वास्तु-कला के मामले में लखनऊ शहर सदियों से आश्चर्य का विषय रहा है। यहां कई आलीशान और शानदार कोठियां हैं। ये कोठियां लखनऊ की बहुत पुरानी समृद्ध सांस्कृतिक और वास्तुकला से भरपूर विरासत का हिस्सा हैं जो आज भी अपनी भव्य डिज़ाइन से लोगों को विस्मित करती हैं। इसी तरह की एक कोठी है रोशन-उद-दौला कोठी जो क़ैसरबाग़ में है। अवध के दूसरे नवाब नसीरउद्दीन हैदर (1827-1837) के शासनकाल में ये कोठी प्रधानमंत्री के लिए बनाई गई थी।
नवाब नसीरउद्दीन हैदर के शासनकाल में ताज-उद-दीन मुहम्मद हुसैन ख़ान सन 1832 से लेकर सन 1837 तक अवध के प्रधानमंत्री रहे थे। उन्हें नसीरउद्दीन हैदर ने ख़ुद रोशन-उद-दौला का ख़िताब दिया था और तभी से उन्हें इसी नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि रोशन उद्दौला चालाक और महत्वाकांक्षी मंत्री थे जिनका मासिक वेतन 25 हज़ार रुपये था। उन्हें घर के रखरखाव के लिये पांच लाख रुपये सालाना भी मिलते थे। इसके अलावा राज्य के राजस्व में भी उनका पांच प्रतिशत कमीशन होता था जो लगभग पांच लाख रुपये सालाना होता था। उनकी दो पत्नियों को सरकारी ख़ज़ाने से वेतन के रुप में, हर महीने, क्रमश: पांच और तीन हज़ार रुपये मिलते थे।
नसीरउद्दीन हैदर अवध के अंग्रेज़ीदां शासक थे और उन्हें रहन-सहन की यूरोपीय शैली बहुत पसंद थी यानी औरत, अच्छे खाने और शराब का शौक। उनकी इस रंगीन मिज़ाजी का फ़ायदा दरबार के ज़्यादातर लोगों ने उठाया और यहां तक कि अंग्रेज़ों ने भी उनके शासनकाल में मौजमस्ती की। क्योंकि रोशन-उद-दौला को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और नवाब का प्रश्रय मिला हुआ था जिसकी वजह से वह बेरोक टोक ख़ुद को और अपने चहेतों को फ़ायदा पहुंचाते थे।
मुख्य क़ैसर बाग़ की दक्षिण-पश्चिम दिशा में रोशन-उद-दौला कोठी स्थित है जिसका निर्माण सन 1827-34 के दौरान हुआ था। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि रोशन-उद-दौला ने, अपने लिये जो कोठी बनवाई थी ,वह इंडो-फ़्रैच शैली में बनी बहुत भव्य कोठी थी और ये अवध के नवाबों और राजाओं के महलों को भव्यता के मामले में टक्कर देती थी। कोठी का उत्तरी हिस्सा पहले बना था जिस पर असफ़उद्दौला के दौलत ख़ाने का प्रभाव दिखआई देता है। कोठी का दक्षिणी हिस्सा दूसरे चरण में बनवाया गया था जो देखने में तो अलग था लेकिन पांच प्रवेश द्वारों से जुड़ा हुआ था।
कोठी की डिज़ाइन जटिल और मिश्रित थी। डिज़ाइन वास्तुकला के शानदार तत्वों का मिश्रण था। ये एक विशाल कोठी थी जो सतह से कम से कम एक स्तर ऊंची थी। इसका मूल रुप आयताकार था लेकिन इसकी रुपरेखा बहुभुजाकार थी। एक स्तर पर इसके किनारे मुड़े हुए थे तो दूसरे स्तर पर आले थे जबकि तीसरे स्तर पर एक विशाल बरामदा था जो बहुत लुभावना था। कोठी की बालकनियां और अहाते छोटे थीं और इनके हर तरफ़ सीढ़ियां थीं। ऊपरी बेसमेंट में तहख़ाना था जिसके रौशनदान बाहर की तरफ़ झांकते हुए नज़र आते हैं।
दो विशाल सभागारों की छतें वैसी ही हैं जैसी पहले हुआ करती थीं और इसके ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किये गये हैं हालंकि सन 1860 के दशक में ये अंग्रेज़ों के हाथों चला गया था और तब थोड़े बहुत थोड़े बहुत परिवर्तन किये गये थे। अंग्रेज़ों ने कोठी को दफ़्तर में बदल दिया था। भवन का भार बराबरी से छोटे छोटे बीमों के ज़रिये एक बड़े बीम पर रखा गया था जिसपर दीवारें टिकी हैं हालंकि कोठी के साइज़ और मंज़िलों को देखते हुए ये दीवारे उतनी चौड़ी नहीं बनवाई गईं थीं।
भवन के किनारे एक मस्जिद है और सामने के दूसरे किनारे पर इससे मिलती जुलती एक संरचना है। छोटे बड़े सभी गुंबदों पर तांबे की क़लई है। इन पर मिट्टी के बर्तन का बहुत प्रयोग है। इनके ऊपर तांबे का एक अर्ध गोलाकार बर्तन है और केंद्र में एक संकेत-तंत्र लगा है जिसे देखकर लगता है मानो सूर्योदय हो रहा है।
लखनऊ आने वाले आगुंतकों के लिये रखी गई पुस्तिका में सन 1896 में एच.जी. कीन ने लिखा कि ये कोठी आलीशान महल से भी बेहतर है हालांकि जो महल की तरह ही दिखती है। ईओण स्तंभ, पृथ्वी की तरह गोल कलश वाले जंगले, मूर तर्ज की मीनारें, हिंदु छतरियां, मेहराबें,फ़ुटपाथ और फ़ानूस, ये सब कुल मिलाकर एक आला क़िस्म के चमकदार समूह की तरह लगते हैं, जिन्हें अलग अलग देखने के लिये काफ़ी मशक़्क़्त करने की ज़रुरत पड़ेगी।
सन 1837 में नसीरउद्दीन हैदर की मृत्यु के बाद उनके चाचा नसीर-उद-दौला की ताज़पोशी हुई। बाद में इनका नाम मोहम्मद अली शाह हो गया था। इनकी ताज़पोशी के तीन महीने के भीतर रोशन-उद-दौला को बर्ख़ास्त कर दिया गया। उन पर वित्तीय घपले करने के आरोप थे और उन्हें न सिर्फ़ जेल की सज़ा हुई बल्कि बीस लाख रुपये का जुर्माना भी लगा। लेकिन अपने अंग्रेज़ समर्थकों और उनके क़रीबी लोगों की मदद से, उनकी जेल की सज़ा माफ़ हो गई लेकिन उनकी महलनुमा कोठी को ज़ब्त कर लिया गया जिसकी उस समय क़ीमत तीन लाख रुपये थी। उन्हें शहर भी छोड़ना पड़ा और वह कानपुर चले गए जहां अपने अंग्रेज़ संरक्षकों के बीच उन्होंने बाक़ी जीवन बिताया।
अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-56) को रोशन-उद-दौला कोठी इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने इसे अपनी पसंदीदा बेगम माशूक़ महल को रहने के लिये दे दिया था और इसका नाम क़ैसर पसंद रख दिया था। सन 1856 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध पर कब्ज़ा कर लिया और उसके बाद वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में लखनऊ में बग़ावत हो गई। 1857-58 के विद्रोह के दौरान क़ैसर बाग़ भारतीय क्रांतिकारियों का मुख्य अड्डा बन गया था। इस कोठी में बंदी बनाए गए अंग्रेज़ अधिकारियों को भी रखा जाता था।
सन 1858 में जब अंग्रेज़ों ने लखनऊ पर दोबारा कब्ज़ा कर लिया तो उन्होंने शहर के ज़्यादातर हिस्से नष्ट कर दिये। इस दौरान कोठी की ऊपरी दो मंज़िलों और सुनहरी मेहराबों को धवस्त कर दिया गया था। उसके बाद से अंग्रेज़ शासन के दौरान कोठी क़ैसर पसंद या रोशन-उद-दौला कचहरी में ज़िला अदालत लगने लगीं थी। आज़ादी के बाद अब यहां राज्य पुरातत्व निदेशालय और ज़िला निर्वाचन कार्यालय हैं।
इस ऐतिहासिक स्मारक की हालत हालंकि ख़स्ता है लेकिन कोठी रोशन-उद-दौला लखनऊ की एक ऐतिहास पहचान है जिसे संजोने की ज़रुरत है।
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