ये रेडियो कांग्रेस है….सारे जहां से अच्छा हिंदौस्तां हमारा……
हम सभी ने अंग्रेज़ी हुक़ुमत से आज़ादी के लिये गांधी जी का आंतिम अव्हान यानी भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में ख़ूब सुना है लेकिन क्या आपको पता है कि इसी वजह से ज़्यादातर नेताओं को जेल में डाल दिया गया था? ऐसे वक़्त में भारत की जनता की एकमात्र आशा और ताक़त था रेडियो।
8 अगस्त सन 1942 को महात्मा गांधी ने बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की थी। गांधी जी के “ करो या मरो “ के नारे के बाद लाखों लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सड़कों पर निकल आए थे। उस समय ब्रिटेन दूसरे विश्व युद्ध में उलझा हुआ था। ब्रिटिश हुकूमत ने और गांधीजी के आव्हान से पैदा हुई समस्या से निपटने के लिये उसने गांधी जी के भाषण के कुछ ही मिनटों बाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लगभग सभी नेताओं को बिना किसी अदालती कार्वाई के जेल में डाल दिया ताकि बाहरी दुनिया से उनका सम्पर्क टूट जाये।
ऐसी घड़ी में बॉम्बे के युवाओं ने गांधी जी के आंदोलन को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और इन्हीं में कॉलेज की छात्रा थी उषा मेहता जो साम्राज्यवाद के विरोध की आवाज़ बनीं, सही मायने में विरोध का स्वर। उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ एक भूमिगत रेडियो स्टेशन शुरु किया जहां से देशभक्ति का प्रचार किया जाता था। उस रेडियो स्टेशन का नाम था कांग्रेस रेडियो।
उस समय भारत में और भारत से बाहर जाने वाली ख़बरों को सेंसर किया जाता था। प्रिंट मीडिया को आसानी से दबा दिया जाता था। ऐसे में उषा मेहता, राम मनेहर लोहिया, अच्युतराव पटवर्धन, पुरुषोत्तम त्रिकमदास, चंद्रकांत बाबुभाई झावेरी और विठ्ठलदास के. झावेरी ने नेताओं की गिरफ़्तारी के सप्ताह भर के भीतर, लोगों तक पहुंचने के लिये रेडियो को ज़रिया बनाने के बारे में सोचा।
हालंकि भारत में रोडियो प्रसारण 1920 से ही मौजूद था, लेकिन इस टैक्नोलॉजी पर सरकार का सख़्त नियंत्रण था। प्राइवेट रोडियो स्टेशन से संगीत, वार्ता और आम ख़बरों का ही प्रसारण होता था। ऐसे दौर में रेडियो पहली बार स्वतंत्रता संग्राम का साधन बना।
उषा मेहता और उनके साथी जब रेडियो स्टेशन स्थापित करने के उपायों के बारे में सोच रहे थे तभी शिकागो रेडियो कंपनी के नानिक मोटवाने उनकी मदद के लिये आगे आये। ये कंपनी रेडियो, टेलीकम्युनिकेशन्स और लाउड स्पीकर के कारोबार में थी। देश की आज़ादी के लिये मोटवाने ने रेडियो उपकरण और यहां तक कि टैक्निशियन भी सप्लाई किये। उषा महता ने रेडियो मैकेनिक्स के एक टीचर से उनके लिये एक पोर्टेबल रेडियो बनाने को कहा। रेडियो स्टेशन की स्थापना के लिये बॉम्बे के अनाज व्यापारियों, व्यापारिक घरानों, टमज़दूर संगठनों और कपड़ा व्यापारियों से चंदा मिला।
तमाम तैयारी के बाद बॉम्बे के चौपाटी इलाक़े में सी-व्यूह बिल्डिंग के टॉप फ़्लोर पर एक फ़्लैट किराये पर लिया गया जहां से पहली बार 27 अगस्त 1942 को प्रसारण किया गया। प्रसारण की शुरुआत “ सारे जहां से अच्छा….” जैसे देशभक्त गानों से हुई और अंत “वंदे मातरम” से हुआ। बीच में, देश की घटनाओं की ख़बरें होती थीं जैसे महाराष्ट्र के अष्टि चिमूर इलाक़े की हिंसक वारदात या चट्टगांव में बम छापे। लोहिया, पटवर्धन, मोईनुद्दीन हारिस औक कूमी दस्तूर जहां अंग्रेज़ी में समाचार पढ़ते थे वहीं उषा मेहता हिंदी में ख़बरें पढ़ती थीं।
लोगों को सूचनाएं देने के अलावा कांग्रेस रेडियो साउंड वेव के ज़रिये देश के दूर दराज़ के इलाक़ों में बग़ावत का संदेश भी देता था। नेताओं की गिरफ़्तारी के बावजूद रेडियो ने जनता से विरोध जारी रखने की अपील की। रेडियो से धर्मनिर्पेक्षता हिंदू-मुस्लिम एकता के भी संदेश दिये जाते थे।
बहुत जल्द रेडियो कांग्रेस को लोग फ़्रीडम रेडियो के रुप में जानने लगे और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके श्रोताओं की संख्या बढ़ गई। शाम साढ़े सात बजे लोग रेडियो के पास जमा हो जाते थे जिस पर उषा मेहता की ये आवाज़ आती थी, “बयालिस दशमलव तीन चार मीटर पर ये रेडियो कांग्रेस है जिसका प्रसाऱण भारत के किसी एक हिस्से से हो रहा है।
लेकिन जैसा कि अंदेशा था, रेडियो प्रसारण पर अंग्रेज़ सरकार की नज़र पड़ गई। वो इसे बंद करना चाहती थी। लेकिन रेडियो आपरेटर्स भी होशियार थे, वे पुलिस छापे से बचने के लिये जगह बदलते रहते थे। रिकॉर्डिंग और प्रसारण के स्थान अलग-अलग हुआ करते थे।
पुलिस ने शहर में सिग्नल पकड़ने के लिये एक वैन लगा दी लेकिन वैन की ट्रांसमिशन पकड़ने की दूरी 3-4 कि.मी. होती थी और इसकी ज़द में आने से बचने के लिये कांग्रेस रेडियो की टीम इस रेडियस से दूर चली जाती थी। कई बार तो वे बाल बाल बच गये। तमाम भागम भाग के बावजूद कांग्रेस रेडियो से, कभी भी एक प्रसारण भी नहीं छूटा।
8 अक्टूबर 1942 से सीआईडी स्पेशल ब्रांच ने रेडियो कांग्रेस प्रसारण की निगरानी शुरु कर दी। प्रसारण की रिकॉर्डिंग के लिये पुलिस के स्टेनोग्राफ़र नियुक्त किये गये।
सरकार की निगरानी के कारण आख़िरकार तीन महीने बाद रेडियो कांग्रेस का पता चल गया। पुलिस को इसकी जानकारी किसी और ने नहीं बल्कि टीम के ही एक सदस्य ने दे दी। प्रिंटर नाम के टैक्निशियन को पुलिस ने नवंबर 1942 को गिरफ़्तार किया था और उसने सारी बाते उगल दीं। रेडियो ऑपरेटर्स पांच महीने जेल में रहे और अप्रेल 1943 में उन्हें अदालत में पेश किया गया। उषा मेहता को चार साल की क़ैद की सज़ा सनाई गई।
हालंकि रेडियो कांग्रेस मुश्किल से तीन महीने ही चल पाया लेकिन इसके बावजूद उसने देश की आज़ादी की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दिलचस्प बात ये है कि इस घटना को बीते क़रीब 80 साल हो चुके हैं लेकिन वक़्त बदला नहीं है। आज आप देख सकते हैं कि कैसे देश के युवा सोशल मीडिया को राजनीतिक औज़ार के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे 1942 में युवाओं ने रेडियो का किया था।
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