पुणे: जहां शुरु हुआ था गणेशोत्सव

गणपति बप्पा मोरया….गणपति बप्पा मोरया….।

गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र के सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है। इस मौक़े पर पूरा महाराष्ट्र दस दिनों तक “गणपति बप्पा मोरया” के बुलंद नारों से गूंज रहा होता है। महाराष्ट्र में ये उत्सव बहुत धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जब गणेशोत्सव की बात आती है, तो पुणे शहर का ज़िक्र ज़रूर होता है। क्योंकि इसी शहर से इस त्योहार की शुरुआत हुई थी। पुणे में आठ गणेंश मंदिर हैं, जो ‘अष्टविनायक’ नाम से प्रसिद्ध हैं। हम आपको शहर के कुछ सबसे प्रमुख गणेश मंदिरों के बारे में बताने जा रहे हैं।

पुणे का गणपति के साथ एक लंबा रिश्ता रहा है। शहर और उसके आस-पास के इलाक़ों में कई सदियों से गणेश देवता की पूजा की जाती आ रही है। 13वीं-17वीं शताब्दी के बीच, गणपति के प्रबल उपासक और गणपति संप्रदाय के प्रमुख संतों में से एक मोरया गोसावी पुणे के पास रहते थे। उन्होंने गणेश की पूजा को प्रचलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गणेश की इस पूजा को मराठा राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के शासन के दौरान प्रमुखता मिली। इसके बाद पेशवाओं ने भी इसे लोकप्रिय बनाया, जिन्होंने 18वीं-19वीं शताब्दी तक शासन किया था और जिनकी राजधानी पुणे हुआ करती थी।

कहा जाता है, कि पेशवा गणपति को अपना कुल देवता मानते थे। कहा जाता है, कि पुणे के आसपास के प्रसिद्ध अष्टविनायक (आठ गणेश मंदिरों का एक समूह) इसी दौरान लोकप्रिय हुए थे। जैसे-जैसे पेशवा सत्ता में आते गये, वैसे-वैसे उनका प्रभाव भी बढ़ता गया। पेशवाओं के शासन के दौरान पुणे में गणेश उत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाता था, खासकर उनके निवास शनिवारवाड़ा में। लेकिन सन 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद, पेशवाओं के पतन के साथ ही अंग्रेज़ों ने पुणे पर क़ब्ज़ा कर लिया और भव्य समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया।

19वीं शताब्दी के अंत में  पुणे निवासी कृष्णजीपंत खासगीवाले ने ग्वालियर में एक सार्वजनिक गणेशोत्सव देखा था। उन्होंने इसके बारे में चिकित्सक और स्वतंत्रता सेनानी भाऊ रंगारी को बताया, जो स्वतंत्रता गतिविधियों में सक्रिय थे। रंगारी को लगा, कि ये क्रांतिकारियों के मिलने-जुलने और सार्वजनिक सभाओं के लिये एक अच्छा अवसर हो सकता है। सन 1892 में उन्होंने बुधवार पेठ, पुणे में एक सार्वजनिक गणपति मंडल (ट्रस्ट) की स्थापना की। लोकमान्य तिलक ने इस विचार की बहुत सराहना की। उन्हें लगा, कि ये लोगों में सांस्कृतिक जागरूकता फैलाने और राष्ट्रीय भावना पैदा करने के लिये समाज के हर वर्ग को एकजुट करने का ज़रिया हो सकता है। सन 1893 में  तिलक ने पूरे शहर में गणपति मंडलों की स्थापना की, और बड़े पैमाने पर गणेश उत्सव मनाकर गणेशोत्सव को पुनर्जीवित कर, लोकप्रिय भी बनाया।

पुणे शहर में पांच गणपतियों को पूजने की एक अनूठी परंपरा है, जिन्हें स्थानीय रूप से मनाचे गणपति के नाम से जाना जाता है। उनके इतिहास, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के आधार पर उन्हें जुलूस में वरीयता देने की परंपरा रही है, जो आज भी जारी है। पुणे में जहां कई गणपति हैं, वहीं हम आपको उन गणपतियों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनके दर्शन के लिये 10-दिवसीय उत्सव के दौरान सबसे अधिक श्रद्धालु उमड़ते हैं।

कसबा गणपति

कस्बा गणपति, छत्रपति शिवाजी के समय का हैं। यह पुणे के ग्राम देवता हैं। कहा जाता है, कि बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह ने सन 1600 के दशक की शुरुआत में एक युद्ध के दौरान पुणे को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया था। कुछ वर्षों बाद  शहर को दोबारा बनाने का काम शुरू हुआ। सन 1630 में, शाहजी भोंसले जीजाबाई और छत्रपति शिवाजी आठ परिवारों के साथ कर्नाटक से आकर पुणे में बस गये। ऐसा कहा जाता है, कि पुणे के पहले आठ परिवारों में से एक परिवार के सदस्य विनायक भट्ट ठाकर को सन 1630 में अपने घर के पास एक “स्वयंभू गणपति” की मूर्ति मिली थी। जब छत्रपति शिवाजी की मां जीजाबाई को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने मूर्ति के लिए एक मंदिर बनवाया। माना जाता है, कि इसके बाद शहर में ख़ुशहाली और समृद्धी आनी शुरु हो गई। अभिलेखों के अनुसार ये मूर्ति सन 1619 की है। पेशवाओं के शासनकाल में मंदिर में बदलाव किये गये थे।

शहर के सबसे पुराने और सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक होने की वजह से इसे पुणे का पहला पूजनीय गणपति बनाया गया था। आज भी सभी शुभ अवसरों पर कई लोग कसबा गणपति को पहला निमंत्रण देते हैं।

ताम्बड़ी जोगेश्वरी

शहर के सबसे पुराने मंदिरों में से एक, ताम्बड़ी जोगेश्वरी पुणे में दूसरे पूजनीय गणपति हैं। दिलचस्प बात यह है, कि यह दरअसल देवी ताम्बड़ी (लाल) जोगेश्वरी को समर्पित एक मंदिर है। देवी ताम्बड़ी दुर्गा का एक रुप है। यह पुणे की अधिष्ठात्री देवी हैं।

असली मंदिर सन 1545 में त्रिमबक बेंद्रे ने देवी की मूर्ति के चारों ओर बनवाया था। 18वीं शताब्दी में पेशवाओं ने यहां एक बड़े मंदिर का निर्माण करवाया था। कहा जाता है, कि पेशवा देवी के बहुत बड़े उपासक थे। मंदिर की लोकप्रियता और पवित्रता को देखते हुये तिलक ने, सन 1893 में गणेशोत्सव के मौक़े पर मंदिर में गणपति की एक मूर्ति स्थापित की, और इसे दूसरे पूजनीय गणपति का दर्जा दिया गया। हर साल गणपति की मूर्ति को विसर्जित किया जाता है, और मूर्ति की एक नई प्रतिकृति या नक़ल बनाई जाती है।

 गुरुजी तालीम

गुरुजी तालीम मंडल शायद सबसे अनोखे गणपति मंडल में से एक है। इसकी स्थापना सन 1887 में हुई थी। महाराष्ट्र में अखाड़ों को तालीम कहा जाता है। यह मंडल एक तालीम के भीतर स्थापित किया गया था,  इसीलिए इसका नाम गुरुजी तालीम पड़ा। मंडल की स्थापना हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक भीकू पांडुरंग शिंदे, शेख़ लालभाई, वस्ताद नलबंद और नानासाहेब खासीगीवाले ने की थी। सांस्कृतिक महत्व के कारण यह जुलूस में शामिल होने वाले तीसरे पूज्य गणपति हैं।

तुलसीबाग

चौथे सम्मानित तुलसीबाग गणपति हैं। पेशवा काल से ही यह मंदिर लोकप्रिय रहा है। तुलसीबाग का प्राचीन राम मंदिर सन 1761 में पानीपत की लड़ाई के बाद पेशवा काल के दौरान नारो अप्पाजी खीरे (तुलसीबाग वाले) की देखरेख में बनाया गया था। सन 1901 में, परिसर में गणेश मंदिर में गणपति उत्सव शुरू हुआ। तुलसीबाग में गणपति को शहर में बड़ी मूर्तियों का अग्रदूत कहा जाता है। यह पुणे की सबसे ऊंची मूर्तियों में से एक है, जिसकी ऊंचाई 13 फ़ुट से अधिक है और इसे चांदी के गहनों से सजाया गया है।

केसरी वाड़ा

पांच पूजनीय गणपतियों में से अंतिम गणपति केसरी वाड़ा में हैं। इस जगह का एतिहासिक महत्व है। पहले इसे गायकवाड़ वाड़ा के नाम से जाना जाता था। यह सयाजीराव गायकवाड़ का निवास स्थान हुआ करता था। सन 1905 में इसे लोकमान्य तिलक ने ख़रीद लिया था। यह स्थान उनकी मृत्यु तक उनका कार्यालय और निवास रहा। ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण बैठकें भी वाड़ा में आयोजित की जाती थीं। तिलक ने यहीं से उन्होंने अपने अपना प्रतिष्ठित समाचार पत्र केसरी निकाला था, और इसीलिये इस जगह का नाम केसरी वाड़ा पड़ गया।

तिलक ने सन 1893 में अपने ख़ानदानी मकान, विंचुरकर वाड़ा से गणेशोत्सव की शुरुआत की थी जो बाद में में केसरी वाड़ा में मनाया जाने लगा। आज, केसरी वाड़ा एक संग्रहालय है, जिसमें लोकमान्य तिलक की निजी चीज़ें रखी हुई हैं। हर साल गणेशोत्सव के दौरान, यहां तिलक की एक बड़ी कांस्य प्रतिमा के सामने गणपति की स्थापना की जाती है।

श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी गणपति मंदिर

इस लोकप्रिय गणपति की स्थापना सन 1892 में भाऊ साहेब लक्ष्मण जावले ने की थी। वह एक चिकित्सक और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनका साड़ियों को रंगने का पारिवारिक व्यवसाय भी था, जिसकी वजह से उन्हें भाऊ रंगारी के नाम से भी जाना जाता था। कहा जाता है, कि उन्होंने पुणे में पहले सार्वजनिक मंडल की स्थापना की थी। वास्तव में तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में सन 1893 में इस मंडल की कोशिशों की सराहना भी की थी।

कहा जाता है, कि भाऊ रंगारी को अंग्रेज़ों के डर के बिना, क्रांतिकारियों के लिए बैठकें आयोजित करने और स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित आवश्यक जानकारी इधर से उधर पहुंचाने के लिए एक स्थान की ज़रूरत महसूस हुई। इस काम के लिए एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें नानासाहेब खसगीवाले, दगडूसेठ हलवाई और बालासाहेब नाटू जैसे क्रांतिकारी शामिल हुए थे। इसके बाद मंडल की स्थापना हुई। इस मंडल की मूर्ति अनोखी है। लकड़ी और भूसे से बनी इस मूर्ति में गणेश को एक राक्षस का वध करते दर्शाया गया है। कहा जाता है, कि ये ब्रिटिश शासन और बुराई पर अच्छाई की जीत के बारे में, रंगारी के सपने का प्रतीक है। दिलचस्प बात यह है, कि इस मंडल की 3 फ़ुट की मूर्ति रंगारी ने अपने हाथों से बनाई थी। 

श्रीमंत दगडूसेठ हलवाई गणपति मंदिर

इस प्रतिष्ठित मंदिर के बिना पुणे में गणपति की कोई सूची पूरी नहीं हो सकती। मंदिर का निर्माण दगडूशेठ हलवाई और उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई ने करवाया था। उनका कर्नाटक में मिठाई का सफल कारोबार था। लेकिन वह पुणे आकर बस गये थे। इस बीच, सन 1800 के दशक में उन्होंने अपने इकलौते बेटे को खो दिया था, जो प्लेग का शिकार हो गया था। इस हादसे से उनपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा, और मन की शांति के लिये उन्होंने मंदिर बनवाया। मंदिर, सन 1893 में बनकर तैयार हो गया और जैसे-जैसे सार्वजनिक गणेशोत्सव लोकप्रिय होता गया, मंदिर की लोकप्रियता भी बढ़ती गई। आज यह पुणे के सबसे प्रतिष्ठित और सबसे अमीर गणपति मंदिर में से एक है।

आज, हलचलों से भरपूर और लम्बे इतिहास के साथ, गणेशोत्सव पुणे की संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुका है।

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