दिल्ली का लाल क़िला शाही शान-ओ-शौक़त का प्रतीक, कामयाबी और नाकामियों का गवाह, विद्रोह का केंद्र, शहीदों का मंदिर और स्वतंत्रता दिवस पर देश को संबोधन करने का मंच रहा है। भारत में लाल क़िला एक ऐसा स्मारक है जिसे देखने बड़ी संख्या में लोग आते हैं। इसमें इतिहास के उतार-चढ़ाव हैं। भीड़भाड़, शोरग़ुल और ख़रीदारों की गहमागमी वाली पुरानी दिल्ली में स्थित लाल क़िले का इतिहास किसी दिलचस्प कहानी से कम नही है।
17वीं शताब्दी के पहले तक मुग़लों का ध्यान दिल्ली की तरफ़ नहीं गया था। 16वीं शताब्दी के मध्य तक आगरा मग़लों की राजधानी हुआ करता था। अकबर, जहांगीर और शाहजहां ये तीनों मुग़ल बादशाह अपनी राजधानी आगरा से ही अपना साम्राज्य चलाते थे। लेकिन सन 1638 में पांचवें मुग़ल बादशाह शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली लाने का फ़ैसला किया क्योंकि आगरा में लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी और इसे संभालना भी मुश्किल हो रहा था।
राजधानी बदलना का फ़ैसला कोई आसान नहीं था। यमुना किनारे स्थित दिल्ली हमेशा से एक महत्वपूर्ण शहर रहा था। दिल्ली में ही दिल्ली सल्तनत क़ायम की गई थी, यहां महत्वपूर्ण सूफ़ी-संतों की दरगाहें थीं और यहीं कई सुल्तानों की राजधानियां भी रह चुकी थीं। शाहजहाँ के नए शहर का नाम का नाम शाहजानाबाद रखा गया था जो फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ की राजधानी फ़ीरोज़ शाह कोटला के उत्तर की तरफ़ थी। सुरक्षा का भी ख़ास ख़्याल रखा गया था। इसके एक तरफ़ जहां अरावली पर्वत श्रंखला थी, वहीं दूसरी तरफ़ यमुना नदी थी।
नयी राजधानी में पहला स्मारक क़िला-ए-मुबारक बना था जिसे क़िला शाहजानाबाद या क़िला-ए मुअल्ला भी कहा जाता था। राजधीनी के लिये इस जगह को इसलिये भी चुना गया था क्योंकि शेर शाह सूरी के पुत्र ने सन 1546 में, यहां पहले ही एक छोटा सा क़िला सलीमगढ़ बनवाया था। लाल क़िले के निर्माण का काम सन 1639 में शुरू हुआ जिसकी देखरेख ख़ुद शाहजहां करता था। नयी राजधानी की जो योजना बनी थी, यह क़िला उसके हिसाब से बिल्कुल मध्य में बनाया गया था।
इसका मुख्य द्वार लाहौर गेट मुख्य सड़क की तरफ़ था जिसे हम आज चांदनी चौक सड़क के नाम से जानते हैं। बाद में यह सड़क फ़तेहपुरी मस्जिद तक पहुंच गई। फ़तेहपुरी मस्जिद शाहजहां की पत्नी फ़तेहपुरी बेगम ने 17वीं शताब्दी में बनवाई थी। समय के साथ यहां लाल रंग के जैन मंदिर को भी लाल क़िले के एकदम सामने सम्मानजनक जगह दी गई । ये सम्मान जैन व्यापारियों के योगदा को देखते हुए दिया गया था जिनकी अर्थव्यवस्था को संभालने में बहुत बड़ी भूमिका होती थी।
लाल क़िला बनने में नौ साल लगे थे। जब ये बनकर तैयार हुआ था तब शहर के अंदर ही एक शहर बस गया था जहां महल, छावनियां, बाज़ार, सभागार आदि सब कुछ हुआ करता था। शाहजहां यहां सन 1648 में आया और यहीं से उसने सगभग एक दशक तक शासन चलाया।
लाल क़िले के सुनहरे दिन
आज हमें लाल क़िले में जो कुछ नज़र आता है वो दरअसल वास्तविक लाल क़िले का बहुत ही छोटा सा रुप है। लेकिन रिकॉर्ड्स, पैंटिग्स और विवरण से हमें अंदाज़ा हो जाता है कि किसी समय ये कितना भव्य रहा होगा। कभी दिल्ली में रहने वाले फ़्रांस के डॉ. फ़्रांकोइस बर्नियर ने अपनी किताब “ट्रेवल इन द मुग़ल एंप्यार, एडी 1656-1668” में लाल क़िले के बारे में लिखा है। उन्होंने लाल क़िले को पूर्व के सबसे अद्भुत महलों में से एक बताया था। उन्होंने क़िले के अंदर बाग़ों, दरबारों और बाज़ारों का भी उल्लेख किया है। बाग़ों का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं कि वहां (बाग़ों) में हमेशा रंग-बिरंगे फूल खिले रहते थे और हरियाली रहती थी। क़िले की लाल दीवारों के बीच ये फूल औऱ हरियाली बस देखते ही बनती थी।
लेकिन क्या आपको पता है कि लाल क़िला हमेशा से लाल नहीं था? क़िले की दीवारें तो लाल बलुआ पत्थर की बनी थीं लेकिन अंदर के महल लाल और सफ़ेद पत्थरों के बने थे,यह दोनों रंग मुग़ल बादशाहों के प्रिय रंग हुआ हुआ करते थे।
शाहजहां द्वारा नियुक्त इतिहासकार मोहम्मद वारिस ने अपनी किताब बादशाहनामा-भाग 3 में महलों का ज़िक्र किया है। वह बताते हैं कि क़िले के छह दरवाज़े और 21 बुर्ज हैं। इनमें कुछ बुर्ज गोलाकार और कुछ आठ कोणों वाले हैं। अंदर दो बाज़ार हैं जिनमें से एक छत्ता चौक है जो आज भी मौजूद है। मोहम्मद वारिस ने महल में पर्चिनकारी औऱ आईनाकारी जैसी सजावट का भी उल्लेख किया है। इन सजावटों के लिये संग-ए-निहाली पत्थर गुजरात से मंगवाए गए थे।
शाहजहां का लाल क़िला बेहतरीन सजावटी समान औऱ कलाकृतियां से भरा था। वहां बेशक़ीमती नगीनें, सुंदर मेहराबें और खंबे, फ़व्वारे, पवैलियन और रिहाइशी जगह हुआ करती थीं। शाही दरबार का तख़्त-ए-ताऊस (मोर तख़्त )अपने आप में बेमिसाल था जो दिवान-ए-ख़ास में रखा था। दिवान-ए-ख़ास तो आज भी मौजूद है लेकिन तख़्त-ए-ताऊस अब वहां नहीं है। सन 1738 में नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला किया था और वह तख़्त-ए-ताऊस को भी लूट कर अपने साथ फ़ारस यानी ईरान ले गया था। कहा जाता है कि तख़्त को तोड़ताड़ कर, फिर उसके टुकड़ों से नादरी तख़्त ताऊस बनाया गया था। यह तख़्त आज भी सेंट्रल आफ़ बैंक ऑफ़ ईरान के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा हुआ है। माना जाता है कि तख़्त का दूसरा हिस्सा तुर्की के तोपकापी महल में रखा है।
इस हॉल के बीच से नहर-ए-बहिश्त (स्वर्ग की नहर) बहा करती थी जो पूरे महल से होकर गुज़रती थी। नहर में नगीनें लगे हुए थे और फ़व्वारे थे। दिवान-ए-ख़ास में अमीर ख़ुसरो की वो मशहूर पंक्तियां लिखी थी कि अगर दुनिया में कोई स्वर्ग है तो बस यही, यही है। ये पंक्तियां अंदर की दीवारों पर लिखी हुई हैं जो दर्शाती हैं कि ये महल कभी कितना सुंदर रहा होगा।
क़िले में शाही ख़ानदान के लिये गुलाब जल के फव्वारों और भाप से नहाने का इंतज़ाम हुआ करता था। अगर आप आज लाल क़िले जाएं तो आपको दिवान-ए-आम, रंग महल, मुमताज़ महल, हयात बख़्श गार्डन, सावन, भादो पवैलियन, छोटा चौक बाज़ार और नौबत ख़ाने में उस समय के क़िले की भव्यता की झलक मिलेगी। नौबत ख़ाना में संगीतकार एकत्र होते थे।
लेकिन वो दिन गुज़र गए और शाहजहां के निधन के बाद लाल क़िला और शाहजानाबाद अपना वैभव खोने लगे। सन 1658 में अपने पिता से सत्ता हथियाने वाला औरंगज़ेब युद्ध में व्यस्त रहता था और उसने लाल क़िले या नये शहर की कोई ख़ास परवाह नहीं की।
कहा जाता है कि शाहजहां का वास्विक उत्तराधिकारी शहज़ादा दारा शिकोह महल और लोगों की पहली पसंद था लेकिन औरंगज़ेब ने उसकी हत्या करवा दी। इस बात के लिये शाहजहां ने औरंगज़ेब को कभी माफ़ नहीं किया। कहा जाता है कि दारा शिकोह की हत्या से लोगों में इतना रोष था कि शहर में लोगों ने एक बार औरंगज़ेब पर पत्थर फेंके भी थे। लेकिन औरंगज़ेब को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और उसने क़िले के आसपास एक अतिरिक्त दीवार बनावा दी जो शहाजहां को बेहद नागवार गुज़री। आज भी क़िले के मुख्य द्वार पर इसे देखा जा सकता है। औरंगज़ेब बहुत समय तक क़िले में नहीं रहा। वह सन 1680 की शुरुआत में दक्कन चला गया था। उसकी ग़ैरमौजूदगी में लाल क़िले में रस्मीतौर पर दरबार लगता था और राजपाट मुग़ल बेगमें चलाती थीं।औरंगज़ेब के बाद कमज़ोर उत्तराधिकारियों ने मुग़लिया विरासत को संभाल नहीं पाए और लाल क़िले का पतन होने लगा।
किले में कठिन समय
सन 1739 में फ़ारस यानी ईरान के हमलावर नादिर शाह ने लाल क़िले पर हमलाकर लूटपाट की। वह अपने साथ बेशकीमती हीरे-जवाहरात और कलाकृतियों के अलावा तख़्त-ए-ताऊस भी लूटकर ले गया। उसके बाद 18वीं शताब्दी में मराठों, सिखों, जाटों, गुर्जरों, रोहिल्ला और अफ़ग़ानों ने भी क़िले पर हमलाकर लूटपाट की। 18वीं शताब्दी के अंत तक मुग़ल शासक नाममात्र के शासक बनकर रह गए। सन 1752 में मराठों ने क़िले पर नियंत्रण कर लिया था और मुग़ल शासक उनके हाथों में कठपुतली बनकर रह गए थे।
सन 1760 में हालात ऐसे हो गए थे कि दिल्ली को अफ़ग़ान कमांडर अहमद शाह दुर्रानी की सेना से बचाने के लिये धन की ज़रूरत पड़ी तो मराठों ने दीवान-ए-ख़ास की चांदी की छत को पिघला कर उससे पैसा इकट्ठा किया।। लेकिन फिर भी सन 1761 में अहमद शाह दुर्रानी ने दिल्ली पर हमलाकर क़िले पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन जल्द ही मराठों ने फिर इस पर कब्ज़ा कर लिया। मराठों का शासन यहां दो दशकों तक चला इसके बाद सन 1803 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ एंग्लों-मराठा युद्ध छिड़ गया।
सन 1788 में लाल क़िले में एक भयंकर घटना हुई। रोहिल्ला सरदार ग़ुलाम क़ादिर ने मुग़ल शासक शाह आलम को क़ैदकर के उसे अंधा कर दिया। उसने शाही परिवार के अन्य सदस्यों को भी नहीं बक्शा। कई दिनों तक रोहिल्ला ने क़िले में लूटपाट और हत्याएं कीं।
सन 1803 में अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया था। उसके बाद उन्होंने क़िले तथा शाहजानाबाद पर भी नियंत्रण करना शुरू कर दिया था। अकबर शाह द्वतीय (1806-1837) के सत्ता में आने पहले ही, दीवान-ए-ख़ास अपना आकर्षण खो चुका था और वहां दरबार लगना बंद हो गया था। लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र ने लाल क़िले पर थोड़ा सा नियंत्रण तब हासिल कर लिया था जब सन 1857 में, ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ़ बग़ावत करनेवाले भारतीय सिपाहियों ने उनसे अंग्रेंज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत की अगुवाई करने को कहा थ। लेकिन ये ज़्यादा समय तक नहीं चला सका और सितंबर सन 1857 में अंग्रेज़ों ने हमलाकर शाहजानाबाद पर कब्ज़ा कर लिया।
अंग्रेज़ों ने लाल क़िले के दो तिहाई से ज़्यादा महलों को नष्ट कर दिया। महल को अंग्रेज़ सेना की रहने की जगह में तब्दील कर दिया गया और दीवान-ए-ख़ास को अस्पताल बना दिया गया। क़िले की अन्य जगहों को भी अंग्रेज़ सिपाहियों के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा। महल के बेशक़ीमती हीरे-मोती, जैवर और कलाकृतियों की एक बार फिर लूटपाट हुई। क़िले में कई मुग़ल भवनों को ढ़हा दिया गया। एक समय जहां शाही भवन हुआ करते थे वहां अंग्रेज़ों की सैनिक छावनियां, बंगले, प्रशासनिक ऑफ़िस और गोदाम बना दिये गए।
लाल क़िला भीतर से कैसा लगता था ये ग़ुलाम अली ख़ान की पैंटिंग्स में देखा जा सकता है। ग़ुलाम अली ख़ान मुग़ल बादशाह अकबर द्वतीय (1806-1837) और बहादुर शाह ज़फ़र द्वतीय (1837 1858) के समय दरबारी चित्रकार हुआ करते थे। हालंकि ये चित्र उस समय के हैं जब क़िले पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो चुका था लेकिन फिर भी चित्रों में शामियानों और क़ालीनों से सजे हॉल को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि लाल क़िला कितना भव्य रहा होगा।
लाल क़िला और भारत का स्वतंत्रता संग्राम
बरबादी के लगभग एक दशक बाद लाल क़िले का एक बार फिर उदय हुआ। भारत की आज़ादी के पूर्व यहां इंडियन नैशनल आर्मी के मुक़दमें चलने शुरु हुए। दूसरे विश्व युद्ध के बाद दिसंबर सन 1945 में इंडियन नैशनल आर्मी के तीन अफ़सरों पर यहां मुक़दमा चले थे। बावड़ी के चैम्बरों को जेल में तब्दील कर दिया गया था। इनकी रिहाई को लेकर राष्ट्रव्यापी आंदोलन हुआ और आख़िरकार उन्हें रिहा करना पड़ा।
लाल क़िले का इतिहास इतना सांकेतिक और समृद्ध है शायद इसीलिये भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने 15 अगस्त 1947 को आज़ाद भारत का ध्वज यहीं से फहराया था। इस ऐतिहासिक समारोह के लिये इस जगह का चुना जाना दरअसल भारत के लिये अपनी विरासत को दोबारा प्राप्त करने जैसा था। साथ ही इस जगह को महत्व देना इसलिये भी ज़रूरी था, क्योंकि यहीं से आज़ादी की कई महत्वपूर्ण लड़ाईयां लड़ी गईं थीं। लाल क़िले की प्राचीर से रष्ट्र ध्वज फहराने का सिलसिला आज भी जारी है और स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर देश के प्रधानमंत्री यहीं से राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं।
मुख्य चित्र: ब्रिटिश लाइब्रेरी
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