तारंगा गुजरात के मेहसाणा ज़िले के खेरालू शहर के पास स्थित जैनियों का एक महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थल है। यहां मंदिरों के दो सुंदर परिसर हैं। ये मंदिर मारू-गुर्जरा शैली की वास्तुकला के मनूने हैं। यहां सबसे पुराना मंदिर राजा कुमारपाल ने सन 1161 में बनवाया था। ये दोनों परिसर दो संप्रदायों श्वेतांबर और दिगंबर में बंटे हुए हैं। श्वेतांबर परिसर में 14 और दिगंबर परिसर में पांच मंदिर हैं।
इस जगह की ख़ास बात ये है कि ये स्थान , जैन धर्म आने से पहले एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल हुआ करता था। 1241 में संत सोमप्रभाचार्य के लिखित जैन ग्रंथ कुमारपाल प्रतिबो प्रतिबोद्ध में इस स्थान को लेकर एक दिलचस्प कहानी है। इस कहानी के अनुसार स्तानीय बौद्ध शासक वेणी वसराजा बऔर जैन मुनी खपुताचार्य ने तारा देवी के नाम पर एक मंदिर बनवाया था और इसी वजह से इस स्थान का नाम तारंगा पड़ गया। दिलचस्प बात ये है कि कविराज सवयम भुद्धदेव के लिखित पउमचरिउ (जैन रामायण) जो कभी 10वीं शताब्दी के पहले लिखी गई होगी, में भी बौद्ध देवी तारा का पूरी कहानी में उल्लेख मिलता है। रावण के विरुद्ध राम की लड़ाई में तारा रावण के साथ लड़ी थी। बाद में तारा को 18वें तीर्थंकर अरनाथ में घारिणी यक्षणी के रुप में सम्मिलित कर लिया। इसलिये इस बात में कोई दम नहीं लगता कि बौद्ध राजा और जैन मुनी ने तारा के नाम पर कोई मंदिर बनवाया होगा।
तारंगा में मुख्य मंदिर मारु-गुर्जर शैली का एक विशाल अजितनाथ मंदिर है जो एक बड़े अहाते में है। इस अहाते और इसके पीछे कई छोटे मंदिर हैं। मंदिर का निर्माण कार्य राजा कुमारपाल (1143-1174) के शासनकाल में शुरु हुआ था जो सन 1161 में पूरा हुआ। भूमिजा शैली का ये मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से सबसे जटिल मंदिरों में से एक है और इसे मारु-गुर्जर शैली के मंदिरों का एक बेहतरीन उदाहरण माना जाता है। मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं और इसका आकार सलीब की तरह है। खंबे वाला बरामदा, एक विशाल मंडप की तरफ़ खुलते हैं।
मंदिर के बाहरी हिस्सों पर गुजरात-चालुक्य शैली की मूर्तियां बनी हुई हैं। मंदिर अंदर का हिस्सा लाल रंग का है और गर्भगृह में दूसरे तार्थंकर अजितनाथ की संगमरमर की एक सुंदर प्रतिमा है। गर्भगृह कई रंगीन नगों से सजा हुआ है। राजा कुमारपाल की मूर्ति मंदिर की एक और दिलचस्प चीज़ है। दुख की बात ये है कि मंदिर के अंदर तस्वीर लेना मना है।इसलिये हम उसकी तस्वीर नहीं ले पाये। हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र और कार्तिक के माह में पूर्ण चंद्रमा के दिनों में मंदिर में श्रद्धालु आ सकते हैं।
तारंगा में कई दिगंबर मंदिर हैं लेकिन ये छोटे और बहुत भव्य नहीं हैं। दिगंबर लोक कथाओं के अनुसार यहां कभी तीन लाख पचास हज़ार भिक्षु रहा करते थे। यहां कई दिगंबर मूर्तियां हैं जिनमें से सबसे पुरानी मूर्ति सन 1236 की है।
तारंगा शहर के पास ही पहाड़ियों में चट्टानों को काटकर बनाई गए कई पनाहगाह हैं जिन्हें बोद्धों ने मठ में बदल दिया है। इसे स्थानीय लोग जोगिदा नी गुफ़ा कहते हैं। इन गुफाओं में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया गया है और इसे पत्थर तथा मलबे से बनाई गई दीवारें बना कर रहने योग्य बनाया गया है।
यहां कई सुंदर बौद्ध मूर्तियां मिली हैं और पहाड़ियों पर उकेरी गई मूर्तियां भी मौजूद हैं। हालंकि पुरातत्वविद्, इतिहासकार और कला इतिहासकार इसके बारे में जानते थे लेकिन फिर भी ये एक तरह से गुमनाम ही थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बड़ौदा सर्किल के पुरातत्विद अभिजीत आंबेकर ने जब तारंगा के आसपास खुदाई कर वाई तब जाकर इसके बारे में और महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं।
चार कि.मी. के इलाक़े में खुदाई के दौरान ईंटों के एक अद्भुत बौद्ध मठ परिसर के अवशेष मिले हैं। ये परिसर चौथी और 13वीं शताब्दी के बीच का है और इसके बारे में इसके पहले कीसी को कोई जानकारी नहीं थी।
पुरातत्व विभाग ने कुछ गुफाओं में बने धराशायी मकानों को भी ढूंढ़ निकाला है जो पत्थर और मलबे के चूने से बने हुए थे। ये मकान श्रीलंका में न उण्य अरण्य, पनामा कुदुंबिगला और अरणकेले जैसी कई जगहों पर मिले “ जंगली मठों” से काफ़ी मिलते जुलते हैं। यह गुफायें पूरी तरह चट्टानों को काट कर नहीं बनाई गई हैं। यह गुफायें प्राकृतिक चट्टानों में मामूली तब्दीलियां करके बनाई गई हैं।
वहीं पास के एक और क्षेत्र में एक बड़ा सभागार और अन्य मठों के ढांचे मिले हैं। इनमें छोटे स्तूप के अवशेष मिले हैं जो विहारों की तरह लगते हैं।
बड़ौदा पुरातत्व विभाग की टीम ने धागोलिया पर्वत के ऊपर एक छोटे लेकिन साफ सुथरे स्तूप का पता लगाया है जिसका चबूतरा गोलाकार है जो लगता है कि तराशे और अग्ध तराशे पत्थरों से बनाया गया लगता है। स्तूप के ऊपर तक पत्थरों की बनी सीढ़ियां हैं। स्तूप के ऊपर एक धंसा हुआ प्रदक्षिणापथ है। ऊपर ईंटों के इस छोटे से स्तूप का चबूतरा चौकोर है और ऊपर अर्धगोलाकार गुंबद है। दुर्भाग्य से समय और मौसम की मार से ईंटों के ढांचे का ज़्यादातर हिस्सा ढह गया है लेकिन इसके बावजूद ये एक अनोखा स्मारक है और इस तरह का कोई और स्मारक गुजरात में नही है। इसके पहले ईंटो का स्तूप एम.एस यूनिवर्सिटी, बड़ोदा ने देवनीमोरी में खोजा था लेकिन दुर्भाग्य से शामलाजी के श्याम सरोवर के पानी में वह डूब गया।
ग़ौर करने वाली बात ये है कि तारंगा स्थान वड़नगर से माउंट आबू जाने वाली रास्ते पर पड़ता है। ये व्यापार का एक महत्वपूर्ण मार्ग है और जैसा कि हम जानते हैं कि बौद्ध तथा जैन धर्म को व्यापारी प्रश्रय देते रहे हैं। व्यापार के प्रमुख मार्गों पर मठ और मंदिर बने हुए हैं। पुरातत्वविद अभिजीत एस. आंबेकर के अनुसार ये खुदाई वड़नगर में उनके दिशा निर्देश में पहले की गई खुदाई का ही तार्किक विस्तार था। वड़नगर में भी चौथी शताब्दी के बाद का एक सुंदर मठ है जिसका खुदाई में पता चला था। ये तमाम स्मारक बौद्ध काल के हैं। क्षत्रप काल के अंतिम वर्षों (चौथी,8वीं, 9वीं शताब्दी) के दौरान गुजरात के मेहसाणा क्षेत्र में बौद्ध धर्म ख़ूब फलाफूला था। इसका विस्तार तरंगा में 13वीं से लेकर 14वीं शताब्दी तक जारी रहा। तारंगा और वड़नगर की खुदाई की रिपोर्ट बनाने की प्रक्रिया अंतिम में है और पुरातत्वविद सांस रोककर इसका इंतज़ार कर रहे हैं।
इस तरह तारंगा एक अद्भुत स्थान हैं जहां ऐतिहासिक बौद्ध युग ने, 12वीं शताब्दी में, चुपचाप मध्यकालीन जैन धर्म के पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया। तारंगा भारत में धर्म के समन्वयता का प्रतीक है।
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