फ़रवरी सन 2020 में एक ख़बर को लेकर पूरे भारतीय मीडिया में खलबली सी मची हुई थी। सन 2019 में सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले के तहत, कोर्ट द्वारा नियुक्त स्पेशल कमिशनर सौरभ सक्सेना, उत्तर प्रदेश के शहर रामपुर में ख़ासबाग़ पैलेस में, रामपुर के नवाबों का शाही ख़ज़ाना खोलने जा रहे थे। ये ख़ज़ाना विभिन्न उत्तराधिकारियों में बांटा जाना था।
इस शाही ख़ज़ाने की, जो 40 साल से भी ज़्यादा समय से बंद पड़ा था, चाबी नहीं थी। जिस कमरे में ख़ज़ाना रखा हुआ था उसका छह टन का लोहे का दरवाज़ा आठ फुट लंबा था जिसे खोलने के लिये पांच विशेष वेल्डर बुलाए गए थे। वेल्डरों ने पांच घंटे तक दरवाज़ा तोड़ने की मशक़्क़त की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इस बीच, बाहर मीडिया ख़ज़ाने को लेकर तरह-तरह की ख़बरें दे रहा था और कहा जा रहा था कि ख़ज़ाना में अरबों रुपये का माल है। लोग दम साधे ये तमाम ख़बरे देख-सुन रहे थे।
छह कोशिशों के बाद आख़िरकार सात मार्च सन 2020 को वेल्डरों ने ख़ज़ाने का दरवाज़ा तोड़ ही दिया। लेकिन इसके बाद जो हुआ वो एकदम उम्मीदों के ख़िलाफ़ था। घुप्प अंधेरे कमरे में रखी तिजोरियां और स्टील के संदूक़ बिल्कुल ख़ाली निकले!
इस घटनाक्रम के बाद सवाल उठा कि रामपुर में कभी कोई ख़ज़ाना था भी कि नहीं ? अगर था तो रामपुर जैसी छोटी रियासत के पास इतना ख़ज़ाना आया कहां से ? और ये कि अगर था तो गया कहां? जिस तरह भारतीय इतिहास में कई सवालों के जवाब पैचीदे होते हैं ठीक वैसे ही इन सवालों का भी जवाब पैचीदा था। लेकिन ख़ुशक़िस्मती से मेरे हाथ ऐसे दस्तावेज़ और फ़ाइलें लग गईं जिसने इस पहेली की कड़ियों को जोड़ने में मदद की।
दिल्ली से पूर्व दिशा की ओर, 242 कि.मी. दूर स्थित रामपुर उत्तर प्रदेश का एक महत्वपूर्ण शहर है। रामपुरी चाकू और ख़ुराफ़ाती रीजनीतिक नेताओं के लिए मशहूर रामपुर किसी ज़माने में भारत की समृद्ध और औद्योगिक रियासतों में से एक हुआ करती थी।
रामपुर उत्तर प्रदेश के रोहेलखंड क्षेत्र में आता है जहां कभी जंगल और घास के मैदान हुआ करते थे। अफ़ग़ानिस्तान में रोह अथवा पहाड़ों के लोगों को रोहिल्ला कहा जाता है और 16वीं शताब्दी के अंत में अफ़ग़ानिस्तान से बड़ी संख्या में पठान यहां आकर बस गए थे। मुग़ल शासन के पतन के बाद इन अफ़ग़ान कबायली पठानों ने कड़ी मेहनत से ज़मीन साफ़ कीं और सेनापतियों के बीच बांट ली। ये योद्धा ज़बरदस्त लड़ाके होते थे। इनमें सबसे मशहूर था नजीब ख़ान जिसने भारत पर हमले के लिये अफ़ग़ान शासक अहमद शाह अब्दाली को बुलाया था और जिसकी वजह से सन 1761 का पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ था।
लेकिन रोहिल्ला कबायली गुटों को तब ज़बरदस्त झटका लगा जब सन 1773-1774 में ईस्ट इंडिया कंपनी और अवध के नवाबों की संयुक्त फ़ौज ने रोहेलखंड पर हमलाकर इस पर कब्ज़ा कर लिया। इस हमले में सिर्फ़ एक की कबायली योद्धा फ़ैज़उल्लाह ख़ान बचा जिसे अंगरेज़ों के संरक्षण में ज़मीन का एक छोटा हिस्सा रामपुर दे दिया गया। इस तरह फ़ैज़उल्लाह ख़ान सन 1774 में रामपुर का पहला नवाब बना जिसके वंशजों ने सन 1947 तक रामपुर पर शासन किया और बाद में उत्तर प्रदेश की राजनीति में अहम भूमिका निभाई।
नवाब फ़ौज़उल्लाह ख़ान रियासत हासिल करने के बाद मुग़ल घरानों से दुर्लभ और क़ीमती पांडुलिपियां और दुर्लभ हीरे-जवाहरात जमा करने लगा जो तेज़ी से ख़त्म हो रहे थे। ये दुर्लभ और बेशक़ीमती संग्रह रामपुर की रज़ा लाईब्रेरी में मौजूद है। ये लाईब्रेरी भारत की बेहतरीन लाईब्रेरियों में से एक मानी जाती है।
फ़ौज़उल्लाह ख़ान के वंशज नवाब हामिद अली ख़ान (1889-1930) ने रामपुर को उत्तर भारत का सांस्कृतिक केंद्र बना दिया। नवाब हामिद अली ख़ान के 41 साल के शासनकाल में ही संगीत और कत्थक का रामपुर घराना परवान चढ़ा। कम ही लोगों को पता है कि मशहूर ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर और जद्दनबाई (अभिनेत्री नरगिस की मां) रामपुर दरबार में गाया करती थीं।
नवाब ने रामपुर क़िले के अंदर हामिद मंज़िल महल भी बनवाया था जिसमें एक भव्य दरबार हॉल हुआ करता था। यहां किसी समय नवाबों का सोने का सिंहासन और सोने का हुक्का रखा होता था।
हामिद मंज़िल महल के शाही शयनकक्ष में सोने का पलंग और चांदी की ड्रेसिंग टेबल भी होती थी। हमारे पास मौजूद दुर्लभ चित्रों में इन्हें देखा जा सकता है।
सन 1930 में नवाब सर रज़ा अली ख़ान (1930-1956) नवाब हामिद अली ख़ान के उत्तराधिकारी बने। रामपुर के वज़ीर-ए-आज़म कर्नल ज़ेड.एच. ज़ैदी के ख़ास दिशा-निर्देश में रज़ा बुलंद शुगर, रामपुर डिस्टेलेरी और रामपुर टैक्सटाइल्स जैसे कई उद्योग लगाए गए। रामपुर भारत में सबसे समृद्ध औद्योगिक राज्यों में से एक राज्य बन गया था और उसकी आमदनी तीन गुना बढ़ गई थी। तीन हज़ार स्क्वैयर मील में फैले कोल्हापुर की सालाना आमदनी जहां 125 लाख रुपये थी, वहीं 800 स्क्वैयर मील में फैले रामपुर की सालाना आमदनी 110 लाख रुपये थी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि रामपुर रियासत कितनी समृद्ध थी।
रामपुर में उद्योगों से बहुत आमदनी होने लगी थी और इस दौरान नवाब सर रज़ा अली ख़ान ने ख़ासबाग़ महल को नये सिरे से बनवाया। ये महल भारत में ऐसा पहला महल था जो वातानुकुलित (एयर कंडीशन्ड) था। इसमें गर्म पानी वाले दो स्विमिंग पूल, एक निजी नाइट क्लब और एक सिनेमा घर था। यहां आने वाले मेहमानों को इसे देखकर अति सुविधा संपन्न न्यूयॉर्क होटल की याद आ जाती थी। महल के मध्य में शाही ख़ज़ाना होता था।
नवाब रज़ा अली ने कई बेशक़ीमती रुबी, दुर्लभ पन्ने और हीरों के साथ अपने जवाहरात के ख़ज़ाने में इज़ाफ़ा किया। ख़ज़ाने वाले कमरे में क्या रखा है, इसकी जानकारी सिर्फ़ नवाब और ख़ज़ानची को होती थी। यहां आने की इजाज़त सिर्फ एक व्यक्ति को दी गई थी और वह थे, भारत के वाइसराय ।
शाही जवाहरात के बारे में शोद्ध के दौरान मुझे हमेशा ताज्जुब होता था कि महाराजाओं और नवाबों के शाही ख़ज़ाने में आख़िर क्या छुपा हुआ होगा। रामपुर के काल्पनिक ख़ज़ाने में क्या होगा ?
ख़ुशक़िस्मती से लॉर्ड माउंटबैटन की प्रकाशित डायरियां पढ़ते समय मुझे इनका जवाब मिल गया। माउंटबैटन ने ये डायरियां 1940-42 के दौरान लिखीं थीं। सन 1942 में माउंटबैटन अंगरेज़ सेना के कमांडर इन चीफ़ थे। ये सेना तब दक्षिण-पूर्व एशिया में लड़ाई लड़ रही थी और माउंटबैटन नयी दिल्ली से इसका संचालन कर रहे थे। इस दौरान रामपुर के शहज़ादे मुर्तुज़ा अली ख़ान माउंटबैटन के सहायक सैनिक अधिकारी (Aide-De-Camp) हुआ करते थे। रामपुर की अपनी एक यात्रा के दौरान माउंटबैटन को रामपुर के शाही ख़ज़ाने में ले जाया गया था जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी डायरी में किया था। उन्होंने लिखा कि कैसे शाही ख़ज़ाने वाला कमरा अभेद्ध था और इसे कैसे खोला गया:
“रामपुर के नवाब और बेगम ने मुझे अपने जवाहरात दिखाने की पेशकश की। मेरे ए.डी.सी ने मुझे बताया कि ये बहुत सम्मान की बात है क्योंकि इन्हें सिर्फ़ भारत के वाइसराय को ही दिखाया जा रहा है और इससे पहले कभी किसी मेहमान को नहीं दिखाया गया था।
“मुझे कहना पड़ेगा कि ये बहुत ही मोहित करनेवाला था। शाही ख़ज़ाने की तरफ़ जाने वाले रास्ते पर रियासत की पुलिस के गार्ड चैनात थे जिन्होंने पहले ताला खोला फिर लोहे का दरवाज़ा खोला था। दरवाज़ा, एक बड़े हॉल के अंदर खुलता था जिसके बीच में स्ट्रांग रुम (कोष कक्ष) था। कोष कक्ष महल के एकदम बीचोंबीच था और यहां नवाब के कमरे से पहुंचा जाता था। वहां दो सौ मीटर का एक गलियारा था जिसके अंत में स्टील का शटर वाला एक मज़बूत गेट था।इस गेट के पीछे एक और मज़बूत गेट था। इन चूब दरवाज़ों के पीछे भारी सुरक्षा वाले दो दरवाज़े थे जिनमें ताले लगे हुए थे। शातिर चोर से सुरक्षा के लिये इतना ही नहीं बल्कि ख़ज़ाने के कमरे की दीवारें तीन से चार फ़ुट मोटी बनाई गई थीं I ये कमरा महल के बाक़ी कमरों से एकदम अलग थलग था। ख़ज़ाने की छत दोहरी परतों वाली थी जो मज़बूत पत्थरों से बनी थी। इस तरह ख़ज़ाने का वह कमरा एक अभेद्ध तहख़ाने की तरह लगता था।“
“अंदर के स्ट्रांग रुम और बाहरी दीवारों के बीच गलियारे में गोरखा सुरक्षाकर्मी गश्त लगा रहे थे। मुझे लगा कि रामपुर एकमात्र रियासत थी जिसे गोरखा रेजीमेंट रखने की इजाज़ थी। ये विशेषाधिकार उसे सन 1857 में अंगरेज़ और गोरखाओं के साथ हुए गठबंधन की वजह से मिला था।
“फिर नवाब और उनके भाई ने अपनी जेबों से अलग चाबी निकाली और दोनों चाबियों से जवाहरात वाले कमरे के बाहर के स्टील के दरवाज़े का डबल लॉक खोला। इस बीच एक स्ट्रांग बॉक्स लाया गया जिसे फिर दो चाबियों से खोला गया। इसके अंदर और चाबियां थीं जिनसे जवाहरात के कमरे के अंदर वाले दरवाज़े और भीतर बनी तिजोरियां खोली गई। चाबियों के अलावा अंदर वाली तिजोरियों में दोहरे कॉम्बिनेशन वाले ताले लगे हुए थे। ये कॉम्बिनेशन सिर्फ़ नवाब और जवाहरात कक्ष के रखवाले को ही पता था।”
वायसराय ने ये भी बताया कि इसके बाद नवाब ने उन्हें दिखाए गए डिब्बों में रखे आभूषणों के बारे में बताया। उन्होंने जब रामपुर के नवाब का स्टेट नेकलेस बताया तो आंखे फटी की फटी रह गईं। उनका दावा था कि नेकलेस में गोलकुंडा के चार अद्भुत हीरे जड़े हुए थे जिसे उन्होंने एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया दि क्लोंडाइक कहा था। अन्य दो हीरों को जुड़वां (The Twins) कहा जाता था। माउंटबैटन लिखते हैं:
“जवाहरात कक्ष के बाहर दालान में ख़ास मेज़ें और कुर्सियां लगाईं गईं थीं। मेज़ों पर सफ़ेद मेज़पोश बिछे हुए थे। वहां के अधिकारी बड़ी मुश्किल से जवाहरात से भरे भारी भरकम डिब्बे लेकर आए जिन्हें बारी बारी से खोलकर जवाहात हमारे सामने रख दिए गए। इतने सारे जवाहरात देखकर मुझे लगा मानों मेरे सामने अरेबियन नाइट्स की कोई कहानी सजीव हो गई हो।
नवाब के स्टेट नेकलेस में विश्व के बेहतरीन हीरों में से चार हीरे द एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया और ट्विंस जड़े हुए हैं। कोहीनूर और होप ऑफ़ डायमंड के बाद एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया को तीसरा सबसे बेहतरीन गोलकुंडा हीरा माना जाता था और मुझे लगा ये न सिर्फ़ चमत्कारी है बल्कि इसे बेहद ख़ूबसूरती से तराशा भी गया था।”
दिलचस्प बात ये है कि न तो इन हीरों का कहीं उल्लेख मिलता है और न ही जवाहरात के इतिहासकार इनका ज़िक्र करते हैं। ये रहस्मय पहेली है। माउंटबैटन ने जिस तरह मोतियों के तीन हारों सहित रामपुर के मोतियों का विवरण दिया है वो भी कम चौंकाने वाला नहीं है। वह लिखते हैं कि हारों में अंगूठे के नाख़ून के बराबर बड़े-बड़े मोती भी लगे थे।
“मोतियों का ऐसा संग्रह मैंने पहले कभी नही देखा। गले के तीन हार थे और प्रत्येक हार में छोटे मोतियों की लड़ियों के अलावा मेरे अंगूंठे के नाख़ून के बराबर मोती जड़े हुए थे। ये माला दुपट्टे के समान थी जिसे कंधे के ऊपर पहना जाता था और जो कूल्हों के नीचे तक जाता था और जिसमें मोतियों की तीस लड़ियां लगी हुई थीं। कोई व्यक्ति डिब्बे में अपना हाथ डालकर मुट्ठीभर मोतियां निकाल सकता था जो तक़रीबन सभी उच्च क़िस्म के थे। मैंने उनसे पूछा कितने मोती हैं, उन्होंने जवाब दिया दस हज़ार से ज्यादा!’ लेकिन सबसे चित्ताकर्षक थे छोटे मुकुट, ताज, गले के हार, कंगन, अंगूठियां, कान की बालियां और कंधे पर पहनने वाले ज़ैवरों सहित हीरों, रुबी और पन्ने आदि मोतियों के हार।”
हमें ये बात ध्यान में रखनी चाहिये कि सन 1926 में जापान के कोकिची मिकिमोतो ने मोती तराशने में महारत हासिल की थी। प्राकृतिक मोतियों की क़ीमत हीरों से तीन गुना ज़्यादा होती थी। चूंकि मोती प्राकृतिक रुप से बनते हैं, एक ही रंग और आकार के दो मोती मिलना बहुत मुश्किल था और इस वजह से एक लड़ी वाले मोतियों के हार की क़ीमत बहुत होती थी। आज उस साइज़ के प्राकृतिक बसरा मोती की क़ीमत लगाना अकल्पनीय है।
मोतियों के विज्ञान के दृष्टिकोण से त्रुटिहीन पन्ना का मिलना असंभव है और अगर मिल भी जाता है तो वे बेशक़ीमती होगा। माउंटबैटन ने नवाब के पन्ना के स्टेट नेकलेस का उल्लेख कुछ इस तरह से किया है:
“पन्ना के एक हार में जड़े रंगीन नग त्रुटिहीन थे लेकिन मुझे लगता है कि नवाब के संग्रह में गहरे हरे रंग के पन्ने वाली एक अंगूठी का नग सबसे बेहतरीन था। ये अंगूठी उनके दादा ने साठ साल पहले ढाई लाख रुपये में ख़रीदी थी।”
“ नवाब का दावा था कि उन्हेंने एडविना के पन्ने और मोतियों के बारे में सुन रखा है और वह युद्ध के बाद इंग्लैंड जाकर उन्हें देखना चाहते थे। दोपहर तीन बजे नवाब ने हमें रुख़्सत कर दिया और हम वापस जाकर बिस्तर पर गिर पड़े क्योंक हम बहुत थक चुके थे।”
कुछ साल पहले मुझे दिल्ली में भारतीय राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग में रामपुर के जवाहरात से संबंधित फ़ाइलें देखने का मौक़ा मिला। सन 1947 के मूल्यांकन के अनुसार पूरे संग्रह का मूल्य तीन करोड़ पचास लाख रुपये था। संग्रह का मूल्य बड़ौदा के महाराजा के संग्रह के बराबर और जयपुर के महाराजा के संग्रह से लगभग तीन गुना ज़्यादा था। सन 1947 में मुस्लिम लीग ने नवाब सर रज़ा अली ख़ान पर जूनागढ़ और हैदराबाद की तरह अपनी रियायत को भारत में विलय न करने का दबाव डाला लेकिन नवाब ने रियासत का प्रशासन भारत सरकार को सौंप दिया और इस तरह रामपुर उत्तर प्रदेश का हिस्सा बन गया। यही नहीं, सन 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद नवाब ने रामपुर में गांधी जी का एक स्मारक बनवाया जहां उनकी कुछ अस्थियां रखी गईं थीं।
रामपुर के जवाहरात के मामले में भारतीय राष्ट्रीय पुरातत्व विभाग के रिकॉर्ड्स के अनुसार सात चीज़ों को विरासत की सूची में डाल दिया गया जबकि बाक़ी जवाहरात उनकी पत्नी और सात बच्चों में बांट दिए गए। रामपुर के शाही ज़ैवरों की सूची इस प्रकार है-
1. हीरे का एक बड़ा हार
2. हीरे का एक बड़ा हार (नंबर 2)
3. पन्ना के दो हार
4. हीरे और मोती से जड़ा एक ताज
5. पन्ना, हीरे और रुबी से जड़ी एक तलवार की म्यान
6. हीरे जड़ी सोने की क़लई वाली एक तलवार
7. सोने और हीरे का एक बेल्ट
सन 1966 में नवाब सर रज़ा अली ख़ान का निधन हो गया औऱ इसके बाद रामपुर परिवार में संपत्ति का विवाद शुरु हो गया। 70 और 80 के दशक में ब्लिट्ज़ जैसे चटपटी ख़बरे छापने वाले अख़बारों ने रामपुर के जवाहरात की विदेशों में तस्करी, महल में रहस्यमयी चोरियों जैसी ख़बरें छापीं। सन 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद पारिवारिक विवाद ख़त्म हो गया। फ़ैसले के तहत संपत्ति उत्तराधिकारियों में बांटी जानी थी। लेकिन शाही घरानों पर नज़र रखने वालों को कोई हैरानी नहीं हुई जब शाही ख़ज़ाने में कुछ नहीं मिला।
बहरहाल, विवाद के परे रामपुर की निधि भारत के जवाहरात की विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कहा जाता है कि ऐसी कोई किताब नहीं है जिसमें रामपुर की शाही विरासत का उल्लेख मिलता हो। ऐसी आशा की जाती है कि इन निधियों की एक झलक रामपुर के इतिहास और ये जानने में नयी सिरे से दिलचस्पी पैदा कर देगी कि आख़िर तमाम जवाहरात गए तो कहां गए।
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