सारनाथ: जहां बुद्ध बोले

सारनाथ बौद्ध लोगों के सबसे ज़्यादा पवित्र स्थलों में से एक है। ये वही जगह है जहां गौतम बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश दिया था। तब से लेकर 12वीं ई. तक यानी क़रीब 17 सौ साल तक ये बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों के लिये ज्ञान और तीर्थयात्रा का स्थल रहा।

सारनाथ उत्तर प्रदेश के शहर वाराणसी से उत्तर पूर्व की तरफ़ दस कि.मी. दूर स्थित है जहां गंगा और वरुण नदियों मिलती हैं। आरंभिक बौद्ध पाली ग्रंथों में इसका प्राचीन नाम इसिपतन और मृगदाव मिलता है। मृगदाव का अर्थ हिरणों का वन होता है और इसिपतन या ऋषिपतन से तात्पर्य ‘ऋषि का पतन’ से है जिसका आशय है वह स्थान जहाँ किसी एक बुद्ध ने गौतम बुद्ध भावी संबोधि को जानकर निर्वाण प्राप्त किया था। एक किवदंती के अनुसार एक बार एक राजा हिरण का शिकार कर रहा था तभी एक बोधिसत्व ने हिरण का भेस धारकर उस मादा हिरण की जान बचाली जिसे राजा मारना चाहता था। राजा बोधिसत्व के बलिदान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने हिरणों के लियेअभ्यारण्य बना दिया।

आधुनिक नाम ‘सारनाथ’ का सम्बंध भी हिरण से है। सारनाथ शब्द की उत्पत्ति भी ‘सारंगनाथ’ यानी मृगों के नाथ से हुई। ये दरअसल भगवान शिव का ही नाम है। अक्सर शिव की मूर्ति में आप उन्हें बाएं हाथ में हिरण को थामें देख सकते हैं। सारनाथ में एक टीले पर एक आधुनिक महादेव यानी शिव मंदिर भी देखा जा सकता है।

दिलचस्प बात ये है कि बुद्ध ने छठी शताब्दी में बोध गया में बोधी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त होने के बाद इसी अभ्यारण्य में अपना पहला धर्मोपदेश दिया था। यह वही डीयर पार्क वहब जगह है। जिसका एक हिस्साआज भी सारनाथ के पुरातत्व परिसर के क़रीब मौजूद है।

लेकिन सवाल ये है कि बुद्ध ने अपने पहले धर्मोपदेश के लिये सारनाथ को ही क्यों चुना? बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जब बुद्ध सन्यास लेकर यात्रा पर निकल पड़े थे तब उनके साथ पांच लोग थे जो बीच में उनका साथ छोड़कर चले गए थे। बाद में ये पांचों लोग सारनाथ पहुंच गए थे। जब बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई तो उन्होंने सोचा कि इसके बारे में उन्हें सबसे पहले इन पांचों लोगों को बताना चाहिये। इस तरह वह सारनाथ पहुंच गये जहां उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश दिया। उनके पहले धर्मोपदेश को धर्मचक्र परिवर्तन सूत्र कहा जाता है।

ये सूत्र बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण उपदेशों में से एक माना जाता है। इसी सूत्र के ज़रिये बुद्ध ने जीवन के चार सत्य और उससे जुड़ी शिक्षा के बारे में बताया था। पहला सत्य ये है कि दुनिया में दुख है, दूसरा सत्य दुख की उत्पत्ति और इसका कारण है, तीसरा सत्य दुख का निवारण है और चौथा सत्य आर्य-अष्ठांगिक मार्ग है जिससे दुख का अंत होता है, शांति मिलती है, ज्ञान प्राप्त होता है और अंतत: निर्वाण प्राप्त होता है।

कई इतिहासकारों का मानना है कि बुद्ध ने सारनाथ को इसलिये चुना था क्योंकि ये वाराणसी के क़रीब था जो उस समय ज्ञान प्राप्त करने का एक प्रमुख केंद्र था। यहां बुद्ध को अन्य ज्ञानी विद्वानों से विचार-विमर्श करने और वैदिक रुढ़िवाद को अपने ज्ञान से समाप्त करने का मौक़ा मिलता। बाद में सारनाथ इसलिये भी पनपा क्योंकि सभी राजा और बनारस स्थित धनवान व्यापारी बौद्ध धर्म को प्रश्रय देने लगे थे।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार सारनाथ में बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ स्थापित किया था। बनारस के एक धनवान व्यक्ति का पुत्र यासा बुद्ध के प्रवचनों से इतना प्रभावित हो गया था कि वह अपने 54 मित्रों के साथ बुद्ध का अनुयायी बन गया था। बुद्ध ने इन साठ लोगों का पहला संघ बनाया था। इनमें वो पांच भिक्षु भी शामिल थे जो बुद्ध के साथ सन्यास के समय यात्रा पर निकले थे। संघ बनाने के बाद बुद्ध ने इन साठों भिक्षुओं को धर्म के प्रचार के लिये अलग-अलग दिशाओं में रवाना किया था।

आज सारनाथ में जो कुछ नज़र आता है वो सम्राट अशोक ने तीसरी ई.पू. शताब्दी में बनवाया था। अशोक ने कलिंग-युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपना लिया था और उसने सारनाथ में कई स्मारक बनवाए थे। धर्मराजिका स्तूप इन्हीं स्मारकों में से एक है जिसके ऊपर एक विशाल कठघरा है।

अशोक ने एक विशाल स्तंभ भी बनवाया था जिसके ऊपर शेर और धर्मचक्र बना हुआ था। शेर और धर्मचक्र को बाद में भारत ने अपने राष्ट्र-चिन्ह के रूप में अपना लिया था। इस स्तंभ पर अशोक ने ब्रह्मी लिपी में एक आदेश लिखवाया था। इस आदेश में सम्राट ने भिक्षुओं और भिक्षुणियों को संघ में फूट डालने के ख़िलाफ़ चेताया था।

सारनाथ में आज जो स्तूप है वो धमेख स्तूप है जो संभवत: अशोक के समय का ही है। यहां खुदाई में मुख्य मंदिर के पास बारह से ज़्यादा कठघरे वाले स्तंभ मिले थे जो प्रथम ई.पू. शताब्दी के हैं और जिन्हें शायद शुंग शासकों ने बनवाया था। आज अगर आप धमेख स्तूप को देखें तो पाएंगे कि इसके मध्य में आठ आले हैं जहां कभी मूर्तियां रखी होंगी। इन आलों के ठीक नीचे नक़्क़ाशी है और पक्षी तथा मानव की छवियां बनी हुई हैं।

प्रथम शताब्दी में सारनाथ पर कुषाण शासकों का शासन हो गया था। उन्होंने भी यहां कई नये स्मारक बनवाए। कुषाण शासक कनिष्क के शासनकाल के तीसरे साल में मथुरा की एक भिक्षु बाला ने बलुआ पत्थर की एक विशाल बोधिसत्व छवि स्थापित की थी। इसी समय अशोक स्तंभ पर नये अभिलेख भी लिखे गए। दूसरे अभिलेख में अश्वघोष के 40वें वर्ष का ज़िक्र है। अश्वघोष कौशांबी का शासक था जिसका बनारस और सरानाथ पर भी शासन था। प्रारंभिक गुप्त लिपि में लिखे तीसरे अभिलेख में सम्मितिया स्कूल के शिक्षकों का उल्लेख है। ये स्कूल आरंभिक बौद्ध स्कूलों में से एक था। दुर्भाग्य से ये स्तंभ अब टूट चुका है। इसके कुछ हिस्से सारनाथ संग्रहालय में हैं जबकि बाक़ी हिस्से अभी भी उसी स्थल पर हैं जहां स्तंभ हुआ करता था।

गुप्त शासनकाल में सारनाथ में कला और उससे संबंधित अनेक गतिविधियां हुईं। चीनी भिक्षु फा-हियान चंद्रगुप्त द्वतीय (सन 390) के समय सारनाथ आया था। उसके अनुसार तब सारनाथ में चार स्तूप और दो मठ हुआ करते थे। धर्मराजिका स्तूप बड़ा था जबकि धमेख स्तूप पर फूलों की नक़्क़ाशी थी।गुप्त-साम्राज्य हूणों के लगातार हमले से कमज़ोर होता चला गया और इसका असर सारनाथ पर भी देखा जा सकता है। हूणों ने सरानाथ में स्मारकों और मूर्तियों को नष्ट कर दिया था।

गुप्त के बाद उत्तर भारत पर वर्धन राजवंश का शासन हो गया था। 7वीं शताब्दी में वर्धन शासक हर्षवर्धन ने सारनाथ में मरम्मत का काम शुरु करवाया। हर्षवर्धन के शासनकाल में चीनी भिक्षु ह्वेन त्सांग भारत आया था।

उसने लिखा कि धर्मराजिका स्तूप और अशोक स्तंभ शीशे की तरह चमकते हैं। स्तूप और स्तंभ का वर्णन करते समय वह शायद प्रसिद्ध मौर्य पॉलिश का ज़िक्र कर रहा होगा। उसने ये भी लिखा कि मठ में 1500 भिक्षु रहते थे और मुख्य मंदिर में बुद्ध की चक्र घुमाते लोहे की एक विशाल प्रतिमा है।

पाल राजाओं के शासनकाल में भी सारनाथ पनपता रहा लेकिन सन 1017 में जब मोहम्मद ग़ज़नी ने बनारस पर हमला किया तब सारनाथ के स्मारक कोभी उससे नुक़सान पहुंचा।

इसके बाद सारनाथ को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई। सारनाथ में अंतिम स्मारक 12वीं शताब्दी में बनवाया गया। गहड़वाल वंश के शासक गोविंद चरण (1114-1134) ने ख़ुद को कन्नौज, अयोध्या और बनारस का राजा घोषित कर दिया था। उसकी रानी कुमारादेवी बौद्ध थीं और उसने सारनाथ में धर्मचक्र-जीना-विहार नाम से एक विशाल मठ बनवाया था। गहड़वाल राजवंश का मौजूदा समय के उत्तर प्रदेश और बिहार के ज़्यादातर हिस्सों पर शासन हुआ करता था।

सारनाथ में ईंट का एक अन्य स्मारक भी है चौखंडी स्तूप। ईंटों से बना ये स्तूप ऊंचा है और इसका बुर्ज अष्टकोणीय है। दिलचस्प बात ये है कि अष्टकोणीय बुर्ज मुग़ल स्मारक है जो अकबर के दरबार के सूबेदार राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्धन ने सन 1588 में बनवाया था। यहां हुमांयू भी आया था और उसी की स्मृति में ये स्मारक बनवाया गया था।

आज सारनाथ में मलबों का ढ़ेर ही रह गया है। एक, विशेष रूप से, उल्लेखनीय है। आप माने न माने लेकिन धर्मराजिका स्तूप को बनारस के राजा छेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने गिरवा दिया था क्योंकि वह अपने नाम का एक बाज़ार बनवाना चाहता था जिसके लिये उसे पत्थरों और ईंटों की ज़रुरत थी।

सन 1815 में भारत के पहले सर्वेक्षक जनरल, कर्नल कॉलिन मैक्केंज़ी ने सही तरीक़े से पहली बार सारनाथ में खुदवाई करवाई थी। मैक्केंज़ी ने कर्नाटक में हंपी में भी खुदवाई करवाई थी। सारनाथ में खुदाई के दौरान उसके साथ भारतीय पुरात्तव विभाग के जनक एलेक्जेंडर कनिंघम भी थे। खुदाई में कनिंघम को एक बॉक्स मिला जो स्मृति चिन्ह था। ये बॉक्स शायद जगत सिंह के मज़दूरों से छिटक गया होगा। बलुआ पत्थर के गोलाकार बॉक्स के अंदर संगमरमर का बेलनाकार बॉक्स था जिसमें अस्थियां, सोने और चांदी के आभूषण, मोती और रुबी थे। कनिंघम ने बाद में ये बॉक्स बंगाल एशियेटिक सोसाइटी को उपहार में दे दिया।

सारनाथ में आख़िरी बार खुदाई दयाराम साहनी ने सन 1921-22 में करवाई थी। खुदाई के दौरान मूर्तियां, पत्थरों की छतरियां और अन्य चीज़ें मिली थीं जो सारनाथ संग्रहालय में रखी हुई हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग ने मूल स्थान की टेराकोटा की नक़ल स्थापित की है जिससे ये अंदाज़ा लग सकता है कि यह स्थान सैकड़ों साल पहले कैसा लगता होगा।

धर्मराजिका स्तूप, धमेख स्तूप, अशोक स्तंभ और मठों के अवशेष बौद्ध धर्म के क्रमिक विकास को दर्शाते हैं।सारनाथ भारत में बौद्ध विश्व का सही मायने में एक संपूर्ण संसार है जहां से सारा बौद्ध जगत प्रकाशमान होता है।

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