ओडिशा में पट्टचित्र कला से कई लोक कथाएं जुड़ी हुई हैं और इनका पुरी के भगवान जगन्नाथ से गहरा संबंध है जो कृष्ण के अवतार थे। ज्येष्ठ माह में (मई-जून) की पूर्णिमा पर जगन्नाथ के देवताओं को गर्मी से बचाने के लिये स्नान के लिये ले जाया जाता है। माना जाता है कि पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ का जन्म हुआ था। ये वो दिन है जब हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु स्नान-यात्रा में शामिल होते हैं। इस पवित्र यात्रा में जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई भालभद्र की मूर्तियों को स्नान के लिये ले जाया जाता है। माना जाता है कि स्नान की वजह से देवी-दोवता जुलाई में आषाण (जून-जुलाई) के पहले पखवाड़े में पन्द्रह दिन के लिये बीमार हो जाते हैं।
इस समय श्रद्धालु अपने देवी-देवताओं के दर्शन नहीं कर सकते। यही वह समय होता है जब ओडीशा के रघुराजपुर गांव के चित्रकार पट्टचित्र पेंटिंग बनाते हैं। परालाखेमुंडी, छिटकी, दाना साही और सोनपुर में भी चित्रकार इस तरह की पेंटिंग बनाते हैं। इस कला को पहले अनासार पट्टी कहा जाता था लेकिन ये कला अब पट्टचित्र के नाम से जानी जाती है। इस कला की शुरुआत पुरी में जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियों की पूजा के विकल्प के रुप में हुई थी
पुरी का जगन्नाथ मंदिर पूर्वी गंग राजवंश शासकों ने बनवाया था जिन्होंने 5वीं शताब्दी सी.ई. शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी सी.ई तक भारत में राज किया था। इस समय के शासक कला और धर्म के बड़े संरक्षक थे। उनके शासनकाल में ओडीशा में मुख्यत: मंदिरों से संबंधित कला, शिल्प और वास्तुकला ख़ूब फूलीफली थी।
रघुराजपुर पुरी से क़रीब 14 कि.मी. दूर है जहां पटचित्र बनाने वाले चित्रकार रहते हैं। माना जाता है कि ये गांव 13वीं शताब्दी के पूर्वी गंग राजवंश के शक्तिशाली राजा नरसिम्हा देव प्रथम ने बनवाया था। सदियों से यहां रहने वाले चित्रकार ख़ुद को सबर आदिवासी के वंशज मानते हैं। अमूमन इनके उपनाम महाराणा, महापात्र और सुबुधि होते हैं।
रघुराजपुर के चित्रकार युनिवर्स महाराणा ने हमें पटचित्र कला के बारे में बताया और ये जानकारी दी कि ताड़ के पत्ते पर चित्रकारी करने की प्रक्रिया क्या होती है। ताड़ के पत्ते पर चित्रकारी को तालपत्र चित्र कहा जाता है।
पट का अर्थ कपड़ा होता है जबकि चित्र का मतलब पेंटिंग है। जैसा कि नाम से ज़ाहिर संस्कृत है, पट्टचित्र पारंपरिक रुप से कपड़े पर बनाई जाती है जिसे आसानी से लपेटा जा सकता है। पट्ट कपड़े, अमूमन पुरानी साड़ियों से बनाया जाता है जिन पर कलफ़ न लगा हो। इन कपड़ों को इमली के बीज से बनाए गए पेस्ट से जोड़ा जाता है। ये पेस्ट बनाने के पहले इमली के बीज को 2-3 दिन तक भिगोकर रखना होता है और इसके बाद ही इसे पीसकर पेस्ट बनाया जाता है जो चिपचिपा होता है। कपड़े को चिपकाने वाले इस गोंद का पारंपरिक नाम नीर्यास कल्प है। कपड़ों की और तहों को चिपकाने के लिये इमली के बीज के साथ कैथा या बेल के रस का भी प्रयोग किया जाता है। वांछित मोटाई मिलने पर कपड़े को धूप में सुखाया जाता है और इस तरह पट्ट तैयार हो जाता है।
में मुलायम ओडिशा मिट्टी का पत्थर ख़ूब मिलता है जिसका इस्तेमाल नक्काशी करने और वास्तुकला में किया जाता है। इस पत्थर को पीसकर इमली के बीज के पेस्ट में मिलाया जाता है और पट पर ब्रश से लगाया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद पट को सुखाया जाता है। इसके बाद पट की सतह को गोलाकार पत्थर, सीपी या लकड़ी के चिकने टुकड़े से धिसा जाता है। लंबा पट तैयार होने के बाद उसे कई हिस्सों में काटकर उन पर चित्रकारी की जाती है। इन दिनों पटचित्र बनाने में कपड़े के अलावा टसर सिल्क का भी प्रयोग किया जाता है।
पट्टचित्र चूंकि स्वदेशी तकनीक और सामान का स्तेमाल किया जाता है, इसलिये ये कला असाधरण है। पट्टचित्र बनाने में जिन रंगों का प्रयोग किया जाता है वे एकदम प्राकृतिक होते हैं। सफ़ेद रंग बनाने के लिये सीपियों का पावडर बनाकर, उसे पानी में डाला जाता और फिर गर्म किया जाता है और इस तरह से दूधिया सफ़ेद रंग तैयार हो जाता है। इसी तरह काला रंग बनाने के लिये मिट्टी के बर्तन को जलते दीये से निकलने वाले धुएं के ऊपर रखा जाता है। कैथा( कबीट) या बेल के रस को पावडर में मिलाकर गोंद बनाया जाता है। हरा रंग हरे पत्तों और हरे पत्थर से बनाया जाता है।
इसी तरह लाल रंग बनाने के लिये स्थानीय पत्थर हिंगुला के पावडर का इस्तेमाल किया जाता है। एक अन्य स्थानीय पत्थर हरितल का इस्तेमाल पीला रंग बनाने में किया जाता है। एक और स्थीनाय पत्थर खंडनील से नीला रंग बनाया जाता है। जगन्नाथ के चित्र बनाने के लिये इन पांच रंगों का प्रयोग किया जाता है जिसे पंच-तत्व भी कहा जाता है। कथा के चरित्र के भाव या रस को में रंग का बहुत महत्व होता है। हास्य रस के लिये सफ़ेद, रौद्र रस के लिये लाल और अद्भत रस के लिये पीले रंग का प्रयोग किया जाता है। कृष्ण के चित्र में नीला और राम के चित्र में हरा रंग प्रयोग होता है। इन पांच प्रमुख रंगों को मिलाकर क़रीब 120 और रंग बनाये जाते हैं। नारियल के ख़ोल का इस्तेमाल बर्तन के रुप में किया जाता है जिसमें रंगों को घोला जाता है। इसी तरह पतले ब्रश बनाने के लिये चूहे के बालों का इस्तेमाल किया जाता है जबकि भैंस के बाल और केया जड़ से मोटे ब्रश बनाये जाते हैं।
ताड़ के पत्ते पर की जाने वाली तालपत्र चित्रकला पट्टचित्र कला की एक विशेष शैली है। ताड़ के पत्तों को पहले दो-तीन महीने तक धूप में सुखाया जाता है और फिर पानी में भिगोने के बाद इन पर हल्दी का लेप लगाया जाता है। इस प्रक्रिया से ताड़ का पत्ता सैंकड़ों साल तक ख़राब नही होता। आवश्यकता के अनुसार इन ताड़ के पत्तों को जोड़कर स्क्रोल बनाया जाता है। इसके बाद लोहे की बारीक सुई से इन पर चित्रकारी की जाती है। चित्रकारी में इस तरह के औज़ार का प्रयोग प्राचीन समय से होता रहा है। बहरहाल, लोहे की सुई से चित्र बनाने के बाद पत्ते को दीये की कालिख से रगड़ा जाता है ताकि जिन खांचों पर चित्रकारी की गई है उन्हें भरा जा सके। पत्ते पर बची रह गई कालिख को साबुन और पानी से धोया जाता है और फिर खांचों में भरी कालिख को जमने के लिये छोड़ दिया जाता है। तालपत्र चित्रों में पौराणिक कथाओं और दृश्यों को दर्शाया जाता है। पटचित्र स्क्रोल में कुछ स्क्रोल बड़े दिलचस्प होते हैं। इस तह पेंटिंग में एक चित्र तो सामने नज़र आता है लेकिन तह खोलते ही अंदर छुपा उत्तेजक कामसूत्र चित्र भी सामने आ जाता है।
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता चित्रकार निरंजन मोहराणा ने हमें पट्टचित्र और पौराणिक विषयों पर आधारित रुपांकनों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने इसके लिये उस पेंटिग का उदाहरण दिया जिसके लिये उन्हें सन 2004 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
पट्टचित्र पेंटिंग का मुख्य विषय जगन्नाथ देवता होते हैं और यह कला मुख्यत: पूजा और धार्मिक अनुष्ठान से संबंधित है। इस कला के ज़रिये मंदिर में जगन्नाथ को उनके भाई बालभद्र और बहन सुभद्रा के साथ कुलदेवता के रुप में दर्शाया जाता है। जगन्नाथ काले, बालभद्र सफ़ेद और सुभद्रा पीले रंग में होते हैं। पट्टचित्र में जगन्नाथ को श्रेष्ठ पति के रुप में दिखाया जाता है। जगन्नाथ के चित्र में उनका बहुप्रसिद्ध मुख बहु प्रतीकात्मक होता है। उनकी दो बड़ी आंखें सूर्य और चंद्रमा का प्रतिनिधित्व करती हैं। जगन्नाथ दरअसल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिये उन्हें आनंदी माना जाता है यानी जिसका न प्रारंभ है और न ही अंत।
जगन्नाथ को विष्णु भगवान का अवतार माना जाता है। पट्टचित्र में भी विष्णु के कई पहलुओं को दिखाया जाता है। पट्टचित्र में विष्णु को दशावतारों के रुप में दिखाया जाता है। इन चित्रों को दंत कथाओं को गाकर जगन्नाथ को समर्पित किया जाता है।
ओडीशा के कई गांवों में राधा-कृष्ण के प्रेम पर आधारित प्रसिद्ध साहित्यिक कृति गीत-गोविंद पढ़ी जाती है और ताड़ के पत्तों पर इन कथाओं का चित्र के माध्यम से वर्णन किया जाता है।
पट्टचित्र कला के चित्रों में रामायण, महाभारत और भगवद गीता के प्रकरण चित्रित किये जाते हैं। कुछ चित्रों में धार्मिक रीति-रिवाजों और देवी-देवताओं की पूजा के विभिन्न तरीक़ों को भी दिखाया जाता है। चित्रों में दुर्गा, गणेश और ओडीशा नृत्य करती नृतकी को भी ख़ूब दिखाया जाता है। ओडीशा की लोक कथाओं को भी चित्रों में बहुत स्थान दिया जाता है।
भारत की अन्य जगहों की तरह यहां भी कला और वास्तुकला का गहरा संबंध है। उदाहरण के लिये जिस तरह भुवनेश्वर के पास उदयगिरी और खंडगिरी की गुफाओं में पौराणिक कथाओं का वर्णन देखने को मिलता है उसी तरह पट्टचित्र में भी वराह के रुप में विष्णु के अवतार या फिर बलि के वराह को दर्शाया जाता है।
प्रकृति आधारित पट्टचित्र में जीवन दायी पेड़, पक्षियों और जानवरों को दर्शाया जाता है जो कला का बेहद सुंदर रुप हैं। काम कुंजरा और कंडरप रथ के चित्रों में अविवाहित कन्याओं को दिखाया जाता है। रथ और हाथी के चित्रों में बड़ी संख्या में अविवाहित कन्याओं को चित्रित किया जाता है। कुछ चित्रों के विषय उत्तेजक भी होते हैं।
भारतीय कला इतिहासकार ओ.सी. गांगुली का मानना है कि पट्टचित्र कला अनूठी होने की वजह से न सिर्फ़ भारतीय चित्रकला इतिहास में बल्कि विश्व के कला इतिहास में असाधारण है।
पट्टचित्र कला सिर्फ़ ओडीशा तक सीमित नही है। इस तरह की पेंटिंग पश्चिम बंगाल में की जाती है।
ओडीशा की पट्टचित्र कला को जीआई टैग मिल चुका है। द् इंडियन नैशनल ट्रस्ट फ़ॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज (इंटैक) सन 2000 में रधुराजपुर को धरोहर गांव घोषित कर चुका है।
गत वर्षों में पट्टचित्र पेंटिग को पुनर्जीवित करने के कई प्रयास किये जा चुके हैं। हालंकि आज भी पट्टचित्र पेंटिग बनाईं जाती हैं लेकिन ज़रुरी ये है कि रघुराजपुर जैसे गांवों को न सिर्फ़ हमें बल्कि समूचे विश्व को महत्व देना चाहिये। दुर्भाग्य से ओडीशा में सन 2019 में आए तूफ़ान में पट्टचित्र की कई बहुमूल्य पेंटिंग्स नष्ट हो गईं।
बी.मोहंती ने अपनी किताब पट्ट-पेंटिग्स ऑफ़ ओडीशा में भारतीय कला का गहन अध्ययन करने वाले चेकोस्लावाकिया के विद्वान डॉ. एम. क्रासा के बयान का ज़िक्र किया है जो इस तरह हैं-“ ओडीशा पेंटिग्स का संसार अनोखा है, ये अपने आप में एक दुनिया है जहां हर चीज़, हर बेल-बूटा अपना रुप, अपना स्थान, अपना महत्व नहीं बदलता। ये वो संसार है जहां हर जानवर की अपनी ही अलग विशेषता है,हर व्यक्तित्व की अपनी पहचान है जिसे प्राचीन ग्रंथों, धार्मिक पौराणिक कथाओं औऱ स्थानीय परंपराओं ने पारिभाषित किया है। ये पौराणिक कथाओं का संसार है, ये लोक कल्पनाओं का संसार है, ये लाखों किसानों, मछुआरों, शिल्पियों, उनकी ख़ुशियों, उनके दुखों, उनकी आस्थाओं के प्रतिबिंब का संसार है। पेंटिंग उनके रचयिता की भाषा बोलती हैं, वे वास्तविक भाव, स्पष्ट संकेत पैदा करते हैं। जीवन को दर्शाती ये पेंटिग्स जानी पहचानी और दिल के क़रीब लगती हैं जिन्हें देखकर मन प्रसन्न हो जाता।”
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