत की स्वर्ण-राशि शेर खां को भेंट कर आक्रमण को अस्थायी रुप से टलवा दिया।
इतिहासकार डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव आगे बताते हैं कि इस संधि से बंगाल के बादशाह महमूद को केवल अस्थायी राहत ही मिल पायी, क्योंकि शेर खां के दिल में बंगाल-विजय की लालसा प्रबल हो चुकी थी। संधि के एक वर्ष के अंदर ही, महमूद वार्षिक कर नहीं चुका पाया और इसी बात का बहाना बनाकर शेर ख़ान सन 1537 में बंगाल पर फिर चढ़ाई करने को आमादा हो गया। शेर खां का मुक़ाबला करने में असमर्थ महमूद ने गौड़ के दुर्ग में शरण लेकर बादशाह हुमायूं से शीघ्र सहायता की गुहार लगाई। मौक़े की नज़ाकत को भांपते हुए शेर खां ने अपने बेटे जलाल खां और जनरल ख़वास खां को गौड़ पर घेरा डालने और हुमायूं की सहायता पहुंचने के पहले ही, बंगाल को फ़तह करने के लिये रवाना कर दिया।
हुमायूं को बंगाल की ओर बढ़ता देख, बंगाल के सरकारी ख़ज़ाने को रोहतास गढ़ ले जाने के प्रबंध में जुटे शेर खां ने अपने बेटे जलाल खां को, तेलिया गढ़ी पहुंचकर दर्रे की रक्षा के निर्देश दिये ताकि मुग़ल वहां न पहुंच पायें और ख़ज़ाना आसानी से रोहतास ले जाया जा सके।
अपने पिता के निर्देश पर शीघ्र अमल करते हुए जलाल खां ने तेलिया गढ़ी पहुंचकर रक्षात्मक गतिविधियां प्रारंभ कीं और मुबारक खां के नेतृत्व में मुग़लों के आगे बढ़ते हुये दल पर हमला बोल दिया। जलाल खां ने तेलिया गढ़ी में मुग़लों की सेना को इस चतुराई से रोके रखा कि हुमायूं को एक माह तज़ार करना पड़ा और इस अवधि में शेर खां ने गौड़ का खज़ाना आसानी से रोहतास गढ़ को पहुंचा दिया।
इस काम के तमाम होते ही शेर खां ने अपने सैनिकों को इतनी शांति से तेलिया गढ़ी से वापस बुला लिया कि मुग़लों को इसकी भनक तक न लग सकी और उनको यह समाचार दूसरे दिन मिला।
शेर खां ने सोची-समझी चाल के तहत बंगाल की राजधानी गौड़ की ओर बढ़ते हुमायूं को बिना किसी रोक-टोक के आगे बढ़ने दिया और मुग़लों के गौड़ में दाख़िल होते ही उसने यातायात के सारे साधन तुड़वा डाले। मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए अफ़ग़ानी फ़ौज ने तिरहुत, बनारस, जौनपुर और कन्नौज पर कब्ज़ा कर लिया। इस तरह तेलिया गढ़ी से लेकर कन्नौज तक का पूरा इलाक़ा शेर खां के हाथों में आ गया और अंततः वह शेरशाह के नाम से हिन्दुस्तान की गद्दी पर बैठा।
प्राचीन काल में एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल के रूप में अपनी पहचान बनाने वाला और मध्यकाल एवं पूर्व-मध्यकाल में अपने सामरिक महत्व के कारण सूर्ख़ियों में रहनेवाला तेलिया गढ़ी का इतिहास और भुगोल दोनों, मुग़ल शासन के पतन तथा ब्रिटिश शासन आने के साथ ही बदल गया था। सन 1859-60 में पटना-हावड़ा (वाया भागलपुर) लूप रेल-लाईन बना गई थी। वह रेलव लाईन क़िले के मुख्य भाग के क़रीब से होकर गुज़री है। उसी तोड़ फोड़ के कारण क़िले का ढ़ांचा पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। राजमहल पर्वत-माला की तलहटी में स्थित क़िले से लेकर गंगा के चट्टानी तट तक फैली अभेद्य दीवार टूट-टूटकर कर चकनाचूर हो गयी और इस तरह तेलिया गढ़ी का विशेष सामरिक महत्व ख़त्म होने के साथ ही इसका बंगाल की चाबी होने का गौरव भी जाता रहा।
घोर उपेक्षा का शिकार तेलिया गढ़ी क़िले के अधिकांश भाग आज की तारीख़ में टूटकर मिट्टी में मिल गये हैं। बड़े-बड़े आयताकार पत्थरों के खंडों और ईंटों से सिलसिलेवार मज़बूती से चुनी गई इसकी सिर्फ़ उत्तरी दीवार ही पुरानी दास्तां कहने के लिये बची हुई है। इस दीवार के बीच में और दोनों कोनों पर तीन गोलाकार कोणीय ‘पेवेलियन’ बने हुए हैं जिनकी छतें टूट चुकी हैं। इन पैवेलियनों के मेहराबदार टूटे झरोखें बताते हैं कि यहां से कभी जांबाज़ सैनिक दूर-दूर तक निगरानी रखते होंगे।
क़िले के पूर्वी और पश्चिमी भागों में 250 फ़ुट लंबी मीनार युक्त दीवार थी जो अब खंडित हो चुकी है। क़िले के उत्तरी-पश्चिमी भाग में एक मस्जिद थी जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। क़िले के दक्षिणी-पूर्वी भाग में पहाड़ की तलहटी के पास एक भग्न निर्माण के अवशेष बचे हुए हैं जिसकी गोलाकार छत टूट चुकी है।
‘जहांगीरनामा’ में तेलिया गढ़ी का ज़िक्र एक ऐसी क़ब्रगाह के रूप में किया गया है जहां पर लड़ी लड़ाईयों में कई लोग क़फ़न ओढ़कर सो गये थे।
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