सांभर झील: नमक भी, सौन्दर्य की मिठास भी!

‘‘या शताक्षी स्मृता देवी, सैव शाकम्भरी मता,

सैव प्रर्कीतिता दुर्गा व्यक्तिरेकैव त्रिष्वपि,,

चौहन वंश की कुल देवी शाकम्भरी के आर्शीवाद से ही राजस्थान के मध्य में शाकम्भर (सांभर) नामक नगरी बसाई गई थी। इस देवी को शताक्षी, शाकम्भरी एवं दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। आईये आज आपको इस मुख्य शक्तिपीठ की पौराणिक व धार्मिक एवं ऐतिहासिक यात्रा पर लिए चलते हैं।

शाकम्भरी देवी:-

शाकम्भरी देवी का अति-प्राचीन मंदिर नमक की नगरी नावां से 15 कि.मी.,पौराणिक नगरी सांभर से 25 कि.मी.और मुख्य रेल्वे जंक्शन फूलेरा से 30 कि.मी. दूर अरावली पहाड़ी की तलहटी और नमक की विशाल झील के किनारे पर स्थित है। शाकम्भरी देवी का सबसे प्राचीन मंदिर इसी जगह पर बना हुआ है। इसे सिद्ध पीठ भी कहा जाता है। सिद्ध पीठ होना ही इसके महत्त्व को दर्शाता है। शोधार्थी डॉ. अनीता जैन ने अपने शोध-पत्र में लिखा है, कि शाकम्भरी देवी की प्राचीन प्रतिमा भू-गर्भ से स्वतः आविर्भूत हुई थी जिसका उल्लेख दुर्गासप्तशती के अध्याय 11 में लिखा हुआ है। इसमें देवी के तीन रूप शताक्षी, शाकम्भरी एवं दुर्गा के अयोनिजा स्वरूप का वर्णन है।

‘‘मुनिभिः संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा” मैं पृथ्वी पर अयोनिजा स्वरूप में प्रकट होऊँगी, और सौ नेत्रों से मुनियों को देखूँगी एवं सभी मनुष्य ‘शताक्षी’ इस नाम से मेरा कीर्तन करेगें। उस समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों (वनस्पतियों) द्वारा समस्त संसार का भर पोषण करूँगी। ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर ‘शाकम्भरी’ नाम से मेरी ख्याति होगी। ‘‘शाकैः प्रजाः भरति रक्षति वा”

 

दुर्गभ नामक महादैत्य का वध करने के कारण शाकम्भरी देवी का एक रूप दुर्गा देवी भी प्रसिद्ध है। अनन्त नेत्र समन्वित रूप धारण करने के कारण शताक्षी के नाम से भी जाना गया। 16वीं शताब्दी के ऐतिहासिक महाकाव्य ‘सुर्जनचरितम्’ में चौहान वंशीय राजाओं की आराध्य देवी के रूप में देवी की भावमयी आराधना और भव्य मंदिर का वर्णन भी मिलता है। विशाल झील और बरसाती नदी के तट पर स्थित वह प्राचीन मंदिर मणिजड़ित स्वर्ण से निर्मित है। यहां हीरे-मोती, श्वेतछत्र, नीलम आदि रत्नों से निर्मित तोरण का भी इसमें चित्रण किया गया है। मंदिर की दीवार पर देवी के हाथों के निशान, चंदन अपनी तीखी सुगंध से भौंरा को नशे में डुबा रही है। मंदिर में लोक परम्परा के गीत, मेले आदि के अवसरों पर गाये जाते हैं, जिसमें देवी के विभिन्न स्वरूपों का बोध होता है।

‘‘कुसुम कुंज की कोमल कलिके, मात भवानि तुम्हे प्रणाम,

सागर मध्ये डूगरवासिनी, माँ शाकस्भरि तुम्हे प्रणाम,,

चौहान वंश:-

छठी और सातवीं शताब्दी (ईसवी) के बीच गुप्त तथा मौखरी वर्द्धन साम्राज्य की समाप्ती के बाद उत्तरी भारत में राजपूतों के जो विभिन्न स्वतन्त्र राज्य स्थापित हुए, उनमें चौहानों का राज्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अलावा नागौर से भी नाग-सत्ता काअंत हो गया था। इन्हें बेदख़ल कर इस क्षेत्र पर चौहान शासकों ने अपना अधिकार जमा लिया था। पृथ्वीराज विजय काव्य, शब्द कल्पद्रुम कोष आदि में चाहमानों के निवास स्थल के संबंध में जांगल देश के अलावा अहिछत्रपुर और सपादलक्ष आदि स्थानों को माना है।

इतिहासकार डॉ.गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, चौहानों का प्रमुख भाग सपादलक्ष (सांभर) क्षेत्र था। रियासती काल में जोधपुर राज्य का नागौर परगना सपादलक्ष या श्वालक कहलाता था। सांभर झील, जिसे   संस्कृत लेखों में शांकभरी कहा जाता है, के आस-पास का क्षेत्र इसी नाम से प्रसिद्ध था। यहाँ का प्रवर्तक वसुदेव चौहान था। इनके वंशजों ने सांभर या शांकभरी क्षेत्र में अपनी राजधानी स्थापित की थी। बाद में जहां-जहां तक सांभरिये चौहानों का राज्य विस्तृत हुआ, वहां-वहां का क्षेत्र सपादलक्ष में गिना जाने लगा। नागौर और अजमेर का भू-भाग सपादलक्ष का पूरक भाग था। जयपुर और जोधपुर के संयुक्त प्रशासन के समय सांभर का क्षेत्र शामलात के नाम से भी जाना जाता था।

चौहानों की उत्पत्ति के बारे में चंदबरदाई कृत्त पृथ्वीराज रासों के अनुसार ऋषियों ने आबू में यज्ञ को सुरक्षित रखने के लिए चार पुरूषों को अग्निकुण्ड से उत्पन्न किया उनमें से एक चाहमान (चौहान) थे। सोमेश्वर के बिजोलिया अभिलेख सन1169 में चाहमानों का आदि पुरूष वासुदेव को बताया गया है। इनका समय सन 551 के लगभग अनुमानित किया जाता है। इसी लेख में नृप शब्द के बाद उसके उत्तराधिकारी के रूप में क्रमशः नरदेव, जयराज, विग्रहराज प्रथम, दुर्लभराज ,चंदनराज प्रथम और गोपेन्द्रराज अजयराज, अर्नोराज हुए थे। जिस शक्ति कीशुरूआत वासुदेव के काल से  हुई थी। वह शक्ति पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र अजयराज के समय में मज़बूत हो गयी।

सांभर के चौहान सिंहराज के अनुज लक्ष्मण ने सन 960 में नाडोल (पाली) क्षेत्र में अपना नया राज्य स्थापित किया। माणकराव ने सन 1111 में नागौर के पास जायल क्षेत्र में राज्य स्थापित किया जिसे खींची शाखा का प्रवर्तक माना जाता है। चौहान वंश के शासक अजयराज ने सन1113 में  अजयमेरु नगर  (अजमेर) की स्थापना करके इसे अपनी राजधानी बनाया एवं अजयमेरु दुर्ग की नींव रखी थी। मालवा के शासक नरवर्मन को पराजित कर अपने व रानी के नाम से सिक्के भी जारी किये थे। इनके बादअर्णोराज ने अर्णोसागर झील बनवाई तथा सिंधु सरस्वती (पूर्व पंजाब) क्षेत्र पर अधिकार किया। ढिल्लिका (दिल्ली) के तोमर शासक को भी हराया था। पुष्कर में भगवान वराह का मंदिर भी बनवाया था।

 

सांभर झील:-

खारे पानी के लिए देश-विदेश में अपनी पहचान रखने वाली यह झील जयपुर, अजमेर और नागौर ज़िला सीमा क्षेत्र के 7500 वर्ग कि.मी. कैचमेंट एरिया में फैली हुई हैं। इस झील में मुख्य रूप से खारडिया, मेंढा, रूपनगढ़, खारेन, खंडेल और तुरतमती सहित अन्य कई बरसाती छोटे नदी-नालों का पानी आता है। इस झील को रामसर नम क्षेत्र भी घोषित किया हुआ है। हिन्दुस्तान साल्ट लिमिटेड के पास ज़मीन का स्वामित्व है। यहां से 1 लाख 96 हज़ार टन नमक प्रतिवर्ष तैयार होता है। चौहान काल में इस झील के किनारे पर बसा नगर उत्तरी भारत का प्रमुख नगर बन गया था। हर्षनाथ मंदिर (सीकर) के शिला-लेख के अनुसार सांभर के व्यापारी एक नमक की ढेरी के पीछे एक विशोपक (तांबे के सिक्के) और एक घोड़े के पीछे एक द्रम (सिक्के) हर्ष मंदिर के लिए भेट देते थे। मुग़ल काल में शासक और जनता के लिए आय का प्रमुख स्त्रोत रही है।

लेखक मोतीराम प्रजापत चौसला बताते हैं, कि भारत में नमक उत्पादन और वितरण पर लम्बे समय तक अंग्रेज़ों का एकाधिकार रहा था। सन1835 में ब्रिटिश सरकार ने एक संधि के ज़रिए सांभर झील का कारोबार अपने ज़िम्मे ले लिया था। सन 1870 तक सम्पूर्ण झील पर एकाधिकार कर यहां बनने वाला नमक इंग्लैड पहुंचने लगा था। वही नमक प़ॉलिश हो करके वापस भारत लाया जाता था। जनता को वही इस्तेमाल करना पड़ता था। जबकि उस परकई गुना ‘कर’ चुकाना पड़ता था। इस कर से मुक्ति दिलाने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह और दांडी यात्रा की थी।

साहित्यकार मनोज गंगवाल बताते हैं, कि झील का यह क्षेत्र चट्टानों से भरा हुआ है, जिनमें चूने के पत्थर बहुतायत में मिलते हैं। इन्हीं चट्टानों को पिघला कर नमक तैयार किया जाता हैं। यहीं से लुनी नदी का उद्गम माना गया है। इसी झील से पूरे देश को 14 प्रतिशत नमक की पूर्ति की जाती है। यहां लगभग एक हज़ार से अधिक वर्षों से नमक का उत्पादन किया जा रहा है। यहां म्यार, पेन, रेस्टा एवं आयोडीन युक्त नमक की क़िस्में रही हैं। इस नमक के कारण नावां क्षेत्र में कई उद्योग स्थापित हुए हैं। यहां का नमक समुद्री जल से उत्पादित नमक से कई गुना क्षारयुक्त है। यह नमक श्वेत, गुलाबी और सलेटी रंग में होता है। यहां की निर्मित पोटरी भी कुशल कारीगरों की कुशलता का प्रमाण है। जोधपुर के राजकीय संग्रहालय में नमक से निर्मित अद्भूत उपकरण और सामग्री आज भी मौजूद है। इसी सांभर झील के किनारे से नव पाषाण युगीन सामग्री के अलावा शुंग, कुषाण, गुप्त, प्रतिहार और चौहान काल के पुरातत्व अवशेष भी मिलेहैं। यहीं के नलियासर से कुषाण शासक हुविष्क की मुद्रा भी प्राप्त हुई है। इनका शासन काल सन95 से सन127 के बीच माना जाता है। सांभर झील के किनारे एक टीले की खुदाई में मानव बस्ती के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। यहाँ से यौधेयों (प्राचीन काल का एक देश) की छोटी मुहर के अलावा अन्य कई प्रकार की मुद्राएं, पशु, पक्षियों, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई थी। ख़ासतौर पर घरों में खुले आंगन, कमरे, खिड़कियां, दरवाज़े और रोशनदान आदि का प्रावधान था। इस झील में परदेसी परिंदों, यूरोपीय देशों से आने वाले फ्लेमिंगो सहित अन्य पक्षीयों के कारण चार चांद लग जाते है। दूर-दूर तक फैले पानी में अठखेलियां करते पक्षी झील का सौंदर्य बढ़ाते हैं। यहां नमक, पक्षी और पर्यावरण के साथ स्थानीय लोगों को रोज़गार भी मिलता है। इस झील क्षेत्र में कई फ़िल्मों, धारावाहिकों और गानों की एलबमों की शूटिंग भी हो चुकी है।  चौहान शासक वासुदेव ने अपनी कठोर साधना के फलस्वरुप देवी शाकंभरी की कृपा से ही मरुभूमि में अपना राज्य स्थापित किया था। यहां पर झील खुदवाकर शाकंभर नाम रखा गया। कुलदेवी के नाम पर ही चौहान सम्राट शाकंभरी स्वर नाम से प्रख्यात हुए। कालांतर में शाकंभर शब्द बदलकर सांभर हो गया।

झील के पास स्थित अरावली की देवगिरी नामक पहाड़ी पर देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है, यहां प्रतिवर्ष नवरात्रा व भादवा सुदी अष्टमी को भव्य मेला लगता है। सांभर के इस क्षेत्र पर देवी शाकंभरी की अनुपम कृपा से चौहान राजवंश की स्थापना हुई थी। संक्षिप्त देवी भागवत के सप्तम स्कंध में जगदंबा के दुर्गा शताक्षी और शाकंभरी का विवेचन मिलता है। जब देवताओं द्वारा देवी जगदंबा की आराधना करने से भगवती ने अपनी अनंत आंखों से संपन्न दिव्य रूप में दर्शन दिए। देवी ने अपने नेत्रों से जल धाराएं गिराई जिससे समस्त नदी नाले पानी से भर गए तब देवताओं और ब्राह्मणों ने देवी को शताक्षी नाम से संबोधित किया। जब सब जगह पानी से फल फूल शाक आदि की पूर्ति हुई और संसार का भरण पोषण हुआ तो जगदंबा शाकंभरी नाम से प्रसिद्ध हुई। मार्कंडेय  व वामन पुराण में भी देवी के शाकंभरी का नामकरण यही कारण बताया गया है। राजस्थान के सांभर झील में चौहान वंश की कुलदेवी शाकंभरी माता का प्राचीन मंदिर जन आस्था का मुख्य स्थल है। पुजारी गौरीशंकर राजू पंडित के अनुसार मंदिर में विक्रम संवत 847 का शिलालेख भी अंकित किया हुआ है।

पूरे भारत में शाकंभरी देवी के तीन प्रमुख मंदिर सांभर झील, उदयपुर वाटी राजस्थान, सहारनपुर उत्तर प्रदेश में स्थित है। सांभर झील  पर्यटन, पुरातत्व ,नमक व फिल्म उद्योग के साथ साथ विदेशी पक्षियों की शरण स्थली भी बनी हुई है। दूर-दराज क्षेत्र से भक्तजन देवी के दर्शनार्थ हेतु पहुंचते हैं। यहां का मनोरम दृश्य बहुत सुंदर नजर आता है, इससे यह राज्य का प्रमुख मुख्य धार्मिक पर्यटक स्थल बन गया है।

हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com