सित्तनवासल गुफा: बेहतरीन भित्ति चित्रों का एक नमूना

महाराष्ट्र में अजंता की और मध्य प्रदेश में बाघ की गुफाएं अपने भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध हैं, लेकिन तमिलनाडु में भी एक गुफा है, लेकिन उसके बारे में बहुत कम लोग जानते है। ये गुफा जैन धर्म का एक समृद्ध गढ़ होने के अलावा, अपने भित्ति चित्रों के लिए भी जानी जाती है। यहां के भित्ति चित्र, भारत में सबसे अच्छे भित्ति चित्रों में से एक माने जाते हैं।

तमिलनाडु के पुदुक्कोट्टई ज़िले के सित्तनवासल गांव में स्थित सित्तनवासल गुफा में चट्टान को तराश कर बनाया गया एक जैन मंदिर है। इस मंदिर में जैन धर्म से संबंधित कुछ प्रारम्भिक भित्ति चित्र हैं। तमिल में सित्तनवासल का शाब्दिक अर्थ है महान संतों का निवास’। ये गुफा गांव में एक पहाड़ी के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। पहाड़ी के पूर्वी हिस्से में प्राकृतिक गुफाएं हैं, जिन्हें एलादिपट्टम के नाम से जाना जाता हैइनके बारे में कहा जाता है, कि दूसरी-पहली शताब्दी (ई.पू.) से लगभग हज़ार वर्षों तक जैन तपस्वियों का निवास होता था। एलादिपट्टम में चट्टान को तराश कर बनाये गये लगभग सत्रह बिस्तर हैं, जिन पर भिक्षुओं के नाम लिखे हुये हैं। परिसर में सबसे बड़े बिस्तर पर पहली शताब्दी (ई.पू.) का तमिल-ब्राह्मी लिपि में लिखा एक शिला-लेख है, जिस पर एक तपस्वी के नाम खुदा हुआ है।

8वीं शताब्दी में जैन धर्म तमिलनाडु में ख़ूब फल-फूल रहा था, और इसी समय के आसपास सित्तनवासल भी एक जैन केंद्र के रुप में प्रसिद्ध हो चुका था। देश भर की अधिकांश गुफाओं की तरह यह गुफा भी प्राचीन तमिलनाडु के व्यापारिक मार्गों में से एक महत्वपूर्ण मार्ग पर स्थित थी। ऐसा कहा जाता है, कि देश भर से तपस्वी कठोर तपस्या करने के लिए सित्तनवासल आते थे। ये तपस्वी का योत्सर्ग तप (खड़ी हुई मुद्रा में मोक्ष तक ध्यान लगाना) और सल्लेखना (मृत्यु तक उपवास करना) किया करते थे।

दिलचस्प बात यह है, कि ये गुफाएं जहां पहली शताब्दी (ई.पू) के आसपास की हैं, वहीं गुफा-मंदिर बहुत बाद में, लगभग 7वीं-9वीं शताब्दी में, खुदाई में मिला था। ये मंदिर कब बना था इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। कुछ विद्वानों का मानना ​​​​था कि ये मंदिर पल्लव राजा महेंद्रवर्मन-प्रथम (शासनकाल सन 580-630 ईस्वी) ने जैन धर्म से शैव धर्म अपनाने के पहले बनवाया था। लेकिन मंदिर में मिले एक शिला-लेख के अनुसार विद्वानों का मानना ​​है, कि मंदिर का निर्माण पांड्य राजा श्री वल्लभ (शासनकाल 815-862 ईस्वी) के शासनकाल में हुआ था।

मंदिर में एक गर्भगृह और एक अर्ध-मंडप है। इन दोनों स्थानों की दीवारों पर तीर्थंकरों की छवियां बनी हैं। गर्भगृह के पिछले भाग पर एक आचार्य की छवि के साथ दो तीर्थंकरों की छवियां हैं। गर्भगृह की छत पर एक सुंदर नक़्क़ाशीदार धर्म-चक्र या विधि-चक्र बना हुआ है।

दक्षिण की ओर इलान-गौतमन से संबंधित एक शिलालेख में पांड्य राजा श्री वल्लभ के शासनकाल में मंदिर में किये गये कामों का उल्लेख है। इलान गौतमन मदुरै असिरियन या मदुरै के आचार्य के नाम से भी जाना जाता हैइसमें मंदिर के सामने एक मुख-मंडप के निर्माण के अलावा गुफा के अर्ध-मंडप को दोबारा बनाये जाने का भी उल्लेख है। इसमें यह भी कहा गया है, कि यहां पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ की मूर्ति पर रंग-रोगन किया गया था। 

इन गुफाओं का मुख्य आकर्षण रंग-रोगन और चित्रकारी है। किसी समय ये गुफा वाक़ई देखने लायक़ रही होगी। छत, खंभे और मूर्तियों सहित पूरी गुफा में चित्रकारी होती थी। चित्रकारी की शैली की तुलना अजंता की चित्रकारी शैली से की जाती है, लेकिन चित्रकारी में इस्तेमाल की गई सामग्री कुछ अलग है। कांचीपुरम में पल्लवों के भित्ति चित्रों की तरह सित्तनवासल में भित्ति चित्र फ्रेस्को प्लास्टर विधि का उपयोग किया गया था। इस विधि में रंगो को ऑर्गेनिक बाइंडर, और चूने के साथ मिलाया जाता है, और सूखे प्लास्टर पर लगाया जाता है। सित्तनवासल के भित्ति चित्रों को विभिन्न रंगों जैसे नीले, सफेद, हरे, पीले, नारंगी और काले रंग के वनस्पति और खनिज रंगों का उपयोग करके बनाया गया है।

तमाम चित्रों की विषय-वस्तु जैन समवशरण अथवा तीर्थंकरों के दिव्य शिक्षण कक्ष सहित अन्य विषयों पर आधारित है। इसके अलावा गुफा की दीवारों पर कमल से भरा एक तालाब, जानवरों, लोगों, मछलियों, फूलों, पक्षियों, नर्तकियों और एक शाही जोड़े के चित्र बने हुये हैं। 

अफसोस की बात है, कि विगत वर्षों में हवा, नमी, धूप, कीड़े, शैवाल, गंदगी और धुएं की वजह से चित्रों को गंभीर नुक़सान हुआ है। इसके अलावा इन्हें नुक़सान होने की एक वजह ये भी है, कि इन्हें सेक्को विधि से बनाया गया था। हालांकि सेक्को तकनीक में चित्रकार को अधिक समय तक काम करने की सुविधा मिलती है, लेकिन यह कम टिकाऊ होती है। चूंकि रंग को गीले प्लास्टर के बजाय सूखे प्लास्टर पर लगाया जाता है, इसलिये रंगदीवार पर अच्छी तरह नहीं चढ़ पाते हैं और बस सतही ही रहते हैं। नतीजे में, रंग आसानी से निकल जाते है। आज चित्रों के कुछ ही हिस्से बाक़ी रह गये हैं।

इस गुफा के बारे में,19वीं शताब्दी में ही पता चल पाया था। इस साइट के बारे में पहली बार उल्लेख सन 1916 ईस्वी में इतिहासकार एस राधाकृष्ण अय्यर की ए जनरल हिस्ट्री ऑफ़ पुदुक्कोट्टई स्टेट नामक किताब में मिला था। बाद में टी.एन. रामचंद्रन और पुरातत्त्वविद जौव्यू-डुब्रेइल और टी.ए. गोपीनाथ राव जैसे विद्वानों ने गुफा पर काम किया।

आज सित्तनवासल गुफा की देखरेख भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के हाथों में है।

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