आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विष्णु के अवतार नरसिंह की आराधना बहुत लोकप्रिय है। यहां नरसिंह के सैंकड़ो मंदिर हैं। यहां एक मंदिर है, जिसे आंध्र प्रदेश के नरसिंह मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक माना जाता है। कहा जाता है, कि चढ़ावे के मामले में ये तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर के बाद राज्य का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है।
और ये मंदिर है… आंध्रप्रदेश का सिंहाचलम मंदिर।
विशाखापत्तनम ज़िले में खूबसूरत सिंहाचलम पहाड़ियों पर श्री वराह लक्ष्मी नरसिंह मंदिर स्थित है। यह आंध्र प्रदेश के 32 नरसिंह मंदिरों में से एक है, जिन्हें पवित्र और महत्वपूर्ण मंदिर माना जाता है। सिंहाचलम का शाब्दिक अर्थ है, ‘सिंह (शेर) की पहाड़ी’। इस पहाड़ी का नाम विष्णु के दशावतार (दस अवतार) के चौथे नरसिंह से जुड़ा है।
पुरानी कथाओं के अनुसार, राक्षस राजा हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को विष्णु के प्रति उसकी अटूट भक्ति से नाराज़ होकर इस पहाड़ी से फेंकने का आदेश दिया था। जब प्रहलाद को पहाड़ी से नीचे फेंका जा रहा था, तब भगवान नरसिंह प्रकट हुए और उन्होंने प्रहलाद को बचाया। इसके बाद प्रहलाद ने उनके सम्मान में इस पहाड़ी पर एक मंदिर बनवाया था।
सिंहाचलम मंदिर की शुरुआत कैसे हुई ,ये अब तक साफ़ नहीं है। विद्वान डॉ. के. सुंदरम के अनुसार कई अन्य कई मंदिरो की तरह, इस मंदिर की भी शुरुआत एक जंगल में हुई थी, जहां उस क्षेत्र के आदिवासी पूजा करते थे। वे लिखते हैं, “एक स्थानीय वसंत या एक पेड़ या एक संत को चमत्कारी शक्तियां मिल जाती हैं, और इस पर लोगों का ध्यान जाता है। फिर गांव के लोग उस स्थान पर एक देवता बिठा देते हैं।
प्रतिमा अमूमन आकार में सुंदर नहीं होती है, क्योंकि इसे नौसिखिए शिल्पकार बनाते हैं। वर्षों से सभ्यता के विकास के साथ मंदिर एक बड़े परिसर के रूप में विकसित हुआ। दिलचस्प बात यह है, कि अधिकांश नरसिंह मंदिर पहाड़ियों पर हैं, क्योंकि सुंदरम का मानना है, कि पहाड़ियों को आमतौर पर शेरों का निवास माना जाता है। पुरानी कथाओं के अनुसार मंदिर का निर्माण कृत युग में राजा पुरुरवा ने करवाया था जिसे पृथ्वी के नीचे एक मूर्ति मिली थी, हालांकि 11वीं शताब्दी के आरंभिक उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोत चोल राजा कुलोत्तुंग प्रथम के समय के हैं। कुलोत्तुंग-I के अधिकारियों ने संभवतः 11वीं शताब्दी में राजनीतिक अभियानों के दौरान इस पूरे क्षेत्र को जीवंत कर दिया था।
13वीं शताब्दी में मंदिर में भारी बदलाव आया। चोल वंश के बाद यह क्षेत्र पूर्वी गंग राजवंश के अधीन हो गया था। नरसिम्हादेव- प्रथम के शासनकाल में सिंहाचलम मंदिर का ज़बरदस्त पुनर्निर्माण हुआ। नरसिम्हादेव- प्रथम उड़ीसा में प्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण भी नरसिम्हादेव-I करवाया था।
मंदिर के दोबारा निर्माण और मरम्मत से मंदिर को एक नयी प्रतिष्ठा मिल गई। इसके बाद कहा जाता है, कि द्वैत दार्शनिक और विद्वान नरहरि तीर्थ ने मंदिर में धर्म और शिक्षा का केंद्र स्थापित किया था जिसकी वजह से इसकी लोकप्रियता और बढ़ी गई थी। गंग राजाओं और उनके सामंतों और बाद में गजपति जैसे राजवंशों ने तथा नरहरि तीर्थ के शिष्यों के धार्मिक दान से मंदिर सिंहाचलम 13वीं और 15वीं शताब्दी के बीच अपनी लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गया था। कहा जाता है, कि यहां प्रसिद्ध संत चैतन्य महाप्रभु सन 1510 के आसपास यहां आये थे।
क्योंकि इस क्षेत्र में अलग-अलग राजवंशों का शासन रहा था, इसीलिए सिंहाचलम की वास्तुकला में तंजावुर के चोल, उड़ीसा के गंग, वेंगी के चालुक्य और वारंगल के काकतीय जैसे विभिन्न राजवंशों की वास्तु शैलियों का एक मिश्रण दिखता है।
तीन बाहरी आंगनों और पांच बड़े दरवाज़ों की वजह से सिंहाचलम मंदिर बाहर से एक क़िले जैसा दिखाई देता है। एक प्रभावशाली 5 मंज़िला राजगोपुरम (मुख्य टॉवर) पश्चिमी प्रवेश द्वार पर है। इस मंदिर के दिलचस्प पहलुओं में से एक कल्याण मंडप या नाट्य मंडप है, जिसमें छह पंक्तियों में लगभग 78 स्तंभ हैं। इन स्तंभों पर मंदिर के देवता सहित नरसिंह की बत्तीस छवियां बनी हुई हैं।
संभवतः इस मंदिर की सबसे अनूठी विशेषता मुख्य देवता की मूर्ति है। इस मंदिर के पीठासीन देवता वराह नरसिंह हैं, जो मानव-सिंह देवता के कई रूपों में से एक हैं। ये छवि वराह (सूअर) और नरसिंह का एक संयोजन है। पुरानी कथाओं के अनुसार, प्रहलाद, विष्णु के दोनों रूपों को एक साथ देखना चाहता था, जिन रुपों में विष्णु ने उसके पिता और चाचा हिरण्याक्ष का वध किया था, और इस तरह विष्णु ने वराह नरसिंह का रूप धारण किया। दिलचस्प बात यह है, दो फ़ुट की मूर्ति अक्षय तृतीया के दिन साल में केवल एक बार अपने मूल रूप में दिखाई देती है। अन्य सभी दिनों में पूरे वर्ष मूर्ति पूरी तरह से चंदन के लेप की एक मोटी परत में इस तरह से ढकी होती है, कि यह एक शिवलिंग जैसी दिखती है।
इस मंदिर की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक इसके शिला-लेख हैं, जो मंदिर के इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। मंदिर में शिला-लेखों का ख़ज़ाना है, जिनकी संख्या लगभग पांच सौ है। इनमें से ज़्यादातर में विभिन्न राजाओं, और लोगों द्वारा मंदिर को किए गए दान का उल्लेख है। हालांकि अधिकांश शिला-लेख तेलुगु भाषा में हैं लेकिन कुछ संस्कृत, ओडिया और तमिल भाषा में भी हैं। इन शिला-लेखों में सबसे पुराना शिला-लेख सन 1087 का है, जिसमें चोल राजा कुलोत्तुंग चोल के शासनकाल के दौरान मंदिर को उपहार में एक बग़ीचा दिये जाने का ज़िक्र है। कुछ सबसे महत्वपूर्ण शिला-लेख पूर्वी गंग राजवंश के हैं, जिन्होंने 12वीं और 15वीं शताब्दी के बीच मंदिर को अपना संरक्षण दिया था, और परिसर की मरम्मत करवाई थी। 13वीं शताब्दी के एक शिला-लेख में मूल मंदिर के स्लैब के उपयोग से मंदिर की मरम्मत करवाने का उल्लेख है। मंदिर को पूर्वी गंग के सामंतों से भूमि, जवाहरात और गांव मिले थे। मंदिर को विजयनगर साम्राज्य के तुलुवा वंश के प्रसिद्ध राजा कृष्ण देवराय से पन्ना और हीरे के गहनें भी दान में मिले थे । दिलचस्प बात यह है कि कृष्ण देवराय के बारे में कहा जाता है, कि उन्होंने अपने एक अभियान के दौरान सिंहाचलम में एक जयस्तंभ (विजय स्तंभ) बनवाया था।
17 वीं सदी के दौरान सिंहाचलम मंदिर, विजयनगरम के शाही परिवार के संरक्षण में आ गया। आज भी मंदिर का प्रबंधन शाही परिवार ही देखता है। आज सिंहाचलम मंदिर आंध्र प्रदेश में सबसे पूज्यनीय मंदिरों में से एक है,जहां बड़ी तादाद में श्रद्धालु आते हैं।
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