रूमी दरवाज़ा : एक रूमानी एहसास 

शहर-ए-लखनऊ अपनी आलीशान इमारतों की वजह से जाना जाता है जो एक के बाद एक आये शासकों ने बनवाई है।बड़े इमाम बाड़े से लेकर आम्बेडकर पार्क तक इतिहासिक इमारतों की लम्बी क़तार है ।लेकिन एक इमारत जो लखनऊ की शान है, वह है रूमी दरवाज़ा। जिस तरह मुम्बई की पहचान गेटवे आफ़ इंडिया है या हैदराबाद की पहचान चार मीनार है ठीक वेसे ही लखनऊ की पहचान रूमी दरवाज़ा है।

नवाब आसफ़उद्दौला ने सन 1784 में इस आलीशान दरवाज़ा के बनवाने का काम शुरू करवाया था। यह दरवाज़ा आटोमन साम्राज्य ( उस्मानी सल्तनत ) की राजधानी इस्तम्बोल(तुर्की) में बने बाब-ए-हुमायूं (हुमायूं दरवाज़ा) के मुक़ाबले में बनवाया गया था। इसीलिये इसका नाम रूमी दरवाज़ा या तुर्किश गेट रखा गया। आज भीड़भाड़ वाले ट्रैफ़िक और कान फोड़ देनेवाले शोर के बीच यह सोच पाना ही मुश्किल है कि किसी ज़माने में इस दरवाज़े की शान क्या रही होगी।

अवध के शाही घराने की शुरूआत सआदत ख़ान बुरहान-उल-मुल्क (1680-1739) से हुई थी। उन्हें मुग़ल बादशाह अहमद शाह रंगीले ने सन 1722 में अवध का सूबेदार बनाया था। उनकी पहली राजधानी अयोध्या के नज़दीक,फ़ैज़ाबाद थी। सआदत ख़ान के वारिस नवाब शुजाउद्दौला (1732-75) ने भी हुकूमत का कामकाज फ़ैज़ाबाद से ही चलाया। उनकी हुकूमत में दो महिलाओं का बड़ा दबदबा रहा था । एक तो थीं उनकी मां नवाब बेगम और दूसरी थीं उनकी पत्नी बहू बेगम। वह दोनों इतिहास में “ अवध की बेगमात ” के नाम से जानी जाती हैं। वह दोनों अपनी दौलत और प्रशासनिक क़ाब्लियत की वजह से मशहूर थीं। उन दोनों के पास इतनी दौलत थी कि वह परेशानी के वक़्त नवाब की भी आर्थिक मदद कर देती थीं।

सन 1775 में अपने पिता के देहांत के बाद बहू बेगम के बेटे आसफ़ुद्दौला 26 साल की उम्र में नवाब बन गये थे।

नौजवान और फ़राग़ दिल आसफ़ुद्दौला अपनी मां और दादी के दबदबे से बाहर निकलना चाहते थे। इसिलिये उन्होंने अपनी राजधानी लखनऊ ले जाने का फ़ैसला किया। लेकिन दोनों बेगमों ने फ़ैज़ाबाद में ही रहने का निर्णय लिया। यहीं से छोटे से शहर लखनऊ के उत्थान की कहानी शुरू होती है। कला और संस्कृति को चाहनेवाले आसफ़उद्दौला लखनऊ को, इस्लामी दुनिया की राजधानियों के मुक़ाबले का भव्य शहर बनाना चाहते थे। आसफ़ुद्दौला की फ़राग़ दिली की वजह से एक कहावत बहुत मशहूर थी:

जिसको न दे मौला , उसको दे आसफ़उद्दौला

इसलिए , इसमें आश्चर्यचकित होने की कोई बात नहीं है कि एक ऐसा भव्य दरवाज़ा बनवाने का फ़ैसला किया जिसका मुक़ाबला आटमन सल्तनत की राजधानी इस्तम्बोल के बाब-ए-हुमायूं से की जा सके। इस दरवाज़े का उपयोग बड़े इमामबाड़े-परिसर के मुख्य प्रवेश द्वार की तरह होता था। बड़ा इमाम बाड़ा भी आसफ़उद्दौला की बनवाई एक बेहद शानदार इमारत है। अवध के नवाब शिया थे। बड़ा इमामबाड़ा मोहर्रम के दिनों में मरसियों की महफ़िलों और अज़ादारी यानी मातम मनाने के लिये किया जाता था।

बताया जाता है कि बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाज़ा ऐसे वक़्त में बनवाये गये थे जब मुल्क में सूखा पड़ा था जिसका प्रभाव सन 1784 से आरंभ होकर सन 1786 तक रहा था। अमीर हो या ग़रीब सबके लिये रोज़ी-रोटी कमाना मुश्किल हो गया था।अवध के लोगों को अपना आत्मसम्मान बहुत प्रिय था। इसलिये नवाब आसफ़उद्दौला ने घर बैठे वज़ीफ़ा देने के बजाय काम के बदले भोजन देने की योजना शुरू की।

साठ फ़ुट ऊंचे रूमी दरवाज़े की डिज़ायन फ़ारस(ईरान) के शिल्पकार किफ़ायतउल्लाह ने बनाई थी। जो असली प्रवेशद्वार है, वह बाब-ए-हुमायूं से कुछ कुछ मिलता जुलता है लेकिन सच यह है कि यह उससे कहीं ज़्यादा भव्य है। सबसे ऊपरी हिस्से में आठ कोनोंवाली छत्री है।ऊपर की छत पर एक मंडप बना है जो एक गुंबद से ढ़का हुआ है। वहां पहुंचने के लिये सीढ़ियां बनी हैं। हालांकि दीवारें छोटी हैं लेकिन मोटी हैं। लेकिन स्थानीय कारीगरों ने दीवारों और खम्बों पर ईंटो का उपयोग निहायत कलात्मक तरीक़े से किया है । छोटे खम्बों में मिट्टी चढ़े लोहे का उपयोग किया गया है। यह उनके कौशल का सबूत है कि उन्होंने बेहद मामूली चीज़ों से चमत्कार पैदा किया है। इसी तरह सफ़ाई पैदा करने और सजावट के लिये दीवारों पर मट्टी के पात्रों का इस्तेमाल किया गया है।

कम लागत में भी भव्यता को क़ायम रखने के लिये शिल्पकारों ने पत्थर और संगमरमर के बजाय ईंट और चूने का उपयोग किया है। इमारत की सादी दीवोरों की सजावट के लिये गजकारी से काम लिया गया ताकि आखों को भला लगे। गजकारी में संगमरमर से भी ज़ायादा चमक पैदा करने के लिये, नदी और तालाबों में पाई जाने वाली सिपियों का उपयोग किया गया।

बड़े इमामबाड़े के मुख्य प्रवेशद्वार यानी रूमी दरवाज़े की नफ़ीस कारीगिरी में उसे बनाने वालों की प्रतिभा को देखा जा सकता है। रूमी दरवाज़े पर जिस ख़ूबसूरती से फूलों को उकेरा गया है, उस पर रोमन शिल्पकारी का प्रभाव भी दिखाई देता है।सबसे ऊपरी हिस्से में एक छत्री बनी हुई है, वहां जाने के लिये सीढ़ियां हैं लेकिन जनता को वहां तक जाने की इजाज़त नहीं है। बताया जाता है कि किसी ज़माने में मीनार के ऊपर एक लैम्प था। कभी कभी वह रात में जलता भी था, तब उसके साथ मेहराब से पानी की बौछारे निकलती थीं।

सन 1856 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने आख़री नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटाकर अवध पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसी के अगले साल यानी 1857 में बग़ावत शुरू हो गई। उस दौरान लखनऊ के नवाबी दौर की कई इमारतों को नुक़सान पहुंचाया गया या बरबाद कर दिया गया था। शुक्र है रूमी दरवाज़ा सही सलामत बच गया।

आज भी रूमी दरवाज़ा , पुराने लखनऊ शहर के मुख्य प्रवेश द्वार की भूमिका अदा कर रहा है। लेकिन शहर की इस शान यानी रूमी दरवाज़े पर कुछ साल पहले एक दरार पड़ गई थी। लेकिन इसमें से होकर गुज़र ने वाले भारी ट्रैफ़िक की वजह से, इसके रख रखाव के ज़िम्मेदार, आर्केलाजिकल सर्वे आफ़ इंडिया, आज तक इसकी मरम्मत नहीं करवा पाया है। विरासत को संभालकर रखने के समर्थक कई लोगों का कहना हैं कि रूमी दरवाज़े से होकर गुज़रने वाला ट्रैफ़िक से ही इस इस्मार्क को सबसे ज़्यादा ख़तरा है।

रूमी दरवाज़े की सुरक्षा के लिये इस ट्रैफ़िक को रोकना होगा। क्योंकि रूमी दरवाज़ा शिल्पकारी का शाहकार होने के साथ ही लखनऊ की आन,बान,शान और पहचान है।

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