जयपुर से 66 किलोमीटर दूर, उत्तर दिशा की ओर विराटनगर में एक प्राचीन बौद्ध स्तूप-परिसर के अवशेष मौजूद हैं। इन खंडहरों को जो चीज़ विशेष बनाती है, वह ये कि यह भारत में पाए जानेवाले सबसे प्राचीन बौद्ध चैत्य गृह हैं। चट्टानोंवाली बीजक की पहाड़ी की बुलंदी पर मौजूद यह खंडहर दूर से ही दिखाई पड़ जाते हैं।
ऐतिहासिक तौर पर विराटनगर, मत्स्य महाजनपद की राजधानी हुआ करती थी। मत्स्य महाजनपद, चौथी और छठी शताब्दी(ई.पू.) के बीच,उत्तर भारत के 16 साम्राज्यों में से एक हुआ करता था। प्राचीन हिंदू ग्रंथ महाभारत में भी विराटनगर का उल्लेख मिलता है। इसे राजा किरिता ने बसाया था जिसकी राजधानी में पांडवों ने भेस बदलकर, अपने निर्वासन के 13 वर्ष बिताए थे।
यहां आज भी कई स्थानों के ऐसे नाम मिल जाएंगे जिनका सम्बंध महाभारत से है जैसे “भीम की डुंगरी”, या “भीमा-हिल” और “बाण-गंगा” । माना जाता है कि अर्जुन के तीर मारने से “बाण-गंगा” निकली थी।
पुरात्तव विभाग की खुदाई से पता चला है कि तीसरी शताब्दी(ई.पू.) और पहली शताब्दी के बीच विराटनगर बेहद ख़ुशहाल शहर था। यहां की खुदाई में 36 सिक्के मिले हैं जिन में से ज़्यादातर इंडो-ग्रीक बादशाहों के हैं। उनमें से एक सिक्का हरमिया राजवंस के युग का है जिसने यहां पहली शताब्दी (ई.पू.) में राज किया था।
खुदाई में मौर्या राजवंश के महाराजा अशोक का एक शिला-लेख भी मिला है। जिसे एक महत्वपूर्ण खोज माना जाता है। यह शिला-लेख अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के स्थानीय संग्रहालय में रखा है। इस शिला-लेख में अशोक ने लिखा है कि उन्हें बौद्ध धर्म की के इन तीन अनमोल रत्नों पर विश्वास है….बुद्ध, धर्म और संघ। साथ ही उन्होंने बौद्ध धर्म के ग्रंथों के अध्ययन के महत्व पर बल दिय है।
बीजक पहाड़ी के ऊपर बौद्ध स्तूप और एक मठ के अवशेष भी मिले हैं जो दो बड़े मंचों पर फैले हुए हैं। यह दोनों मंच सीढ़ियों से जुड़े हुए हैं। ऊपरवाले मंच पर मठ था जहां भिक्षुओं के कमरों के अवशेष देखे जा सकते हैं। नीचेवाले मंच पर एक गोलाकार बौद्ध चैत्य गृह है जिसके मध्य में एक स्तूप बना है। इसे भारत के, अपने क़िस्म का सबसे प्राचीन बौद्ध-परिसर माना जाता है। दिलचस्प बात यह है कि यहां खुदाई में तांबें की बनी वस्तुएं भी मिली हैं। जिनसे पुरातत्व-विदों ने यह अंदाज़ा लगाया कि यहां मठ में रहनेवालों की ज़रूरत के हिसाब से तांबे की वस्तुएं बनाने का ढ़लाई-कारखाना भी रहा होगा।
इस जगह को पता नहीं क्यों लावारिस छोड़ दिया गया है। यहां खुदाई में मिली राख से पता चलता है कि किसी बड़ी आग ने इस परिसर को बरबाद कर दिया था।चंद इतिहासकारों का कहना है कि छठी शताब्दी में हूणों के हमलों की वजह से यह जगह बरबाद हो गई ती। लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि हूणों के हमलों से बहुत पहले ही जगह बरबाद हो चुकी थी।
इस जगह पर, पहली शताब्दी के बाद के, प्राचीन काल के कोई निशान नहीं मिले हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि यहां गौतम बुद्ध की मनुष्य के रूप में कोई आकृति नहीं मिली है। दरअसल इस तरह की परम्परा दूसरी शताब्दी में शुरू हुई थी।इसका मतलब यह हुआ कि हमें इस बौद्ध-परिसर की सच्चाई के बारे में कभी पता नहीं चल पाएगा।
15वीं शताब्दी यानी मुग़ल बादशाह अकबर के दौर में विराटनगर क्षेत्र दोबारा व्यवस्थित हुआ। अकबर ने यहां पत्थर की खानों और टकसाल का काम शुरु करवाया जिससे इलाक़े में दोबारा ख़ुशहाली लौट आई। सन 1864-65 में ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने यहां खुदाई करवाई तब कहीं जाकर पूरे राष्ट्र का ध्यान इस तरफ़ गया। आज इस शानदार जगह पर बहुत कम लोग आते हैं और सच यह है कि इसे पूरी तरह भुला दिया गया है।
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