मुट्ठी भर रणबांकूरों ने देहला दिया था शेरशा का दिल 

एक ऐसा युद्ध जिसमें राजा और उनकी सेना के मैदान छोड़ने के बाद सेनानयकों ने महज़ चौबीस घंटे में आठ हज़ार लोगों की नई सेना तैयार करली और अपने से संख्या में दस गुनी बड़ी शाही फ़ौज को लोहे के चने चबवा दिये।

मारवाड़ की आन-बान-शान-संस्कृति को बचाने तथा क्षेत्र की जनता का विश्वास क़ायम रखने और मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हुये सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिये इस रण-स्थली पर प्रति वर्ष हज़ारों श्रद्धालु पहुंचते हैं।

राज्य और अपने लोगों की सुरक्षा करना उस समय शासकों का परम कर्तव्य होता था। इनकी सुरक्षा के लिए अनेक भीषण युद्ध हुए थे। इन युद्धों में से कुछ युद्धों ने जन मानस में, इनके अद्वितीय नायकों व शूरवीरों के बलिदान की गौरव गाथाओं को अमर कर दिया है। राजस्थान की इस धरा पर वैसे तो अनेक युद्ध हुए मगर इनमें से खानवा और हल्दीघाटी के युद्ध प्रमुख हैं। मगर एक ऐसा युद्ध जो सामाजिक मूल्यों और स्वाभिमान का प्रतीक तथा विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से अंकित जोधपुर-मारवाड़ के शासक राव मालदेव के सेनानायक जैता और कूँपा राठौड़ के नेतृत्व में मात्र छः हज़ार वीर योद्धा व दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की अस्सी हज़ार की विशाल सेना के बीच सुमेल गिरी स्थान पर लड़ा गया था।

सन 1531 में राव मालदेव ने मारवाड़-जोधपुर की राजगद्दी सम्भालते ही अपने राज्य को संगठित कर, केन्द्रीय शक्ति को मज़बूती प्रदान की । फिर मारवाड़ की सीमाओं का चारों ओर विस्तार करने का कार्य शुरू किया। इन्होंने अपने जीवन-काल में लगभग 52 युद्ध लड़ते । उन्होंने अपने राज्य की सीमा को बढ़ा कर मेवात, फ़तहपुर सीकरी, आगरा और दिल्ली तक फैला दिया था। जिस कारण गुजरात का बहादुरशाह, दिल्ली का हुमायूं और बिहार के शासक शेरशाह का चिन्तित होना स्वाभाविक था। मालदेव ने अपने शासन के दायरे का जो विस्तार किया और विजय अभियानों से मारवाड़ को मज़बूत और शक्तिशाली राज्य बना दिया।

राव मालदेव और शेरशाह में संघर्ष:

मालदेव और शेरशाह दो यानी दो उदयमान शक्तियों का संघर्ष था। बाबर ने राणा सांगा (मेवाड़ राज्य) को खानवा के युद्ध में हराकर राजस्थान में राजपूतों को भारी चुनौती दी थी। लेकिन बाबर की मृत्यु के साथ मुग़लों के अस्तित्व को शेरशाह ने चुनौती दी और दिल्ली और आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। हुमायूं ने मारवाड़ के शासक मालदेव की ओर से किसी भी प्रकार का सहयोग न मिलने पर देश से बाहर जाने का फ़ैसला किया था। दूसरी ओर राव मालदेव, मरूदेश के नागौर, मेड़ता, बीकानेर, जैसलमेरऔर आमेर के शासकों को पराजित करके राजस्थान का सबसे शक्तिशाली राजा बन बैठा। इसी लिये मालदेव को ‘‘हिन्दूस्तान का प्रतापी और शक्तिशाली राजा’’ बताया गया है। मालदेव और शेरशाह के बीच दुश्मनी के प्रमुख कारण थे.. मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति, हुमायूं को सहायता देने का आश्वासन और हुमायूं को बंदी न बनाना ।

दूसरी ओर राजस्थान के कई हिन्दू शासक भी मालदेव से इसलिये नाराज़ थे कि उसने उनके इलाक़े छीने लिए थे । उन्होंने शेरशाह से मालदेव पर आक्रमण करने का आग्रह किया। साथ ही सैनिक सहयोग देने का वादा भी किया था। इन में अगर बीकानेर के कल्याणमल और मेड़ता के वीरमदेव ने शेरशाह की सहायता नहीं की होती तो वह मारवाड़ विजय की न योजना ही नहीं बनाता । तब शायदभारत का इतिहास भी कुछ ओर ही होता। मगर नियती को शायद कुछ ओर ही मंज़ूर था इसलिए शेरशाह, हिन्दू राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठा कर आगरा, फ़तहपुर, झुंझुनू, अजमेर होते हुए वर्तमान के ब्यावर शहर के पास सुमेल गाँव में अपनी विशाल सेना के साथ पहुँच गया। उस ने वहां कई जगहों पर खाईयां बनवाईं, रेत के बोरों से खुले भागों को परकोटा का रूप देकर कई मार्गबंद कर दिए। और एक मज़बूत मोर्चा बंदी कर दी।दूसरी ओर मारवाड़ के शासक राव मालदेव ने भी अपनी सेना के साथ जैतारण के पास गिरी गाँव में डेरा डाला। इस प्रकार दोनों ओर की सेना लगभग एक माह तक एक दूसरे के सामने रहीं लेकिन किसी ने भी आक्रमण की पहल नहीं की।

अपने ही राज्य में डेरा डाले रहना मालदेव के लिए तो सरल था मगर शेरशाह की सेना के लिये अधिक समय तक दिल्ली से इतनी दूर रहना आसान नहीं था। फिर रसद सामग्री भी कम होती जा रही थी। जिससे शेरशाह का विश्वास डगमगाने लगा और वह मालदेव पर आक्रमण की पहल करने का साहस नहीं कर सका। फिर उसने छल एवं कपट से युद्ध जीतने की योजना बनाई। जिसके तहत मालदेव के प्रमुख सरदार और सेनानायकों के नाम झूठे फ़रमान लिखवाये गये । कुछ सिक्के मालदेव की सेना को सस्तेदामों में बेच दिये गये। जब इस बात जासूसों के मारफ़त मालदेव तक पहुंची तो उसे छल और कपट की शंका हो गई और उसने जोधपुर वापसी का निश्चिय कर लिया। इस पर सेना नायक वीर जैता, कूँपा तथा अन्य सरदारों ने मालदेव को समझाने का बहुत प्रयास किया । साथ ही अपनी स्वामीभक्ति की दुहाई भी दी लेकिन राव मालदेव ने अपनी सेना सहित वापसी का निर्णय ले लिया था। इस पर उनके प्रमुख सरदारों ने जैतारण क्षेत्र से, पीछे हटने से इनकार कर दिया था। उनका कहना था,‘‘उठा आगली धरती रावजी सपूत होय खाटी थी, तिण दिसा राव जी फुरमायों सु म्हैं कीयों। नै अठा आगली धरती रावले माइतें ने म्हारे माइते भेला हुये खाटी हुती। आ धरती छोड़ नै म्है नीसरण रा नहीं।’’ मारवाड़ रे परगना री विगत अनुसार इससे आगे की धरती तो आपने अपने भुजबल से जीती है, किन्तु इससे पीछे की धरा जो हमारे और आपके पूर्वजो ने जीती है, इससे पीछे हम नहीं हट सकते। यह हमारी आन, बान और शान के साथ ही स्वाभिमान की प्रतीक है।“

इतना होने पर भी मालदेव ने अपना निर्णय नहीं बदला और वह जोधपुर लौट आया। मगर उसरण-क्षेत्र में उनके सेनानायक राव जैता और कूँपाजी मात्र 10-12 हज़ार वीरों के साथ अद्धितीय साहस और अपने शौर्य से अविस्मरणीय अमर गाथा लिखने को तैयार थे। राव मालदेव सेना सहित वापस जोधपुर पहुंच गये । राव जैता-कूंपा और शेरशाह की शाही सेना के बीच युद्ध का समाचार सुन कर पहाड़ियों के सरदार नराजी रावत भी अपने सिपाहियों के साथ वहां पहुंच गये। अन्य जातियों , धर्म, सम्प्रदायों के अनेक वीर भी युद्ध में भाग लेने पहुँच गये।

सुमेल-गिरी का ऐतिहासिक युद्ध:

यह युद्ध होने से पहले शेरशाह और मालदेव की शक्ति लगभग बराबर की थी। लेकिन जब मालदेव अपनी सेना सहित जोधपुर वापस चले गये तो सभी परिस्थियां बदल गई थीं। फिर भी वीर जैता और कूँपा ने रजपूती गौरव और मूल्यों की रक्षा के लिये, अपने ऊपर लगे कलंक को धोने के लिए युद्ध करने का निश्चय किया । 4 जनवरी सन 1544 की रात्रि को गिरी से, सुमेल के लिये रवाना हुये। उनके साथ लगभग 10-12 हज़ार वीरों की सेना थी। दुर्भाग्य से बीच के पहाड़ी और जंगली क्षेत्र में अधिक अंधकार होने की वजह से वह रास्ता भटक गये । 5 जनवरी (पोष शुक्ला 11, वि.सं. 1600) को प्रातः लगभग 6 हज़ार घुड़सवार ही पठानपुरा के मोर्च पर पहुँच सके। हालांकि शेरशाह की विशाल सेना से भिड़ना मौत को दावत देने जैसा था। लेकिन रणबांकुरो के स्वाभिमान को यह क़तई गवारा नहीं था कि उनके रहते हुए विदेशी हमलावर उनकी धरती माता पर पांव रखे। जब इन वीरों ने शेरशाह की मज़बूत छावनी सुमेल नदी के तटपर पहुँच कर अचानक आक्रमण किया तो शत्रू सेना में खलबली मच गई।

जोधपुर ख्यात के अनुसार शेरशाह ने इन वीर घुड़सवारों का सामना करने के लिये हाथियों पर सवार दस्ता भेजा। उस दस्ते के पीछे तीरंदाज़ थे और और उनके पीछे तोपख़ाना दल को रखा गया था। हालांकि शेरशाह के लिये यह एक असमान युद्ध था फिर भी राजपूत वीरों की इस टुकड़ी ने बड़ी वीरता के साथ मुक़ाबला किया और विजय लगभग निश्चित सी हो गई थी । उसी समय जलाल खाँ जलवानी सेना के साथ शेरशाह की सहायता करने युद्ध मैदान में आ पहुँचा। जिससे युद्ध का पासा ही पलट गया। आख़िर बहुत ही कम संख्या में यह वीर कब तक लड़ सकते थे। वह एक-एक कर रणभुमि में वीरगति को प्राप्त होते गये। जिनमें वीर शिरोमणि जैता और कूँपा, अखैराज सोनीगरा, सहित मालदेव के कई प्रमुख सरदार थे। शेरशाह के भी भारी संख्या में पठान सैनिक काम आये। इस एक दिन के युद्ध में विजय होने के बाद शेरशाह ने वीर जैता और कूँपा की विशाल देह को देखा और उसने राजपूत योद्धाओं की अद्भुत वीरता और स्वामीभक्ति की सराहना करते हुए कहाँ की इतने कम संख्या में इन वीरों ने हमारी सेना के छक्के छुड़ा दिए। अगर यहाँ राव मालदेव स्वयं अपनी सम्पूर्ण सेना सहित होता तो शायद हमारी हार निश्चित थी। इस तथ्य की पुष्टि फ़ारसी ग्रन्थ से भी होती है कि युद्ध के बाद शेरशाह ने कहां था कि ‘‘ख़ुदा का शुक्र है कि किसी तरह फ़तह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दूस्थान की बादशाहत ही खोई थी।’’

कई इतिहासकारों का कहना है कि यदि मालदेव जंग का मैदान नहीं छोड़ता तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता। मालदेव को इस युद्ध का भारी नुक़सान उठाना पड़ा। उसे कई स्वामिभक्त वीरों से हाथ धोना पड़ा और उसकी महत्वकांक्षों और राज्य विस्तार की योजनों का भी अन्त हो गया। युद्ध के बाद कई शुरवीरों का अन्तिम संस्कार सुमेल और गिरी की इस रणभूमि पर किया गया। जहाँ उनकी याद में बनाये गये स्मारक के रूप में छतरियां, चबूतरे आज भी मौजूद हैं और लोगों को स्वाभीमान के पथ पर चलने के लिये प्रेरित कर रहे हैं।

इस प्रेरक स्थली पर प्रतिवर्ष 5 जनवरी को ‘‘सुमेलगिरी बलिदान दिवस’’ के रूप में बड़ा समारोह आयोजित किया जाता है और उन वीरों को श्रद्धासुमन अर्पित किये जाते हैं। इन वीरों के लिए किसी ने कहां है – भवन, महल-मालिया, क़िले और प्रस्तर लेख समय के साथ ख़त्म हो जायेंगे लकिन इन शूरवीरों की गौरव गाथाएं, जो जन मानस के हृदय पर अंकित हो गई हैं, वो युगों-युगों तक अमिट रहेगी।

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