मध्य प्रदेश में ग्वालियर के क़िले में दो ऐसे मंदिर हैं जिनके नाम सुनकर आपको अजीब लगेगा। इन दो मंदिरों के नाम हैं सास और बहू मंदिर। स्थानीय गाइड आपको बताएँगे कि ये मंदिर एक सास और एक बहू ने बनवाये थे लेकिन सच्चाई ये है कि ये हैं सहस्त्र बाहु मंदिर जो विष्णु भगवान को समर्पित हैं और कई साल पुराने हैं। इनमें एक मंदिर बड़ा और एक मंदिर छोटा है। 11वीं शताब्दी के ये मंदिर स्थानीय कच्छपघता शासक ने बनवाए थे। हालंकि ये मंदिर अब जर्जर अवस्था में हैं लेकिन फिर भी इन्हें देखकर इनके सुनहरे काल का एहसास होता है।
ग्वालियर में विंध्याचल पर्वत श्रंखला पर स्थित ग्वालियर का क़िला भारत में सबसे भव्य क़िलों में से एक है। हालंकि क़िले के निर्माण काल से संबंधित कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है लेकिन स्थानीय लोक कथाओं के अनुसार ये क़िला तीसरी और पांचवी सदी के लगभग बना था। कहा जाता है कि इस क़िले की स्थापना एक मामूली से राजपूत सरदार सूरज सेन ने की थी। लोक कथा के अनुसार एक बार ग्वालिपा नाम का एक संत घूमता फिरता यहाँ पहुंच गया जहां उसकी भेंट सूरज सेन से हुई। सूरज सेन को कुष्ठ रोग था। संत ने एक पवित्र सरोवर (क़िले में जिसे अब सूरज कुंड कहा जाता है) के पानी से सूरज सेन को ठीक कर दिया। संत का आभार मानने के लिये राजा ने क़िले और शहर का नाम संत के नाम पर रख दिया।
इतिहास के अनुसार क़िले पर सबसे पहले छठी शताब्दी में हूण राजवंश का कब्ज़ा था। इस राजवंश के शासनकाल में क़िले में एक सूर्य मंदिर बनवाया गया था। मंदिर के अभिलेख से इसके इतिहास की जानकारी मिलती है। लेकिन इसके बाद अगली लगभग तीन शताब्दियों तक क़िले के इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। 9वीं शताब्दी से ग्वालियर कन्नौज साम्राज्य का हिस्सा था। तब यहां शक्तिशाली प्रतिहार राजा मिहिरा भोज ( 836-885) का शासन था। मध्य 8वीं शताब्दी से लेकर 11वीं शताब्दी तक उत्तर और दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्सों पर गुर्जर-प्रतिहार राजवंश का शासन होता था। इन्होंने पहले उज्जैन और फिर कन्नौज पर राज किया था।
10वीं शताब्दी के अंत में कछवाहा शासकों ने कन्नौज के प्रतिहार शासकों को हराकर इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद कछवाहों ने अगली दो सदियों तक ग्वालियर पर शासन किया। इस दौरान उन्होंने क्षेत्र की कला और संस्कृति को संरक्षण दिया। कछवाहों को पहले कच्छपघता कहा जाता था। वे पहले मध्य भारत में प्रतिहारों और चंदेलों के शासनकाल में जागीरदार हुआ करते थे। इन्होंने ग्वालियर, नरवर और दूबकुंड क्षेत्रों पर शासन किया था।
11वीं शताब्दी में कच्छपघता राजवंश के शासनकाल के दौरान ही क़िले में सास- बहू मंदिरों का निर्माण हुआ था। उत्तर भारत में, 10वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान मंदिर वास्तुकला के इतिहास का स्वर्णिम इतिहास रहा है। सास- बहू मंदिर क़िले की पूर्वी दीवार के पास स्थित हैं। क़िले की पूर्व दिशा में ही सूरज कुंड है। ये मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित हैं। कहा जाता है कि पहले इन मंदिरों को सहस्त्र बाहु अर्थात सौ हाथों वाले मंदिर कहा जाता था। मंदिर का मौजूदा नाम इसी नाम का बिगड़ा नाम है। कुछ स्थानीय किवदंतियों के अनुसार ये मंदिर राजा की पत्नी और बहू ने बनवाये थे इसलिये इनका नाम सास- बहू मंदिर पड़ गया।
इन दो मंदिरों में से बड़े ‘सास’ मंदिर के अभिलेख से मंदिर निर्माण की जानकारी मिलती है। संस्कृत भाषा में लिखे अभिलेख के अनुसार मंदिर निर्माण का कार्य सन 1092 में शुरु हुआ था और उसके अगले साल ग्वालियर के कछवाहा सरदार महीपाल ने इसे पूरा किया। अभिलेख के अनुसार ये मंदिर हरि (विष्णु) को समर्पित था। छोटा मंदिर (बहू ) भी विष्णु को समर्पित था। माना जाता है कि ये मंदिर भी उसी दौरान बना था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के जनक अलेक्ज़ेंडर कनिंघम अपनी रिपोर्ट (1862-1865) में कहते हैं कि उनके अनुसार छोटा मंदिर राजा की रानी अथवा परिवार के किसी अन्य सदस्य ने बनवाया होगा। कुछ लोगों का मानना है कि इन मंदिरों का संबंध जैन धर्म से है क्योंकि अभिलेख में पद्मनाथ का उल्लेख है। ये छठे जैन तीर्थंकर पद्मप्रभा थे। लेकिन विष्णु के कई नामों से पद्मनाथ भी एक नाम है जो कमल के भगवान माने जाते हैं। दोनों मंदिरों में मुख्य मूर्ति विष्णु की ही है।
हालंकि मंदिर के अब कुछ हिस्से ही बचे रह गए हैं लेकिन मंदिर की वास्तुकला और सजावट को देखकर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मंदिरों के सुनहरे दिनों में उनकी भव्यता कैसी रही होगी। सास मंदिर का गुंबद और गर्भगृह नष्ट हो चुके हैं। जो बचे रह गए हैं वो मंदिर में प्रवेश के लिये बने बरामदे और मंडप है। मंदिर क़रीब 10-12 फुट ऊंचे चबूतरे पर खड़ा है जिस पर सुंदर नक़्क़ाशी है। इस मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं जो तीन दिशाओं में हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और सरस्वती की छवियां बनी हुई हैं। मंदिर तीन अलग अलग मंज़िलों में बंटा हुआ है। लेकिन ऐसा माना जाता है कि आज मंदिर का जो भी बचाकुछा गुंबद है वो कभी इससे कहीं अधिक ऊंचा रहा होगा। बहू मंदिर शंख के आकार का है और ये एक मंज़िला है। इसके द्वार की चौखट बहुत अलंकृत है और दीवारों पर की गई नक़्क़ाशी हालंकि विकृत है लेकिन फिर भी बची ज़रुर रह गई है। बहू मंदिर के अवशेषों को देखकर लगता है कि ये मंदिर सास मंदिर का लघु रुप रहा होगा।
क़िले पर लगातार हमलों और युद्ध की वजह से मंदिरों को बहुत नुक़सान हुआ था। अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 13वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान जब दिल्ली सल्तनत के शासकों ने ग्वालियर पर कब्ज़ा किया था तब वे मंदिर को अपने आवास के रुप में इस्तेमाल करते थे और तब पूरे मंदिर में पलस्तर करवाया गया था। इस दौरान मंदिर में पूजा नहीं होती होगी। कनिंघम का ये भी कहना है कि 15वीं शताब्दी के मिले दो अभिलेखों से पता चलता है कि 15वीं शताब्दी में तोमर राजपूतों के शासनकाल के दौरान मंदिर में पूजा होती थी। तोमर राजपूतों ने यहां लगभग एक शताब्दी तक शासन किया था लेकिन सन 1516 में दिल्ली सल्तनत के लोदी राजवंश के इब्राहिम लोदी ने क़िले पर कब्ज़ा कर लिया था।
इसके बाद 16वीं शताब्दी में जब मुग़लों ने लोदी राजवंश का सफ़ाया कर दिया तो क़िले पर उनका कब्ज़ा हो गया। क़िले का इस्तेमाल जेल के रुप में भी किया जाता था। माना जाता है कि इन हमलों के दौरान ही मंदिरों को बहुत नुकसान पहुंचा था। मुग़ल बादशाह हुमांयू के निर्वासन के बाद क़िले पर सूरी शासक शेर शाह सूरी का कब्ज़ा हो गया था। शेर शाह सूरी के उत्तराधिकारियों ने इसे अपने साम्राज्य की राजधानी बना लिया था। सन 1559 में मुग़ल बादशाह अकबर ने ग्वालियर पर फिर कब्ज़ा कर लिया और इस तरह 18वीं शताब्दी तक इस पर मुग़लों का शासन रहा। सन 1755 में मराठों ने क़िले पर फ़तह हासिल की। 18वीं शताब्दी में पेशवाओं ने ये क़िला महादजी सिंधिया को सौंप दिया और इस तरह क़िले के साथ सिंधिया शाही घराने का रिश्ता क़ायम हुआ। 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ों ने सिंधिया को हराकर क़िला अपने नियंत्रण में ले लिया। उन्होंने ग्वालियर को अंग्रेज़ साम्राज्य की एक रियासत बना दिया।
कनिंघम के अनुसार 19वीं शताब्दी की ज़्यादातर अवधि में सास-बहू मंदिरों में पूजा नहीं होती थी और ये वीरान रहते थे। ख़ज़ाने की तलाश में सास मंदिर के बाहरी दालान को खोदा भी गया था। कनिंघम ने मंदिर के कुछ हिस्सों की मरम्मत करवाई थी। क़िले पर सन 1886 तक अंग्रेज़ों का कब्ज़ा रहा। इसके बाद इसे सिंधिया को सौंप दिया गया। तब से लेकर सन 1948 तक ये सिंधिया परिवार के पास रहा। सन 1948 में नया राज्य, मध्य भारत बना । जो बाद में यानी सन 1956 में मध्य प्रदेश में विलय हो गया।
सास-बहू मंदिर में आज बड़ी संख्या में श्रद्धालु और सैलानी आते हैं। मंदिर हालंकि क्षतिग्रस्त हैं लेकिन फिर भी मंदिरों के सुंदर अवशेष देखने लायक़ हैं।
मुख्य चित्र: सास बहू का बड़ा (सास) मंदिर – ब्रिटिश लाइब्रेरी
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