भारतीय राजनीति में धार्मिक आंदोलन तथा जनपद युग( छठी से तीसरी सदी.ई.पू.) बड़े ही महत्त्व की रही है, जिनमें जनपद शक्ति के केन्द्र थे। वर्तमान राजस्थान की सीमाएं मल्ल, अवन्ती, मालव सहित आदि अन्य साम्राज्यों से मिली हुई थीं। यहां का शिवि जनपथ मुख्य सांस्कृतिक केन्द्र था। साम्राज्य युग राजनीतिक दृष्टि से अखण्ड एकता की मिसाल रहा है। मौर्यकालीन सांस्कृतिक, मध्य देश की राजधानी रहे विराटनगर के शिलालेख और बौद्ध विहार से मिलती जुलती है। मौर्यों के पतन पर शुंगों का वर्चव बढ़ा, जो 184-93(ई.पू.) में ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान का काल माना जाता है। इस दौरान अश्वमेध यज्ञों से शुंग शासकों को ब्राह्मण धर्म को बढ़ावा देने में बड़ी सफलता मिली।
यहां के निवासी प्रागैतिहासिक युग से गुज़रकर महाकाव्य तथा पौराणिक काल में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज कराते हुए कई प्रकार के काव्यों और पुराणों के भी साक्षी रहे है। इनके माध्यम से गाथा, संवाद, देव-दानव संघर्ष, विविध देवताओं की प्रतिष्ठा की कथाएं प्रचलित हो गईं। संस्कार और कर्मकाण्ड के विधान, कर्म और पुर्नजन्म के सिद्धांत और यज्ञ इसी युग की देन माने गये हैं। आईये जानते हैं, इस विशेष रिर्पोट के माध्यम से राजस्थान में प्राचीन कालीन यज्ञ के प्रतीक रहें ‘‘यूप-स्तंभ’’ शिलालेखों के बारे में।
यूप–स्तंभ:-
प्राचीन काल में यज्ञ के अवसर पर यूप स्तंभ लगाने या स्थापित करने की परंपरा रही है। इन्हें यज्ञ का यूप या स्तंभ भी कहते हैं। इनके बारे में राजस्थान के प्राचीन अभिलेख ग्रंथ के लेखक डॉ. श्री कृष्ण ‘‘जुगनू’’ बताते हैं, कि कात्यायनादि श्रौत्रसूत्रों में इनकी परंपरा देखने को मिलती है। राजस्थान में प्रत्येक वास्तु और मांगलिक कार्यों में स्तंभ रोपण की परंपरा देखने को आज भी मिलती है। मौर्य सम्राट अशोक के स्तम्भों और इन यूपों के संबंध में प्रचलित लोकमान्यताओं में बड़ी समानता है। साक्ष्यों के आधार पर 187(ई.पू.) यवन राजा दिमित ने चित्तौड़ क्षेत्र पर आक्रमण किया था। 150(ई.पू.) मालवगण राजस्थान और मालवा में आकर बस गए थे। राज्य का बहुत सारा हिस्सा मालवा गणराज्य के अधीन रहा था। नगरी (धोसुंड़ी) लेख से मध्यमिका में संघर्ष, वसुदेव और बलदेव के देवालायों और एक चैरस आहते पर 36 फ़ुट ऊँचे स्तम्भ का सर्वातीत राजा द्वारा बनवाना आज भी धर्माश्रित वास्तु की विलक्षणता और समानता से तराशने की कला को प्रमाणित करता है। राजस्थान की विभिन्न जगहों पर स्थित यूपा, यू या यूप स्तंभ प्राचीन भारत में इस्तेमाल किये जाने वाला एक वैदिक बलिदान स्तंभ भी कहलाता है। यह वैदिक अनुष्ठान के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में से एक है। खुदे हुये शिलालेख वाले, पत्थर के स्तंभ मालवा गणराज्य, तीसरी शताब्दी के दौरान अनुष्ठानों को दोबारा बनवाये जाने की याद दिलाते है। इनपर संस्कृत लेख भी पाए गए हैं। पाणिनी के व्याकरण की मशहूर टिप्पणी पतंजलि ने की थी। उसी समय ब्राह्मण साहित्य भी खुब पनपा, जिसकी ध्वनि नांदसा, बरनाला बड़वा, बिचपुरिया सहित अन्य यूप स्तंभो से सुनाई देती है।
इन यूप अभिलेखों से जुड़ी अग्निवेदियों पर भी मुहरें मिली हैं। मौखरियों ने भी वैदिक धर्म का समर्थन किया था। वैदिक यज्ञों से जुड़े यह यूप महत्वपूर्ण स्थलों पर स्थापित किए गए थे। राजस्थान के अलावा ऐसे यूप स्तंभ इंडोनेशिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में भी संरक्षित किए हुए हैं, जिसमें ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ के अवसर पर गौ-दान प्राप्त करने तथा यहां के सबसे पुराने हिन्दू राज्यों के प्रमाण भी मिलते हैं। संस्कृत भाषा में उकेरे गए इन शिलालेखों में कुटाई या कुताई साम्राज्य में अश्वमेध समारोह आयोजित होने का उल्लेख किया गया है। यह साम्राज्य की सीमाओं को निर्धारित करने के लिए घोड़े की रिहाई का समारोह था। इन यूप स्तंभों के बारे में डॉ. दयाराम साहनी, डी.आर.भंडारकर, डॉ. एन.पी. चक्रवर्ती, गौरीशंकर हीराचंद औझा, ए.एस. अल्तेकर, आर.आर.हल्दर, अक्षय कीर्ति व्यास, डॉ. गोपीनाथ शर्मा, डॉ. सुखवीर सिंह गहलोत, डॉ. जयसिंह नीरज, डॉ. भगवती लाल शर्मा, डॉ. पुष्यमित्र सिंह देव, हंगरी के डैनियल बालोग, विजेन्द्र कुमार माथुर सहित अन्य पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भी लिखा है।
नांदसा का यूप स्तम्भ लेख:-
भीलवाड़ा जिले के गंगापुर से दस किमी दूर नांदसा ग्राम के पुराने तालाब क्षेत्र में स्थित दो पत्थरों को आम बोलचाल की भाषा में भीमरा-भीमरी के नाम से पहचाना जाता है। गांव वालों के अनुसार उनके पूवर्जों ने इनकी गहराई जानने की कोशिश की थी, मगर कोई कामयाबी नहीं मिली। यहां एक बार रक्त जैसी धारा भी निकली थी। कुछ लोग इन्हें भरख समीप के पहाड़ से भीम के फैंके गए भाले बताते हैं। कभी यहां बड़ी आबादी होने के प्रमाण भी मिले है। यह स्तम्भ बड़े लिंग के आकार और गोल हैं। इनकी ऊंचाई बारह फ़ुट और गोलाई चार फ़ुट है। एक स्तम्भ पर छह पंक्तियों और दूसरे पर बारह पंक्तियों का लेख उकेरा गया है। अक्षरों का औसतन आकार एक इंच के लगभग है। इन दोनों लेखों में लिखा गया विषय बुनियादी तौर पर एक ही है। इन लेखों से पता चलता हैं, कि शक्ति गुणगुरू नाम के व्यक्ति ने यहाँ षष्टिरात्र यज्ञ किया था, और इस घटना को पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य काल में उकेरा गया था। उस समय के क्षत्रपों के राज्य विस्तार और उत्तरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए यह लेख बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। एक लेख का समय चैत्र माह की पूर्णिमा, कृत संवत् 282 (ई. 225) है। स्तंभ की स्थापना सोम द्वारा की गई थी।
‘‘कृतयोद्वयोवर्षशतयोद्र्वयशीतयो चैत्यपूर्ण मास्याम्।’’
यह विक्रम संवत का प्राचीनतम ज्ञात अभिलेख है, जिसमें संवत को अंकों और शब्दों दोनों ही रूपों में लिखा गया है। यह गद्य लेख तीसरी सदी में प्रचलित ब्राह्मी लिपि में है, और संस्कृत भाषा की सुगंध का प्रतिनिधित्व करता है। कृत संवत्सर दो सौ बयासी चैत्र मास की पूर्णिमा के दिन मालवगण के प्रदेश, सत्र भूमि में ब्राह्मणों ही विद्वान हैं, वसोर्धारा संज्ञक बलि प्रदान करके जो समस्त आकांशाओं की धारा माया के सम तुल्य है। मालव वंश में, जो इक्ष्वाकु वंश के समान है। जयसोम का पुत्र सोगियों का नायक है, सोम द्वारा गौ दान किया गया है। इस अवसर पर पुष्कर जैसे महातड़ाक में यूप स्तम्भ प्रतिष्ठित करवाया।
बरनाला के प्राचीन यूप स्तंभ:-
बरनाला (दोसा) गांव से मिले दो यज्ञ स्तम्भों से भी दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में ब्राह्मण धर्म के पुनरूत्थान की बात पता चलती है। यह दोनों यूप स्तंभ वर्तमान में आमेर के दिल आराम बाग़ में सुरक्षित किए हुए है।
इन स्तम्भों पर कृत संवत् 284 (ई. 227) और कृत संवत् 335 (ई. 278) अंकित हैं। इनके अनुसार सौहर्त-गोत्रोत्पन्न वर्धन नामक राजा ने सात यूप-स्तम्भों की प्रतिष्ठा का पुण्यार्जन किया। दूसरे स्तंभ में गर्गत्रिरात्रि यज्ञ का उल्लेख किया हुआ है। ‘‘सिद्धं कृतेहि चैत्र शुक्लपक्षस्य पंचदशी सोहत्र्त सगोत्तस्य (राज्ञो) पुत्रस्य (राज्ञो) वर्धनस्य यूपसत्त को पुण्य व र्द्धकं भवतु,” इन दोनों स्तम्भों पर खड़ी लाईनों में संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में यज्ञ से संबंधित तथ्यों का वर्णन अंकित है। इसमें तीन रातों में, पांच यज्ञों के दौरान राजा भट्ट द्वारा भगवान विष्णु की आराधना कर, नब्बे गायें मय बछड़ों के दान करने का भी वर्णन है।
बिचपुरिया यूप स्तम्भ:-
उनियारा (जयपुर) के पास बिचपुरिया गाँव के मंदिर के आँगन में स्थित है। यह छह फीट ऊँचाई वाला स्तम्भ है। यह क्षेत्र प्राचीन मालव क्षेत्र का भू-भाग रहा था। इससे यह जानकारी मिलती है, कि उस समय लोग वैष्णव धर्म में श्रद्धा रखते थे, और यज्ञानुष्ठान को दैनिक क्रिया के रूप में सम्पन्न करते थे। इसमें धरक का परिचय अग्निहोत् के रूप में दिया गया है। ‘‘सं. 321 (ई. 264) फागुन शुक्लपक्षस्य प´्चदश अहिशर्म अग्नि होतुस्य धरक पुत्रस्य यूपश्चपुण्य मेधतु।’’
विजयगढ़ यूप स्तम्भ:-
यह विजयगढ़ (भरतपुर) में स्थित है, जिसमें राजा विष्णु वर्धन पुत्र यशोवर्धन द्वारा पुंडरीक नामक यज्ञ किये जाने का उल्लेख है। यह लेख मालव विक्रम संवत् 428 (ई. 371) का है।
बड़वा यूप स्तम्भ:-
कोटा (अंता) के पास इस छोटे से गांव में तीन यूप स्तम्भ लेख मिलेथे। जिनकी लिपि तीसरी शताब्दी की है। इनमें भी त्रिरात्र यज्ञों का उल्लेख है जिनको बलवर्धन, सोमदेव तथा बलसिंह नामक तीन भाईयों ने सम्पादन किया था। दूसरे लेख में मौखरी धनत्रात नाम तथा वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा को दर्शाते है। कृत संवत् 295 (ई. 238) इस लेख का पाठ इस प्रकार से है- ‘‘मोखरे हस्तीपुत्रस्य धीमतः अप्तोभ्यम्णिः कृतो यूपः ……..
इस प्रकार यह सभी अन्तराष्ट्रीय महत्त्व के यूप स्तम्भ शिलालेख संस्कृति के पुर्ननिर्माण के लिए बहुत ही ठोस प्रमाणों के रूप में काम आ रहे हैं। इनसे विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है। इन स्तम्भों ने राजस्थान के कालक्रम और राजनीतिक इतिहास को बनाने में महत्वपूर्ण मदद की है। इसी वजह से इन यूप स्तम्भों का संरक्षण देने की आवश्यकता है।
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