दिल्ली का लाल क़िला सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध स्मारकों में से एक है लेकिन क्या आपको पता है कि इस क़िले से लगा एक और छोटा सा क़िला है जो लाल क़िले से भी पहले का है? इसे सलीमगढ़ क़िला कहते हैं। सूरी शासक सलीम शाह सूरी ने यह क़िला मुग़ल बादशाह हुमांयू की सेना से रक्षा के लिये सन 1546 में बनवाया था। ये क़िला आज लाल क़िले के परिसर का एक हिस्सा है और यह दिल्ली में उस समय हो रही सियासी उठापटक का गवाह रहा है। ये आज़ादी की लड़ाई का भी प्रतीक है क्योंकि उस दौरान इस क़िले का इस्तेमाल जेल के रुप में भी किया गया था। आईये जानते हैं इसकी कहानी।
16वीं शताब्दी में दिल्ली में कई राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे। मुग़लों ने दिल्ली की अंतिम सल्तनत लोदी राजवंश (1451-1526) को उखाड़ फेंका था और इस तरह भारत में मुग़ल शासन की शुरुआत हुई थी। मध्य एशिया के तुर्क-मंगोल राजकुमार बाबर जब उज़बेकिस्तान में समरक़ंद को फ़तह करने में नाकाम रहा तो उसने भारत की तरफ़ रुख़ किया। उसने भारत पर हमला कर अंतिम लोदी सुल्तान इब्राहिम लोदी को सन 1526 के पानीपत के पहले युद्ध में हरा दिया। इस तरह भारत में बाबर के साथ मुग़ल साम्राज्य की शुरुआत हुई।
उत्तर भारत में अपना दबदबा क़ायम करने के बाद जल्द ही सन 1530 में आगरा में बाबर की मृत्यु हो गई। बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमांयू (1530-1555) सन 1530 में उसका उत्तराधकारी बना। उस समय हुमांयू की उम्र 22 साल की थी और हाल ही में स्थापित मुग़ल साम्राज्य को चलाने में उसे कई दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा था। हुमांयू ने सन 1533 के क़रीब एक शहर दीनपनाह (जो आज के समय के अनुसार मथुरा रोड के आसपास था) की नींव डाली। आज जिसे हम पुराना क़िला कहते है वो तब शहर का भीतरी नगरकोट हुआ करता था।
तख़्तनशीं होने के कुछ समय बाद ही हुमांयू को सूरी शासन के संस्थापक शेर शाह सूरी से चुनौतियां मिलने लगीं। शेर शाह सूरी का असली नाम फ़रीद ख़ान था जो पहले लोदी सेना में रह चुका था। लोदियों की सत्ता पर पकड़ कमज़ोर थी और शेर शाह सूरी जैसे कई महत्वाकांक्षी अफ़ग़ान ने इसका फ़ायदा उठाकर छोटे छोटे क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा किया। सन 1526 में जब बाबर ने इब्राहिम लोधी को हराया तब शेर शाह सूरी ने अपनी सत्ता पर पकड़ मज़बूत कर ली थी और अपना साम्राज्य पूर्व में बंगाल तक बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। शेर शाह सूरी दो बार अलग अलग युद्धों में बाबर को हराने के बाद आख़िरकार अपना दबदबा क़ायम करने में सफल रहा। सन 1530 के दशक में गुजरात में हुमांयू की सैन्य मुहिम के फ़ौरन बाद शेर शाह सूरी को मुग़लों से आगरा छीनने का मौक़ा हाथ लगा। शेर शाह सूरी सन 1539 में चौसा और फिर सन 1540 में कन्नौज के युद्ध में हुमांयू को हराने में कामयाब हो गया। हार के बाद हुमांयू ने भारत छोड़कर ईरान में सफ़ाविद साम्राज्य में पनाह ले ली जहां वह 15 साल तक रहा। शेर शाह सूरी ने मुग़लों द्वारा जीते गए क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया और सन 1545 तक अपनी मृत्य तक इन पर राज किया।
शेर शाह सूरी की मृत्यु के बाद सन 1545 में उसका दूसरा पुत्र इस्लाम शाह सूरी राजगद्दी पर बैठा। इस्लाम शाह सूरी को सलीम शाह भी कहा जाता था। इस्लाम शाह ने अपने पिता शेर शाह सूरी के साथ कई युद्ध लड़े थे। इस्लाम शाह ने सन 1540 के दशक के अगले कुछ वर्षों में हुमांयू के हमलों से रक्षा के लिये दिल्ली में एक क़िला बनवाना शुरु किया। ये क़िला था सलीमगढ़ क़िला। चूंकि इस क़िले का मक़सद बाहरी आक्रमण से रक्षा करना था इसलिये इस बात को ध्यान में रखते हुए क़िले के लिये जगह का चुनाव किया गया। क़िले के एक तरफ़ यमुना नदी और दूसरी तरफ़ अरावली पर्वत श्रंखला थी। कुछ स्रोतों के अनुसार क़िला बनवाने में चार लाख रुपये ख़र्च हुए थे। क़िले का निर्माण कार्य पांच साल में पूरा हुआ। क़िले में 16 बुर्ज होने थे और इसका मक़सद यमुना नदी के कटाव से रक्षा करना भी था लेकिन क़िला बनने के पहले ही 1555 में इस्लाम शाह की मृत्यु हो गई।
उसी साल हुमांयू ईरान से भारत लौटा। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद सूरी शासन कमज़ोर हो गया था और भीतर सत्ता संघर्ष भी चल रहा था। इस बीच हुमांयू पंजाब में सरहिंद की तरफ़ बढ़ा। सन 1555 के सरहिंद के युद्ध में हुमांयू ने छठे सूरी शासक सिकंदर शाह सूरी की सेना को हराकर फिर से मुग़ल साम्राज्य स्थापित कर दिया। उसने सलीमगढ़ क़िले पर कब्ज़ा कर लिया और कहा जाता है कि उसने इसका नाम नूरगढ़ रख दिया था। यह भी कहा जाता है कि सन 1555 में दिल्ली पर फिर कब्ज़ा करने के पहले हुमांयू कुछ दिनों तक इस क़िले में रहा था। हुमांयू के साथ ही इस क़िले के संग मुग़लों के एक लंबे रिश्ते की शुरुआत हुई।
कहा जाता है कि हुमांयू के पुत्र और उत्तराधिकारी अकबर (1556-1605) ने बतौर जागीर सलीमगढ़ क़िला शेख़ फ़रीद को दे दिया था जिसे मुर्तुज़ा ख़ान भी कहा जाता था। शेख़ फ़रीद ने अकबर के शासनकाल में काम करना शुरु किया था लेकिन जहांगीर के शासनकाल में वह दरबार का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था।सन 1606 की शुरुआत में उसे मुर्तुज़ा ख़ान का ख़िताब मिला और गुजरात और फिर बाद में पंजाब का गवर्नर बन गया। हरियाणा के शहर फ़रीदाबाद का नाम शेख़ फ़रीद के नाम पर ही रखा गया था। कहा जाता है कि उसने नदी के तट पर पत्थरों का एक चबूतरा बनवाया था। चबूतरे के नीचे एक चौकोर चौखंडी थी जो हुमांयू ने बनवाई थी और जहां वह अकसर अपने सलाहकारों के साथ बैठता था।
अकबर के बाद जहांगीर (1605-1627) भी सलीमगढ़ क़िले में रुका था। कहा जाता है कि जहांगीर जब भी आगरा से लाहौर या फिर कश्मीर जाता था, वह दिल्ली रुकता था। वह यमुना पर अपना शिविर लगाता था और रात को सलीमगढ़ क़िले में रंगीन महफ़िलें सजाता था।
सलीमगढ़ क़िला एक बार फिर तब सुर्ख़ियों में आया जब जहांगीर के बाद शाहजहां (1628-1658) ने आगरा की जगह दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया। शाहजहां ने अपने नये शहर शाहजहांबाद में शाही महल और लाल क़िला बनाने के लिये सलीमगढ़ के पास एक स्थान चुना। लाल क़िले के निर्माण के लिये स्थान चुनने में सलीमगढ़ की अहम भूमिका रही। कहा जाता है कि सन 1639 में लाल क़िले के निर्माण के पहले शाहजहां कुछ समय के लिये सलीमगढ़ में रुका था। आज सलीमगढ़ लाल क़िले के परिसर का एक हिस्सा है। सलीमगढ़ एक मेहराबदार पुल के ज़रिये लाल क़िले से जुड़ा हुआ था।
औरंगज़ेब सन 1658 में बादशाह बना था। उसके शासनकाल के पहले तक मुग़ल क़िले का इस्तेमाल ठहरने के लिये करते थे। लेकिन औरंगज़ेब ने क़िले की पहचान ही बदल डाली और इसे जेल में तब्दील कर दिया। औरंगज़ेब को एक तानाशाह शासक के रुप में जाना है। उसने अपने पिता शाहजहां तक को आगरा में जेल में बंद कर दिया था। दिल्ली में सलीमगढ़ क़िले में उसने अपने भाई मुराद बख़्श और अपनी बड़ी बेटी ज़ैबुन्निसा को बंद कर दिया था।
मुराद बख़्श ने औरंगज़ेब और उसके भाई तथा सही मायने में उत्तराधिकारी दारा शिकोह के बीच सत्ता संघर्ष में औरंगज़ेब का साथ दिया था लेकिन औरंगज़ेब ने उसे भी सन 1658 के लगभग इस्लाम के क़ानूनों का पालन न करने पर जेल में डाल दिया था। बाद में मुराद बख़्श को ग्वालियर के क़िले में भेज दिया गया जहां उसे मौत के घाट उतार दिया गया। औरंगज़ेब की बेटी ज़ैबुन्निसा को एक शायरा के रुप में याद किया जाता है। उसने अपना तख़्ख़लुस यानी उपनाम मख़्फ़ी रखा था। लेकिनऔरंगज़ेब को उसका शायरी और संगीत का शौक़ पसंद नहीं था। उसे भी बंदी बनाकर सलीमगढ़ क़िले में डाल दिया गया जहां वह करीब बीस साल तक रहीं। 1701-02 में ज़ैबुन्निसा की मृत्यु हो गई।
सन 1947 में भारत की आज़ादी तक सलीमगढ़ क़िले में कई लोग बंदी के रुप में रहे। कहा जाता है कि यहां कई शहज़ादों, अमीरों और सरदारों ने अपनी अंतिम सांसे ली थी। सन 1712 से लेकर सन 1713 तक राज करने वाले मुग़ल बादशाह जहांदार शाह को उसका तख़्ता पलट कर उसके भांजे फ़र्रुख़ सियर ने इस क़िले में बंदी बनाया था। फ़र्रुख़ सियर सन 1713 में बादशाह बना था। कहा जाता है कि सन 1788 में रोहिल्ला क़बायली सरदार ग़ुलाम क़ादिर ने 16वें मुग़ल बादशाह शाह आलम की आंखे फोड़कर उसे सलीमगढ़ क़िले में क़ैद कर दिया था। बाद में मराठा शासक महदजी सिंधिया ने उसे क़िले से छुड़वाया और रोहिल्ला सरदार को यातना देकर मौत के घाट उतार दिया।
सन 1857 के विद्रोह के दौरान सलीमगढ़ राजनीतिक गतिविधियों क केंद्र था और यहां बाग़ियों को बंद किया जाता था। लेखक और इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल अपनी किताब “द लास्ट मुग़ल- दि फ़ाल ऑफ ए डायनेस्टी-दिल्ली, 1857” (2009) में लिखते हैं कि सलीमगढ़ में तोपख़ाने बनाये गये थे। माना जाता है कि विद्रोह का नेतृत्व करने वाले बहादुर शाह ज़फ़र ने यहां कुछ बैठकें की थीं। विद्रोह से मुग़ल साम्राज्य की हालत इतनी ख़स्ता हो गई थी कि बहादुर शाह ज़फ़र के पुत्र मिर्ज़ा मुग़ल के लोग पैसे के लिये सलीमगढ़ के मुग़ल कारावास में गड़े ख़ज़ाने को ढूंढ़ने के लिये खुदाई करने लगे थे। सन 1857 के विद्रोह में शामिल होने के आरोप में बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार कर लिया गया था।
कहा जाता है कि अंग्रेज़ों द्वार बहादुर शाह ज़फ़र को रंगून निर्वासित करने के पहले उन्हें कुछ दिन सलीमगढ़ क़िले में रखा गया था। ये भी कहा जाता है कि लाल क़िले और सलीमगढ़ को जोड़ने वाला पुल बहादुर शाह ज़फ़र ने ही बनवाया था। लेकिन कुछ स्रोतों का कहना है कि ये पुल जहांगीर ने बनवाया था। उत्तर की तरफ़ से सलीमगढ़ क़िले में दाख़िल होने के लिये बहादुर शाही गेट बहादुर शाह ज़फ़र ने 1854-55 में बनवाया था। ईंटों की चिनाई से बना इस दरवाज़े में लाल बालू पत्थर का बहुत कम इस्तेमाल किया गया था। अंग्रेज़ क़िले का इस्तेमाल सैन्य शिविर के लिये करते थे। अंग्रेज़ों ने पुराना पुल गिराकर रेलवे लाइन बनाई थी।
सन 1940 के दशक में भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी सलीमगढ़ क़िले का इस्तेमाल जेल के रुप होता था। लेकिन जल्द ही ये स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन गया क्योंकि यहां आज़ाद हिंद फौज के जवानों को बंद किया गया था और उनके मुक़दमें भी यहीं चले थे। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान दिसंबर सन 1945 में आज़ाद हिंद फ़ौज के तीन अफ़सरों पर लाल क़िले के अंदर मुक़दा चला था। उन पर अंग्रेज़ हुक़ुमत के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने के आरोप थे। सलीमगढ़ क़िले से जुड़ी बैरकों को जेल में तब्दील कर शाह नवाज़ ख़ान, प्रेम कुमार सहगल, गुरबख़्श सिंह ढ़िल्लों और सैकड़ों सैनिकों को वहां रखा गया था।सन 1995 में सलीमगढ़ क़िले को भारतीय स्वतंत्रता सैनानियों का स्मारक बना दिया गया। इसे स्वतंत्रता सैनानी स्मारक कहा जाता है। यहां एक संग्रहालय है जिसे स्वतंत्रता सैनानी म्यूज़ियम कहा जाता है। संग्रहालय में इंडियन नैशनल आर्मी के कर्नल प्रेम कुमार की यूनिफॉर्म, कर्नल गुरबख़्श सिंह ढ़िल्लों के बूट, कोट के बटन, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीरें आदि चीज़े रखीं हुई हैं।
आज अगर आप सलीमगढ़ क़िला देखने जाएं तो वहां आपको एक मस्जिद, चंद काल कोठरियां और क़िलेबंदी की दीवारें दिखाई पड़ेंगी जो ख़स्ता हालत में हैं। ये क़िला कम सैनिक छावनी ज़्यादा नज़र आता है। ये क़िला पहले सुरक्षा की दृष्टि से बनाया गया था जो बाद में जेल और फिर संग्रहालय में तब्दील हो गया। इस तरह सलीमगढ़ क़िले ने एक लंबा सफ़र तय किया है जो हमें उसके अतीत की कहानी सुनाता है।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com