शालीमार गार्डन: मुग़लों के प्रकृति और वास्तुकला प्रेम के गवाह

मुग़ल बादशाहों ने भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी वास्तुकला, विचार और प्रकृति के साथ रिश्तों को दिल भरकर नवाज़ा है। इस सबकी झलक उनकी चित्रकारी, उनकी इमारतों पर डिज़ाइन और यहां तक ​​​​कि उनके इतिहास में भी साफ़ दिखाई देती है । पेशावर से लेकर चट्टगांव तक  उन्होंने पूरे उपमहाद्वीप के इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ी है, जो लोगों को आज भी आकर्षित करती है, फिर चाहे वह उनका प्रकृति-प्रेम हो या वास्तुकला।

मुग़लों को प्रकृति से बहुत लगाव था, और यही वजह है, कि उन्होंने कई मुग़ल गार्डन (बाग़) बनवाये। आगरा में 16वीं शताब्दी में पहले मुग़ल बादशाह बाबर ने बाग़ बनवाने की शुरुआत की थी, जो फ़ारसी शैली “चार बाग़” से प्रभावित थी। इस शैली में चौकोर ग्रीनहाउस (छोटे पेड़ों को हरा-भरा रखने की जगह) के बीच में पैदल मार्ग या पानी पहुंचाने के लिये चार छोटी नहरें होती थीं। इन मुग़ल बाग़ों की मुख्य विशेषताएं थीं- हौज़, फ़व्वारे, नहरें, अलग अलग ऊंचाई के चबूतरे  और कई अन्य कलाकृतियाँ, जिससे बाग़ किसी स्वर्ग की तरह लगते थे। मुग़ल गार्डन ने या तो समग्र रूप से या फिर एक स्मारक के हिस्से के रूप में हमेशा भारतीय इतिहास को महत्वपूर्ण बनाया है। लेकिन क्या आपको पता है, कि तीन मुग़ल बाग़ ऐसे हैं जिनका एक ही नाम है?

श्रीनगर, लाहौर और दिल्ली में जो मुग़ल गार्डन है, उनका एक ही नाम है, शालीमार बाग़। श्रीनगर में शालीमार बाग़ 16वीं शताब्दी के आख़िर में चौथे मुग़ल बादशाह जहांगीर ने बनवाया था,  जबकि बाक़ी दो बाग़ उनके बेटे बादशाह शाहजहां के शासनकाल में 17वीं शताब्दी में बने थे। दिलचस्प बात यह है, कि इन बाग़ों से हमें न सिर्फ़ वास्तुकला और प्रकृति में मुग़लों की दिलचस्पी, बल्कि उनके इतिहास की तरक़्क़ी के बारे में भी जानकारी मिलती है। शालीमार शब्द फ़ारसी भाषा का है, जिसका अर्थ है सुंदर और मज़बूत।

चलिये, एक नज़र डालते हैं और जानते हैं इन मुग़ल बाग़ों के बारे में।

शालीमार बाग़, श्रीनगर  

श्रीनगर में मशहूर डल झील के पास मौजूद है शालीमार बाग़, जो तीन बाग़ों में सबसे पहले बना था।

तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल (1556-1605) के दौरान, कश्मीर पर सूबेदारों के ज़रिये शासन किया जाता था। कश्मीर के प्रति उनकी कशिश के नतीजे में, सन 1586 में नसीम बाग़ बनवाया गया, जो इस इलाक़े का सबसे पुराना मुग़ल बाग़ है। यहां की आब-ओ-हवा और ख़ूबसूरती ने अकबर के बेटे जहांगीर (शासनकाल 1605-1627) को मोहित कर लिया। जहांगीर ने शुरू में अपने सैन्य अभियानों के दौरान अकबर के साथ इस स्थान का दौरा किया था, और बाद में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने अपनी बेगम नूरजहां के साथ कश्मीर सहित अपनी सल्तनत के उत्तरी क्षेत्रों पर ध्यान दिया ।

जिन स्थानों को चुना गया था, वे झरनों और भरपूर पानी से घिरे पहाड़ के बहुत क़रीब थे। अपनी हुकुमत के दौरान जहांगीर गर्मियों में कश्मीर चले जाते थे। सन 1619 में उन्होंने वहां शालीमार के नाम से एक बाग़ बनाने की योजना बनाई। इसका नाम क़रीब के एक गांव के नाम पर रखा गया था। कहा जाता है, कि इस गांव का नाम संस्कृत भाषा के शब्द से बना था जिसका अर्थ है “मुहब्बत का मुक़ाम।” शालीमार बाग़ में नहरों में ताज़ा पानी बहता था, और रास्ते में चिनार के पेड़ होते थे। यही वजह है, कि जहांगीर की हुकुमत के दौरान तेरह बार से अधिक यहां ग्रीष्मकालीन दरबार लगा था। मशहूर डल झील के किनारे 31 एकड़ में फैले शालीमार बाग़ का नाम जहांगीर ने “फ़राह बख्श” रखा। ये बग़ल में तीन मंज़िलें बनी हुईं थीं,  जिनमें पानी की व्यवस्था थी। सन 1630 में पांचवें मुग़ल बादशाह शाहजहां (शासनकाल 1628-1658) के अनुरोध पर कश्मीर के सूबेदार ज़फ़र ख़ां ने इसका और विस्तार किया और इसका नाम ‘फ़ैज़ बख़्श’ रख दिया गया।

बाग़ के तीन हिस्से हैं, जिसका पहला हिस्सा निचली मंज़िल में ‘दीवान-ए-आम’ है, जो आम लोगों के लिये था और जहां पानी के फ़व्वारे होते थे। यहां जहांगीर अपना दरबार सजाया करते थे। इसके ऊपर एक काला तख़्त है, जहां से पानी बहता है। बाक़ी ऊपरी दो मंज़िलें ‘दीवान-ए-ख़ास’ का हिस्सा हुआ करती थीं, जहां बीच का हिस्सा शाही दरबारियों के लिये था। काले संगमरमर के मंडप वाला ऊपरी हिस्सा शाही बेगमों के लिए था।

यहां एक काले रंग का मंडप है, जो जहांगीर के दौर (1569-1627) की शुरुआत में बनवाया गया था। इसकी ऊपरी छत पर फ़ारसी भाषा में लिखा गया एक शिलालेख है। इसपर मशहूर शायर उर्फ़ी शिराज़ी की एक मशहूर पंक्ति लिखी हुई हैं, जो उन्होंने अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान लिखी थी। ये पंक्तियां कुछ इस तरह हैं-

“गर फ़िरदौस बर रू-ए-ज़मीं अस्त…हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त”

(धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं)

19वीं शताब्दी के मध्य तक यह बाग़ पहले सिख साम्राज्य और फिर डोगरा शासकों के क़ब्ज़े में चला गया। सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद, अब ये जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग के अधीन है।

शालीमार गार्डन, लाहौर

लाहौर के शालीमार बाग़ का नाम कैसे रखा गया, यह एक रहस्य बना हुआ है, क्योंकि इसके निर्माण के दौरान, इसका नाम शालीमार नहीं रखा गया था। कई दस्तावेज़ों में दावा किया जाता है, कि इसके कई नाम थे। बहादुर शाह-प्रथम (1707-1712) के शासनकाल के दौरान ख़फ़ी ख़ां (1664-1732) की लिखी किताब “मुंतख़ब अल-लुबाब” (1732) में इसका ज़िक्र शालीमार नाम से ही है।

लाहौर किले से सात किलोमीटर दूर, पाकिस्तान के लाहौर में स्थित शालीमार गार्डन सन 1641 में, जहांगीर के उत्तराधिकारी शाहजहां ने बनवाया था। 16 हेक्टेयर में फैले इस बाग़ को शाहजहां ने अपने पिता की तरह ही श्रीनगर के शालीमार बाग़ की तर्ज़ पर बनवाया था, जैसे दक्षिण से उत्तर की तरफ़, दो हिस्से बाग़-ए-फ़राह बख़्श और बाग़-ए-फ़ैज़ी बख्श को तीन तालों में बांटा गया था। यहां संगमरमर के झरने और केंद्रीय जल-धुरी है। बाग़ में पानी रावी नदी से आता था।

इसे बाक़ी शालीमार गार्डनों और अन्य मुग़ल गार्डन से जो विशिष्ट बनाती है वो है इसकी सबसे जटिल जल-व्यवस्था, जो बाग़ को ठंडा रखती है। इसकी दीवार के भीतर विभिन्न जलताल और मंडप हैं। एक छोटे-से सांसारिक स्वर्ग का आभास देने के लिए छतें एक चारदीवारी से घिरी हुईं थीं। इसके अलावा यहां कई अन्य इमारतें भी बनाईं गईं थीं, जैसे ख़्वाबगाह (बादशाह की बेगम का महल) और ऐवान (विशाल सभागार)।

कहा जाता है, कि एक बार औरंगज़ेब भी इस बाग़ में कुछ वक़्त के लिये ठहरा था। औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह, सन 1658 में लाहौर से मुल्तान भागा था, तब औरंगज़ेब (शासनकाल 1658-1707) उसका पीछा करते हुए यहां पहुंचा था।

19वीं शताब्दी में मुग़ल सल्तनत के पतन के बाद  सिखों ने इनमें से कई बाग़ों को नष्ट कर दिया और इनमें लगे क़ीमती पत्थरों का इस्तेमाल अपने भवनों और बाग़ों को सजाने के लिए किया। जब अंग्रेज़ आए, तो उन्होंने पिकनिक और पार्टियों के लिए इनकी कुछ मरम्मत करवाई। इमारतों का उपयोग प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए किया गया, और रेल्वे लाइन बिछाने के लिये कुछ हिस्सों को तोड़ दिया गया था। इसके लिये नूरजहां के मक़बरे के पूर्वी हिस्से को भी तोड़ा गया था।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहां सभाएं और रैलियां हुआ करती थीं। सन 1947 में आज़ादी और पाकिस्तान का हिस्सा बनने के बाद, सन 1981 में इसे यूनेस्को का हैरिटेज स्थल घोषित कर दिया गया।

शालीमार गार्डन, दिल्ली

उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के आलीशान और भीड़-भाड़ वाली कॉलोनियों के बीच स्थित शालीमार गार्डन को अज़ीज़-उन-निसा बेगम ने सन 1653 में बनवाया था, जो शाहजहाँ की पत्नियों में से एक थीं। इसका नाम उन्हीं के नाम पर ऐज़ाबाद रखा गया था। कहा जाता है, कि इसकी बनावट लाहौर के शालीमार बाग़ की ही तरह है। चारबाग़ शैली की तर्ज़ पर बने इस बाग़ में फूलों की क्यारियां और मशहूर शीश महल बनाया गया था। सभी भाइयों को हराने के बाद सन 1658 में छठे मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की ताजपोशी यहीं हुई थी।

शालीमार बाग़ 19वीं शताब्दी में दिल्ली पर राज करने वाले कई शासकों का पनाहगाह भी रहा जिसमें,सन 1738 में ईरानी हमलावर नादिर शाह (शासनकाल 1736-1747) भी शामिल था। नादिर शाह ने शहर में प्रवेश करने से पहले अपनी सेना के साथ यहां डेरा डाला था।

1803 में दिल्ली पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े के बाद मुग़ल दरबार में डेविड ऑक्टरलोनी और थॉमस मेटकॉफ़ जैसे अंग्रेज़ अफ़सरों ने शालीमार बाग़ को अपनी निजी संपत्ति का हिस्सा बनाया,  और बाग़ में बुर्ज तथा अन्य रिहाइशी भवन बनवा दिये। इनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं,  लेकिन ख़राब अवस्था में। कहा जाता है, कि यहीं पर डेविड ठंड के मौसम में बीमार पड़ गए थे जिसकी वजह से उनकी असामयिक मौत हो गई थी। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बावजूद इस बाग़ ने शाह आलम- द्वितीय, अकबर शाह- द्वितीय, और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुग़ल बादशाहों की मेज़बानी की थी, जो ख़ासकर वसंत के मौसम में यहां आकर रहा करते थे।

कहा जाता है कि ये बाग़ सन 1857 के विद्रोह का भी गवाह रहा है। आठ जून, सन 1857 को  हैदरपुर और शालीमार जैसे पड़ोसी गांवों के लोग ब्रिटिश सैनिकों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए बाग़ी सिपाहियों में शामिल हो गए थे। इस लड़ाई को “बादली की सराय” की लड़ाई के रूप में जाना जाता है। इस लड़ाई में अंग्रेज़ सेना की जीत हुई थी।

बाग़ में आज भी बुर्ज हैं जो छायादार पेड़ों से घिरे हुए हैं। भारत की आज़ादी के बाद, सन 1983 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने शीश महल और आसपास के स्मारक अपनी देखरेख में ले लिये थे और उनकी मरम्मत का काम हाल ही में शुरु हुआ है।

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