रानी की वाव- देवों की बावड़ी  

भारत की अद्भुत धरोहरों में से एक है रानी की वाव। सदियां बीत जाने के बावजूद ये इसलिए बची रही क्योंकि ये ज़मीन में दबी हुई थी। रानी की वाव देश में ही नहीं बल्कि विश्व में एक ऐसी बावड़ी है जो देखते ही बनती है। गुजरात के पाटन शहर में स्थित ये बावड़ी एक ऐसी राजधानी की गवाह है जो यहां एक हज़ार साल पहले हुआ करती थी। इसकी झलक सन 2018 में जारी सौ के नोट पर भी देखी जा सकती है ।

एक समय पाटन का नाम अन्हिलवाड़ा हुआ करता था। ये सोलंकी (चालुक्य) राजवंश की राजधानी हुआ करता था। 10वीं और 13वीं शताब्दी के बीच उत्तर-पश्चिम भारत में गुजरात और राजस्थान के हिस्सों पर सोलंकी राजवंश का शासन था। उनके शासनकाल में आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में बहुत तरक़्क़ी हुई। उन सुनहरे दिनों को सोलंकी शासकों द्वारा बनवाए गए स्मारकों में देखा जा सकता है। इनमें सोमनाथ और मोढ़ेरा के मंदिर, सहस्त्रलिंग तालाब जैसे जलाशय और पाटन में रानी की वाव जैसे स्मारक शामिल हैं।

जैन विद्वान मेरुतुंगा ने अपने संस्कृत ग्रंथ प्रबंध चिंतामणि में लिखा है कि सीढ़ियों वाली बावड़ी राजा नवघड़ा खेनगाड़ा की पुत्री राजकुमारी उदयमति ने 1964 में बनवाई थी। उदयमति सोलंकी राजा भीम प्रथम की पत्नी थी और उन्होंने पति की स्मृति में ये वाव बनवाई थी।

रानी की वाव की लंबाई 65 मीटर है और ये सात मंज़िला है। ये वाव विश्व में सीढ़ियों वाली सबसे बड़ी बावड़ी है। ये सरस्वती नदी के पास थी इसलिये जब नदी ने अपनी दिशा बदली, वाव में बाढ़ आ गई और फिर वह कीचड़ में दब गई। दिलचस्प बात ये है कि ज़मीन में दबी रहने की वजह से रानी की वाव सेना की लूटखसोट से बची रह गई। भारतीय पुरातत्व विभाग ने जब 80 के दशक में यहां खुदाई की तभी इस वाव का पता चला। खुदाई के बाद वाव से कीचड़ साफ़ की गई और दीवारों को फिर ठीक किया गया। वाव के सात स्तर होते थे लेकिन दो स्तर मनुष्य और प्रकृति ने नष्ट कर दिये|वाव के कुछ हिस्सों को लोग दूसरी वाव बनाने के लिये तोड़ ले गए।

पुरातत्वविद डॉ. कीर्ति मंकोडी के अनुसार- आकार, मूर्ति की प्रचुरता और शिल्प के स्तर के मामले में ये वाव अद्भुत है। सीढ़ियों से वाव में उतरते हुए आप पाएंगे कि एक इंच भी ऐसी जगह नहीं है जो अलंकृत न हो। ये स्मारक उस समय की शिल्पकला को दर्शाता है जो तब अपने उत्कर्ष पर थी। ये स्मारक हालंकि आज काफ़ी जर्जर अवस्था में हैं लेकिन फिर भी 400 प्रमुख और लगभग एक हज़ार छोटे मोट स्मारक मौजूद हैं जो धार्मिक, पौराणिक और धर्मनिरपेक्ष चित्रकारी को दर्शाते हैं।

ये मूर्तियाँ मुख्यतः दो प्रकार की हैं । प्रधान देवी या देवता आले में स्थित है जबकि बाक़ी अप्सरा जैसी आकृतियाँ आलों के बीच चारों दिशाओं मे उभरे स्तम्भों पर दिगपालों के साथ उकेरी गई हैं।
सबसे ज़्यादा मूर्तियां विष्णु और पार्वती की हैं। चूंकि विष्णु का संबंध लौकिक जल से माना जाता है इसलिये वाव में विष्णु की मूर्ति का होना बहुत सामान्य सी बात होती थी। वाव में भगावान विष्णु को दशावतार और 24 रुपों में दिखाया गया है। मुख्य मूर्ति में विष्णु को शेषनाथ पर लेटे हुए दर्शाया गया है।

पार्वती की मूर्ति को एक ऐसी महिला के प्रतीक के रुप में दर्शाया गया है जो अपने पति के प्रति पूरी तरह समर्पित है और भविष्य के सभी अवतारों में भी उसी के साथ रहना चाहती है। वाव बनवाते समय राजकुमारी उदयमती की भी शायद ऐसी ही भावना रही होंगी।

अन्य प्रमुख देवी-देवताओं की मूर्तियों में ब्रह्मा-सरस्वती, हंस पक्षी, उमा-महेश्वर, भैंसे के रुप में राक्षस का वध करती दुर्गा-महिषासुरमर्दिनी, गणेश की पत्नी तथा गणेश और उनके पेट पर लौटते हुये कोबरा, ख़ज़ाने के साथ कुबेर, कमल पर बैठी महालक्ष्मी नरमुंड का माला पहने चमुंडा, नृत्य करते भैरव, ध्यानमग्न गौरी, राक्षस का दमन करते हनुमान और हरिण्यकश्यप का वध करते नरसिम्हा को दिखाया गया है। इनके अलावा नवगृहों की भी छवियां हैं।

देवी-देवताओं के अलावा महिलाओं (अप्सरा, नागकन्या, योगिनी) की भी मूर्तियां यहां देखने को मिलती हैं। इन मूर्तियों में महिलाओं को दैनिक कार्य करते दर्शाया गया है जैसे बच्चे की देखभाल करते हुए, सजते हुए, किताब पढ़ते हुए, नृत्य करते हुए, पत्र लिखते हुए, बंदर को भगाते हुए आदि।

ये महिलाएं सुंदर आभूषण पहने हुए हैं जैसे चूड़ियां, कान की बालियां, गले की माला, कमरबंद और पायल आदि। महिलाएं सुंदर कपड़े भी पहने हुए हैं और उनके बाल सुंदर तरीक़े से बने हुए हैं। कुछ मूर्तियों में वे चप्पल पहने भी नज़र आती हैं। उनकी भाव-भंगिमा भक्तिपूर्ण भी है और उत्तेजक भी। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि एक महिला द्वारा बनवाई गई ये बावड़ी महिलाओं को समर्पित है।

एक अन्य विशेष सुंदर मूर्ति नायिका कर्पूरमंजरी की है। ये युवती स्नान करके बाहर निकली है और उसके गीले बालों से टपकते मोती जैसे पानी को चिड़िया पी रही है।

स्मारक में 292 स्तंभ हुआ करते थे जिनमें से अब 226 ही बचे रह गए हैं। कुछ तो एकदम सही सलामत हैं जबकि बाक़ी थोड़े-बहुत टूटफूट गए हैं। इन स्तंभों पर घोड़े, हाथी और शेर की छवियां बनी हुई हैं। वाव के प्रवेश स्थान पर पैनलों पर सुंदर जालियां बनी हुई हैं। स्थानीय पटोला कपड़े पर इन डिज़ाइन को ख़ूब प्रयोग होता है। सोलंकी शासन में ऐसी डिज़ाइन वाली साड़ियां बहुत लोकप्रिय होती थीं और इन्हें राज्य का संरक्षण भी प्राप्त था।

सात मंज़िला वाव की तलहटी में एक कुआं है। ये क़रीब तीस मीटर गहरा और दस मीटर चौड़ा है। अतिरिक्त पानी जमा करने के लिये कुएं से लगा एक कुंड भी है।

रानी की वाव न सिर्फ़ वास्तुकला का एक बेहतरीन नमूना ही नहीं है बल्कि ये भारी बरसात के समय पानी जमा करने के भी काम आती था। इस क्षेत्र महीनों बारिश नहीं होती और ऐसे में ये वाव पानी का एक बड़ा स्रोत साबित होती थी। भीषण गर्मी में ये लोगों को राहत भी देती थी।

80 के दशक में इस वाव की खोज इत्तेफ़ाक़ से हुई थी। तब से लेकर अब तक जो भी इसे देखता है वो अचंभित रह जाता है। आपको इस तरह की चीज़ और कहीं नहीं मिलेगी। यूनेस्को ने सन 2014 में इसे अपनी विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया था। रानी की वाव अहमदाबाद से तीन घंटे की दूरी पर है। यहां आने पर लगता है मानो आप दूसरे युग में पहुंच गए हों।

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