पाटलीपुत्र: राजवंशों के उदय और पतन का गवाह

पटना शहर आज बिहार राज्य की राजधानी है लेकिन क्या आपको पता है कि 2500 साल पहले पटना, पाटलीपुत्र के नाम से मगध साम्राज की राजधानी हुआ करता था । इस लिहाज़ से देखें तो पटना भारत के प्राचीनतम शहरों में से एक है।

गंगा और सोनभद्र नदी के संगम पर स्थित पाटलीपुत्र की बुनियाद आजातशत्रु (4वीं-5वीं ई.पू. सदी) ने डाली थी जो राजा बिंबसार के पुत्र और मगध के हर्यक राजवंश के राजा थे। आजातशत्रु बुद्ध के समय राजा बने थे और उन्होंने वैशाली को, लिच्छवी के लगातार हमलों से बचाने के लिए पाटलीग्राम (तब इसे इसी नाम से जाना जाता था) के चारों तरफ़ एक मज़बूत दीवार बनवाई थी।

माना जाता है कि एक बार जब बुद्ध राजगीर से, वैशाली जा रहे थे तब वह इस शहर में रुके थे और उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन यह नगर महान बनेगा। अंग्रेज़ खोजकर्ता कर्नल वैडल के अनुसार बुद्ध ने कुछ इस तरह से भविष्यवाणी की थी: “प्रसिद्ध महलों और भीड़भाड़ वाले बाज़ारों के बीच पाटलीपुत्र महान शहर का रुप लेगा लेकिन इसे तीन चीज़ों से ख़तरा होगा – आग, पानी और आंतरिक कलह।”

आजातशत्रु की मृत्यु के बाद उनके पुत्र और उत्तराधिकारी उदयन ने पाटलीपुत्र के सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए राजगीर की जगह इसे मगध की राजधानी बना लिया। इसकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि मथुरा, ताम्रलिप्त, इलाहाबाद, बनारस, पंजाब और दिल्ली जैसे महत्वपूर्ण शहरों से सड़क मार्ग से आसानी से जुड़ा जा सकता था । लेकिन ये भी विडंबना ही है कि 175 ई. में इन्हीं मार्गों से बैक्ट्रियन यूनानियों ने पाटलीपुत्र पर हमले किये थे।

पाटलीपुत्र के चारों तरफ़ नदियां हुआ करती थीं और व्यापारी बहुत आसानी से यहां आते जाते थे । इसी वजह से ये व्यापार का केंद्र बन गया था।

पाटलीपुत्र का गौरव और यहां लोगों की आबादी बढ़ती गई और यह नंद, मौर्य, शुंग, गुप्त और पाल शासकों की राजधानी बना रहा । चीनी भिक्षु फ़ाहियान यहां 399-414 ई.पू. में आए थे और यहां तीन साल रुककर उन्होंने अध्ययन किया था। उनका कहना था कि भवनों पर जड़ित भव्य नक़्क़ाशी और लकड़ी की कलाकृतियों का विश्व में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है।

चंद्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) के दरबार में यूनान के शासक सेल्युकस प्रथम निकेटर के राजदूत रहे मेगस्थनीज ने अपनी किताब “ इंडिका “ में लिखा है कि पाटलीपुत्र विश्व के उन पहले शहरों में से एक था जहां का स्थानीय प्रशासन बहुत कुशल था।

धीरे धीरे पाटलीपुत्र गहमागहमी और हलचल वाला महानगर बन गया । मौर्य शासन में पाटलीपुत्र संस्कृति और ज्ञान का केंद्र बन गया था। चाणक्य ने यहीं अपनी किताब “ अर्थशास्त्र “ की रचना की थी।

सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 269 – 232) के शासनकाल में पाटलीपुत्र और भी ऊंचाईयों पर पहुंच गया था । उन्हीं के शासनकाल में ये शहर बौद्ध धर्म का केंद्र बना और इस दौरान कई महत्वपूर्ण मठों की स्थापना हुई। अशोक ने ही सबसे पहले भवनों के निर्माण में पत्थरों का इस्तेमाल किया था। इसके पहले भवन निर्माण में पत्थरों का इस्तेमाल न के बराबर होता था।

यूनानी भूगोलवेत्ता तथा इतिहासकार स्ट्रेबो (64 ई.पू-21 ई) अपनी किताब ज्योग्राफ़िया में लिखते हैं, “गंगा और एक अन्य नदी के समागम पर स्थित है पालीबोथरा (यूनानी पाटलीपुत्र को इसी नाम से बुलाते थे। इसका आकार समानांतर चतुर्भुज है । इसके चारों तरफ़ लकड़ी की एक दीवार है जिसमें छोटी छोटी खिड़कियां बनी हुई हैं जहां से तीर चलाए जा सकते हैं । सुरक्षा के लिए सामने एक खाई है जहां शहर का गंदा पानी जमा होता है । दीवार पर 570 बुर्ज और 46 दरवाज़े हैं ।”

कालीदास पाटलीपुत्र को पुष्पपुर यानी फूलों का शहर कहा करते थे । इस प्रसिद्ध शहर का पतन चौथी सदी में गुप्त काल में शुरु हुआ । हमें पतन के कारण के बारे में तो नहीं पता लेकिन अगर बुद्ध की भविष्यवाणी को देखें तो लकड़ी के भवनों में लगने वाली आग, कई नदियों के संगम की वजह से आई बाढ़ या फिर शाही महल में पैदा हुई आंतरिक कलह, पतन के कारण हो सकते हैं।

चीनी यात्री ह्वेन त्सांग जब सन 637 में पाटलीपुत्र आया तब उसे सिर्फ़ खंडहर ही दिखे जो शायद आज आधुनिक शहर के नीचे कहीं दबे हों । ये शहर काफ़ी समय तक गुमनामी के अंधेरे में रहा लेकिन एक बार फिर ये तब चर्चा में आया जब ये शेर शाह सूरी (1486-1545 ) के साम्राज का हिस्सा बन गया । शेर शाह सूरी ने ही इसे नये सिरे से बनाया और इसे पटना नाम दिया।

कई बड़े राजवंशों के उदय और पतन का गवाह रहे पाटलीपुत्र में आज सिवाय बलुआ पत्थरों की कुछ जर्जर मीनारों के, देखने लायक़ कुछ नहीं बचा है।

क्या आप जानते हैं ?

पाटलीपुत्र में सन 1913 और सन 1917 के बीच ए.बी. स्पूनर की देखरेख में पहली बार खुदाई हुई थी और इसके लिए सर रतन टाटा ने क़रीब 75 हज़ार रुपये दिए थे।

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