हम जब प्राचीन भारत के विश्वविद्यालयों के बारे में बात करते हैं, तो हमारे दिमाग़ में फ़ौरन दो नाम आते हैं- नालंदा और तक्षशिला। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं, कि नालंदा से लगभग 500 किमी दूर, वर्तमान बांग्लादेश में एक और विश्वविद्यालय है, जिसको प्राचीन भारत के सबसे बड़े बौद्ध मठों में से एक माना जाता है।
बांग्लादेश के नौगांव ज़िले के पहाड़पुर गांव में स्थित सोमपुर महाविहार प्राचीन भारत के सबसे महत्वपूर्ण मठों में से एक है।
आठवीं शताब्दी में बंगाल पर पाल वंश का शासन होता था। उनके शासनकाल में कुछ सबसे महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण हुआ। पाल महायान बौद्ध संप्रदाय के अनुयायी थे। उनके शासन से पहले बंगाल क्षेत्र में ब्राह्मण धर्म, और जैन धर्म, बौद्ध धर्म की तुलना में कहीं ज़्यादा लोकप्रिय थे। पाल राजओं के शासन के दौरान बौद्ध मंदिरों और विहारों को संरक्षण दिया गया था।
इस राजवंश के शुरुआती शासन के दौरान साम्राज्य के गढ़ बिहार और बंगाल में पांच बड़े शिक्षा केंद्र स्थापित किए गए थे- नालंदा, विक्रमशिला, सोमपुर, जगदाला और ओदंतपुर। विद्वानों का मानना है, कि ये सभी महाविहार आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, यानी इनका एक नेटवर्क था। दरअसल दस्तावेज़ों के अनुसार विद्वान एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय आया जाया करते थे। उदाहरण के लिए अभिलेखों में उल्लेख है, कि दीपंकर, नालंदा से शिक्षा प्राप्त करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए ओदंतपुर गए थे, और अंततः विक्रमशिला विहार के प्रमुख बने। वैरोकाना रक्षित नामक एक तांत्रिक विद्वान भी, ज्ञान की खोज में नालंदा, विक्रमशिला और सोमपुरा आये थे।
विद्वान पुष्प नियोगी लिखते हैं, “बंगाल और बिहार में बने विभिन्न विश्वविद्यालय, आधिकारिक और शैक्षणिक गतिविधियों के विभिन्न क्षेत्रों में, एक दूसरे के पूरक थे। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि उनमें लक्ष्य और कार्यप्रणाली को लेकर कुछ सामान्य विशेषताएं थीं। लेकिन, जब मौजूदा विश्वविद्यालयों का महत्व ख़त्म हो गया, तो कुछ बचे रह गये विश्वविद्यालय, भले ही कम स्तर पर सही, लेकिन उनका मार्गदर्शन करते रहे।”
इनमें सोमपुर महाविहार सबसे बड़ा मठ बताया जाता है। यहां मिले शिलालेख के अनुसार यह आठवीं शताब्दी में पाल राजवंश के राजा धर्मपाल ने बनवाया था, जो बौद्ध धर्म के बड़े संरक्षक थे। सोलहवीं शताब्दी के बौद्ध विद्वान तारानाथ यहां तक कहते हैं, कि राजा ने अपने शासनकाल के दौरान लगभग पचास धार्मिक संस्थान बनवाये थे।
दिलचस्प बात यह है, कि यहां मिली सन 479 की तांबे की पट्टी के अनुसार यह जगह गुप्त काल के दौरान एक जैन मठ हुआ करता था। इसके मुताबिक़ जैन अरिहंत की पूजा के लिए एक ब्राह्मण दंपत्ति ने कई भूखंडों का अनुदान किया था। इसमें जैन मठ के बड़े पुजारी के नाम का भी ज़िक्र है। समय के साथ, जैन मठ शायद नष्ट हो गया था और आठवीं शताब्दी में इसके अवशेषों के ऊपर ही सोमपुर महाविहार बनाया गया था।
अपने उत्कर्ष के दौरान, सोमपुर महाविहार काफ़ी मशहूर संस्थान था। यहां इसमें दूर-दराज़से कई विद्वानों आया करते थे। सोमपुर महाविहार की स्थापना के साथ ही यह क्षेत्र महायान बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। जल्द ही, सोमपुर महायान बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध और पवित्र तीर्थस्थल बन गया। एक तिब्बती स्रोत के अनुसार, पाल राजा महिपाल नियमित रूप से सोमपुर में पूजा करने आते थे। इसका महत्व बढ़ने के साथ ही महाविहार एक समृद्ध केंद्र बन गया। दस्तावेज़ों के अनुसार, सोमपुर के भिक्षु बोधगया और नालंदा जैसे अन्य प्रसिद्ध शिक्षा केंद्रों को दान करते थे, और उपहार देते थे।
सोमपुर और नालंदा का निकट संबंध दोनों स्थलों पर पाए गए शिलालेखों से स्पष्ट होता है। इनमें दो अधिकारियों, धर्मसेना और सिंहसेना के नामों का उल्लेख मिलता है। हो सकता है, कि दोनों व्यक्तियों को दोनों विश्वविद्यालयों से जुड़े कुछ कामों के लिए नियुक्त किया गया होगा। सोमपुर के जलाये जाने का उल्लेख, बौद्ध भिक्षु विपुल श्रीमित्र के नालंदा शिलालेख में मिलता है।
यह मठ तीन सदियों से ज़्यादा वक़्त तक एक फलता-फूलता केंद्र बना रहा। ग्यारहवीं शताब्दी में वांगल (पूर्वी बंगाल) के हमले के दौरान मठ आंशिक रूप से नष्ट हो गया। बारहवीं शताब्दी में पाल वंश के पतन के बाद सेना ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया, लेकिन मठ को शासकों से पर्याप्त संरक्षण मिलना बंद हो गया और नतीजे में कभी भव्य रहे इस मठ का पतन हो गया।
उन्नीसवीं शताब्दी में सबसे पहले इस जगह की खोज ईस्ट इंडिया कंपनी के बुकानन हैमिल्टन ने की थी। सन 1879 में अलेक्जेंडर कनिंघम ने यहां का दौरा किया, और अपनी रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया। संभवतः सोमपुर पर सबसे व्यापक काम पुरातत्वविद् के.एन. दीक्षित ने किया था। उन्होंने सन 1938 में यहां खुदाई करवाई और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। दीक्षित के अनुसार, सोमपुर “सबसे बड़ा अकेला संघराम है, जो भारत में बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाया गया था।”
चतुर्भुज मठ में लगभग 177 कक्ष हैं। इसमें केंद्रीय ड़ांचे के कक्ष शामिल नहीं हैं, जिनमें लगभग 600-800 भिक्षु रहा करते होंगे। यहां के कमरों में भिक्षुओं के रहने के लिये हुआ करते थे। इनमें से कुछ कमरों में सजे हुये पीठ हैं, जिनका बाद में अनुष्ठानों के लिये प्रयोग किया जाता होगा। मठ में एक सामोहिक रसोई और एक भोजन कक्ष भी था।
सोमपुरा में शायद सबसे दिलचस्प संरचना केंद्रीय मंदिर की है। तीन छतों वाला स्लैब(क्रॉस) के आकार का मंदिर अन्य बौद्ध मठों से एकदम अलग है। इसमें पत्थर और टेराकोटा की अनूठी सजावट भी है। विद्वानों का मानना है, कि यह संरचना जावा, बर्मा और कंबोडिया की मंदिर वास्तुकला से काफी मिलती-जुलती है। यह भी कहा जाता है, कि संरचना की डिज़ायन पर जैन संरचना का प्रभाव भी है। इसीलिये ऐसा कहा जाता है, कि इससे पहले यहां महाविहार ही रहे होंगे।
इसके अलावा यहां शिलालेख, सिक्के, मुहरें, टेराकोटा पट्टिकाएं, पत्थर और कांस्य की मूर्तियां और चीनी मिट्टी की चीज़ें सहित कई प्राचीन वस्तुएं मिलीं थीं। दिलचस्प बात यह है, कि यहां बौद्ध देवताओं के अलावा, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, गणेश और सूर्य सहित कई ब्राह्मण देवताओं की छवियां भी उकेरी गई हैं।
सन 1985 में सोमपुर महावीर को यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में शामिल कर लिया गया। आज, यह बांग्लादेश में सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय पुरातात्विक स्थलों में से एक है।
हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com