टीपू सुल्तान तलवार के साये में जिया और इसी के साये में उसकी मौत हुई। हालंकि “मैसूर के शेर” की हत्या अंग्रेज़ सेना ने की थी लेकिन उसके प्रिय शहर का पतन अंग्रेज़ सेना से भी ज़्यादा ख़तरनाक दुश्मन की वजह से हुआ। इसके पहले कि हम इस बारे में बात करें, एक नज़र डालते हैं तत्कालीन मैसूर साम्राज्य की राजधानी श्रीरंगपटना पर।
आप विश्वास करें या न करें लेकिन यह सच है कि 17वीं और 18वीं सदी में श्रीरंगपटना भारत के पहले महानगरों में से एक था। लेकिन उस दिन यानी 4 मई, सन1799 को तस्वीर एकदम बदल गई। चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में अंग्रेज़ सेना ने श्रीरंगपटना द्वीप पर कब्ज़ा किया और उसके क़िले के अंदर घुसकर टीपू सुल्तान को मौत के घाट उतार दिया था।
टीपू की मौत इस शहर के पतन का सबब बनी लेकिन इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे।
17वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में विश्व के इस हिस्से में जितना ध्यान श्रीरंगपटना खींचता था उतना और कोई शहर नहीं करता था। कई समकालीन दस्तावेज़ों में मैसूर साम्राज्य की राजधानी की सुंदरता और भव्यता का उल्लेख है। ये शहर हैदर अली और फिर उसके बाद उनके पुत्र टीपू सुल्तान ने विकसित किया था। सन 1792 में कैप्टन एलेक्ज़ेंडर डिरोम ने इसे समृद्ध, सुविधाजनक और एक ऐसा ख़ूबसूरत शहर बताया था जो उस समय किसी और देशज शहज़ादे के पास नहीं था।
स्कॉटलैंड के सर्वेक्षक फ़्रांसिस बुकानन टीपू की मौत के बाद सन 1800 में श्रीरंगपटना आए थे और उनके एक अनुमान के मुताबिक़ उस समय यहां की आबादी डेढ़ लाख से ज़्यादा थी। इस तरह ये शहर 18वीं शताब्दी में विश्व के सबसे बड़े शहरों में से एक था।
श्रीरंगपटना एक द्वीप-शहर है जो पवित्र कावेरी नदी से घिरा हुआ है। मैसूर से 18.5 कि.मी. दूर स्थित ये द्वीप 13 स्क्वैयर कि.मी. के भू-भाग में फैला हुआ है। द्वीप के ऊपरी हिस्से पर एक क़िला था जबकि बाक़ी हिस्सों में गंजम तथा लालबाग़ उप-नगर और टीपू का पसंदीदा बाग़ हुआ करता था।
उद्धरण-“ द्वीप के पश्चिमी दिशा के मुहाने पर स्थित क़िले की विशेषता उसकी सफ़ेद दीवारें, बाहर की तरफ़ किले पर किया जाने वाला सामान्य काम, भव्य इमारतें और प्राचीन हिंदू मंदिर थे। इसके अलावा बाद में इस्लाम धर्म के सम्मान में बनवाये गये शानदार और उत्कृष्ट स्मारक भी थे।“ -कैप्टन एलेक्ज़ेंडर डिरोम, 1792
शहर की वास्तुकला पर एक प्राचीन मंदिर का प्रभाव है जिसे एक गंगा क़बायली सरदार ने सन 984 में बनवाया था। बाद में होयसल राजवंश, विजयनगर के शासकों और मैसूर के वाडियार ने इसका विस्तार किया। इस जगह का इतिहास इतना उलझा हुआ और बहुआयामी है कि ब्रिटिश इतिहासकार ई.डब्ल्यू. थॉम्सन ने सन 1924 में लिखा, ‘श्रीरंगपटना के इतिहास को वर्षों की मेहनत का बाद ही समझा जा सकता है।’
गंजम उप-नगर (फ़ारसी में गंज-ए-आम जिसका अर्थ है बड़ा बाज़ार) की स्थापना टीपू सुल्तान ने एक महत्वाकांक्षी औद्योगिक बस्ती बनाने के लिये की थी। टीपू ने उत्तरी कर्नाटिक और मुग़ल प्रांत सिरा से दस्तकारों और व्यापारियों को यहां लाकर बसाया था।
गंजम में उस समय के बचे रह गए अवशेषों में सबसे महत्वपूर्ण हैं दरिया दौलत बाग़, ग्रीष्म महल और पास ही स्थित एक बाग़ है जो टीपू की आरामगाह थी। फ़्रांसिस बुकानन महल के अंदर के भित्ति चित्रों को देखकर दंग रह गया था और उसने कहा था, “इसकी दीवारों पर पैंटिंग्स लगी हुई हैं जो जुलूस में दो मुसलमान शहज़ादों हैदर और टीपू को दर्शाती हैं, इनमें कर्नल बैली की हार और विभिन्न जातियों या अलग अलग पेशे से संबंध रखने वालों के पहनावों का चित्रण है।” ये आज उन स्मारकों में से है जहां सबसे ज़्यादा सैलानी आते हैं।
लॉर्ड डलहोज़ी तो दरिया दौलत महल की दीवारों पर लगे भित्ति चित्रों को देखकर इतने अचंभित हो गए थे कि उन्होंने सन 1855 में पहली बार भारत की धरोहरों को संजोने की योजना शुरु कर दी। उन्होंने लिखा था, “मैं उम्मीद करता हूं कि महल उसकी यादों और संसर्ग सहित लंबे समय के लिये अवलोकन के लिये पूरे सम्मान के साथ संरक्षित रहेगा… ”
टीपू का प्रिय शहर श्रीरंगपटना अपनी ख़ूबसूरती और इतिहास के बावजूद आख़िरकार वीरान हो गया। इसकी वजह थी च्छर जो पास के ही दलदल में पनपते थे। मच्छरों की वजह से हैज़ा और मलेरिया बीमारियां फ़ैलने लगी थीं और अंग्रेज़ों को शहर छोड़ना पड़ा। सन 1806 में अंग्रेज़ सेना श्रीरंगपटना में अपनी चौकियां छोड़कर बैंगलोर चली गई जहां उसी साल एक नयी छावनी बनाई गई थी।
श्रीरंगपटना धीरे धीरे मानचित्र से ग़ायब हो गया और आज इस द्वीप में बमुश्किल बीस हज़ार लोग रहते होंगे। आज हम टीपू की इस राजधानी के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वो बुकानन जैसे औपनिवेशिक चश्मदीद लोगों की मार्फ़त ही जानते हैं। इन लोगों के दस्तावोज़ों से ही हमें श्रीरंगपटना के सुनहरे समय की झलक देखने को मिलती है।
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