भारत की आज़ादी की लड़ाई सिर्फ़ देश में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी लड़ी गई थी। ये ऐसा कैनवास था जिसके तहत विदेशों में रह रहे भारतीय क्रांतिकारियों को, भारत में अंग्रेज़ हुक़ूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष करने का वसर दिया।
ये कहानी है एक ऐसे भारतीय क्रांतिकारी की जो 20वीं शताब्दी के आरंभ में यूरोप, अमेरिका, सोवियत संघ, जापान और चीन जाकर अंग्रेज़ साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मोर्चे का हिस्सा बना। ये कहानी उस भारतीय क्रांतिकारी कि है जिसने ब्रिटिश गुप्तचर सेवा को चकमा देकर वहां हरित-क्रांति की नींव डाली। ये कहानी है महाराष्ट्र के एक पिछड़े गांव के एक ऐसे युवा की जिसका नाम इतिहास में दर्ज होना तय था।
चलिये शुरुआत करते हैं डॉ. पांडुरंग के आरंभिक जीवन से। डॉ. सदाशिव पांडुरंग ख़ानखोजे का जन्म सन 1886 में महाराष्ट्र में वर्धा में उस समय हुआ था जब पश्चिमी तर्ज़ की शिक्षा और बंगाल के विभाजन जैसी घटनाओं को लेकर जागरुकता फैल रही रही थी। इन घटनाओं ने आज़ादी के परवानों की एक नस्ल को जन्म दिया जिसे क्रांतिकारी कहते हैं।
खानखोजे, वर्धा में आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिये बड़े शहर नागपुर चले गए। उनके दादा भी क्रांतिकारी थे जिन्होंने सन 1857 की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था। उनके दादा ने हीं उनके भीतर समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों के बीज बोए थे।
जवानी में ही खानखोजे के भीतर आज़ादी की आग लग चुकी थी । वह बालगंगाघर तिलक जैसे नेताओं से बहुत प्रभावित थे। 19वें दशक की शुरुआत में उनकी पहली मुलाक़ात तिलक से हुई और तभी से वह भारत में अंग्रेज़ हुक़ूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष का सपना देखने लगे।
खानखोजे को तिलक की सलाह
तिलक की सलाह पर खानखोजे जापान गये। उनकी इस यात्रा का मक़सद, पोर्ट आर्थर में, सन 1904 में, रुस-जापान युद्ध में, रुसी सेना पर जापानी सेना की जीत को समझना था। उन्होंने चीन गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति सन यात सन सहित कई चीनी क्रांतिकारियों से मुलाक़ातें कीं। चीनी नेताओं ने देश के विकास में कृषि के महत्व के बारे में उन्हें बताया जिसका उन पर गहरा असर पड़ा। इन नेताओं से मुलाक़ात ने भविष्य में अमेरिका में उनके काम की नींव डाली। उनका अमेरिका जाना एक इत्तेफ़ाक़ ही था।
ख़ानखोजे की बेटी डॉ. शिवानी साहने ने अपनी किताब “रिवेल्यूशनरी वर्क:पांडुरंग ख़नखोजे एंड टीना मॉडेटी” में लिखती हैं कि उनके पिता सन 1906 में चीनी मज़दूरों के साथ, जल मार्ग से अमेरिका गए थे। ये मज़दूर, भूकंप से बुरी तरह तबाह हो गये सेन फ़्रांसिस्को शहर के दोबारा खड़ा करने अमेरिका गए थे।
ग़दर पार्टी
सेन फ़्रांसिस्को में डॉ. पांडुरंग को उनकी कमज़ोर शारीरिक काया की वजह से मुश्किलों को सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। ख़ानखोजे ने होटल में वैटर की नौकरी की, बर्तन धोकर तथा अस्पताल में सहायक के रुप में काम करके कैलिफ़ोर्निया और बर्कले यूनिवर्सिटी में कृषि विषय की पाढ़ाई की ।
सन 1910 में उन्होंने कृषि से जुड़े विषय पर शोध किया और डॉक्टर की उपाधि हासिल की । इसी दौरान उन्होंने स्पेन के ख़िलाफ़ लातिन अमेरिकी देशों के संघर्ष, मैक्सिको-क्रांति और अंग्रेज़ साम्राज के ख़िलाफ़ आयरलैंड के क्रांतिकारियों की बग़ावत के बारे में भी अध्ययन किया। एक साल बाद उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के लिये माउंट टैमालपैस सैन्य अकादमी में दाख़िला लिया और हथियार चलाने की ट्रैनिंग ली।
अमेरिका में खानखोजे ने भारतीय प्रवासियों, ख़ासकर पंजाबियों से मुलाक़ात की जो बेहतर रोज़गार की तलाश में बड़ी संख्या में अमेरिका पहुंच चुके थे। उन्होंने भारत में अंग्रेज़ों के लगाए गए दमनकारी प्रतिबंधों की वजह पश्चिम की ओर रुख़ किया था। अमेरिका में अप्रवासियों के लिये जीना आसान नहीं था । पंजाबियों को अमेरिका में सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। उन्हें इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए एक मंच की तलाश थी। ख़ानखोजे भी उन्हीं की तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे थे इसलिये दोनों के बीच तालमेल बैठ गया।
खानखोजे ने अपनी मुहिम के लिए गतिविधियां तेज़ कर दीं और अमेरिका में भारतीय प्रवासियों से मेलजेल जारी रखा। इस दौरान उन्होंने पंडित कांशीराम और सोहन सिंह बखाना के साथ मिलकर इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की। बहुत जल्द तीनों ने स्टैमफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर लाला हरदयाल से भेंट की और उनके साथ मिलकर ग़दर पार्टी बनाई जिसका पहले नाम पैसेफ़िक कोस्ट हिंदुस्तान एसोसिएशन था। ग़दर पार्टी ने अमेरिका में भारतीय प्रवासियों में राष्ट्रवादी भावना की अलख जगा दी और पंजाब में भी व्यवस्थित रूप से विद्रोह की चिंगारी लगाई।
इसके अलावा ख़ानखोजे ने भारत में अंग्रेज़ों से लड़ने के लिये मैक्सिको के अपने क्रांतिकारी दोस्तों की मदद से पोर्टलैंड, ओरेगन में ग़दर पार्टी के एक सहयोगी के खेतों में, कई भारतीय अप्रवासियों और पूर्व सैनिकों को प्रशिक्षण दिया।
हिंदू-जर्मन साज़िश
पहला विश्व युद्ध शुरु हो चुका था और अमेरिका में भारतीय क्रांतिकारी दूसरे अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी गुटों से सहयोग करने लगे थे। उन्हें जर्मनी और तुर्की में क़रीबी सहयोगी भी मिल गए। इस क़रीबी सहयोग की वजह से ख़ानखोजे सहित ग़दर पार्टी हिंदू-जर्मन साज़िश के केंद्र में आ गई। ये साज़िश का मतलब ,भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत था । जिसे जर्मन विदेश विभाग ऑटमन तुर्की ( उस्मानिया-तुर्की) और आयरिश रिपब्लिकन आंदोलन का समर्थन प्राप्त था।
पंजाबी इतिहासकार डॉ. जसपाल सिंह ने अपने शोध में लिखा है कि जर्मन फ़ौजी मध्य एशिया से भारत की तरफ़ बढ़ रहे थे। यहां ख़ानखजे की भेंट जर्मन फ़ौज के लीडर विल्हेल्म वासमस से हुई और दोनों मिल कर एक फ़ौज तैयार की, ताकि बलुचिस्तान के रास्ते भारत में दाख़िल हुआ जा सके। इस दौरान खानखोजे ने स्थानीय क़शक़ाई क़बीलों के साथ एक साल बिताया। दरअसल तब खानखोजे, अंग्रेज़ों के साथ हुई मुठभेड़ में लगी चोट से उबर रहे थे।
लेनिन से मुलाक़ात
सन 1915 आते आते ग़दर आंदोलन फीका पड़ गया था। आंदोलन में शामिल कई क्रातिकारियों और उनके नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था। इनमें से कई लोगों को रंगून, सिंगापुर और भारत में या तो फांसी पर लटका दिया गया था या फिर मौत के घाट उतार दिया गया। इन सब के बावजूद खानखोजे ने हिम्मत नहीं हारी। वह पेरिस जाकर मैडम भीकाजी कामा से मिले। इसके बाद वह बर्लिन में भारतीय स्वतंत्रता सैनानी सरोजनी नायडू के भाई वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय से भी मिले। यहां उन्होंने स्वाधीनता के लिये वैसा ही संघर्ष किया जैसा उन्होंने अमेरिका में ग़दर पार्टी में रहते हुए किया था।
इन घटनाओं से ख़ानखोजे नये उत्साह से भर गए। अब वह व्लादीमीर लेनिन से मिलने के लिये बेक़रार थे। रुसी क्रांति के बाद लेनिन का सारे विश्व में नाम हो चुका था। खाननखोजे सन 1917 में लेनिन से मिलने रुस पहुंच गये। इस मुलाक़ात के बारे में डॉ. शिवानी ने कहा,
“शुरु में खानखोजे के प्रतिनिधि मंडल को मिलने की इजाज़त नहीं मिली। बाद में मुलाक़ात के लिए खानखजे को चुना गया और दोनों (खानखोजे और लेनिन) ने विस्तार से बातचीत की। इसके बावजूद मुलक़ात का कोई नतीजा नहीं निकला क्योंकि रुसियों की अधिक दिलचस्पी, फ़ारस के लोकतांत्रिक आंदोलन थी। इसके बावजूद खानखोजे सारी ज़िंदगी लेनिन के आदर्शों के हिमायती रहे।“
मैक्सिको के वृतांत
दूसरी बार विफल होने के बाद खानखोजे के पास बस एक ही विकल्प बचा था। अंग्रेज़ों ने हिंदू-जर्मन साज़िश को नाकाम कर दिया था और वह खानखोजे को गिरफ़्तार करना चाहते थे। अंग्रेज़ों के जासूसों से बचने के लिये खानखोजे मैक्सिको भाग गये जहां वह क्रांतिकारियों के संपर्क में पहले से थे। ये सन 1924 की बात है। श्रीकृष्ण सरला ने अपनी किताब इंडियन रिवोल्यूशन:1757-1961- ए कॉम्प्रेहेंसिव स्टडी (वॉल्यूम-2) में लिखा है कि तब तक खानखोजे बर्लिन वापस आ चुके थे जहां उन्होंने भूपेंद्रनाथ दत्त और वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ मिलकर भारतीय छात्रों का एक संगठन बनाया था। उस दौरान एक तरफ़ जहां अमेरिका भी युद्ध में कूद पड़ा था, वहीं दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ जासूसों का भी ख़तरा बना हुआ था। ऐसे में ख़ानखोजे के लिये मैक्सिको से बेहतर और सुरक्षित जगह कोई दूसरी नहीं हो सकती थी।
इस तरह वह मैक्सिको चले गये अपनी किताब में डॉ. शिवानी साव्हने ने बताया है कि उनके पिता को भूखे रहना पड़ रहा था, तब ही उन्होंने मैक्सिको शहर के पास एक्सोचिमिल्को में सब्ज़ियां उगानी शुरू की थी। उन्होंने मैक्सिको में, क्रांति के समय के अपने पुराने क्रांतिकारी दोस्तों की तलाश शुरु की। उनके दोस्त रैमोन पे. डी नेग्री कृषि मंत्री बन चुके थे और दूसरे दोस्त लुइस मानज़ोन सांसद थे। अपने संपर्कों और कृषि में दिलचस्पी की वजह से वह चैपिंगो में राष्ट्रीय कृषि स्कूल में प्रोफ़ेसर बन गए।
खानखोजे स्पेन की भाषा सीखकर देश भर में किसानों के साथ काम करने लगे। जल्द ही उन्हें मेहसूस हुआ कि फ़सल की अच्छी क्वालिटी और बेहतर लाभ के लिये मैक्सिको के किसानों को नयी तकनीक और वैज्ञानिक तरीक़े सीखने की बहुत ज़रुरत है। उन्होंने मक्का की अधिक उपज वाली क़िस्मे ईजाद कीं और सूखे की स्थिति को ध्यान में रखते हुए गेंहू की फ़सल तैयार करने का अध्ययन किया। पौधा-आनुवंशिकी उनके क्रातिकारी प्रयासों का विषय बन चुका था।
इस दौरान उनकी मुलाक़ात मैक्सिको के महान चित्रकार और भित्ति-चित्रकार दिएगो रिवेरासे हुई। दिएगो खानखोजे के, मैक्सिको में स्थापित मुफ़्त कृषि स्कूल के समर्थक थे। दोनों कम्युनिस्ट थे और दोनों के आदर्श एक जैसे थे।
रिवेरा ने ख़ानखोजे की मुलाक़ात एक अन्य कॉमरेड टीना मोडेटि से करवाई जो इटली की मशहूर समाजिक कार्यकर्ता और आर्टिस्ट थीं। तीनों में अच्छी दोस्ती हो गी थी । टीना ने मैक्सिको में उस समय मौजूद सामाजिक परिस्थितियों को अपने कैमरे में क़ैद किया। इसके अलावा टीना ने खानखोजे के साथ मिलकर मैक्सिको के किसानों के हितों के लिये काम किया।
खानखोजे का मुख्य उद्देश्य किसानों को खेती की नयी तकनीक सिखाना और उनके जीवन-स्तर को सुधारना था। खानखोजे के प्रयासों और प्रयोगों से मैक्सिको में मक्का की बहुत अच्छी फ़सल होने लगी और देखते ही देखते सारे लातिन अमेरिकी देशों में यहां का मक्का लोकप्रिय हो गया। उनके प्रयासों ने मैक्सिको में हरित-क्रांति की बुनियाद डाली जिसका नेतृत्व डॉ नॉर्मन वोर्लॉग कर रहे थे। खानखोजे के शोध का उन भारतीय वैज्ञानिकों ने भी अध्ययन किया जिन्होंने भारत में हरित-क्रांति की शुरुआत की। लेकिन खानखोजे को मैक्सिको में को शोहरत टीना मोडोटि की खींची गईं तस्वीरों और रिवेरा की बनाई पैटिंगों की वजह से मिली।
सन 1947 में भारत को आज़ादी मिल गई लेकिन खानखोजे स्वदेश वापसी से हिचक रहे थे क्योंकि अंग्रेज़ों ने उनके देश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। आख़िरकार वह सन 1955 में वह, बेल्जियम की रहने वाली अपनी पत्नी जेन और दो बेटियों सावित्री और माया के साथ भारत वापस आये।
भारत सरकार ने खानखोजे को आर्थिक मदद की पेशकश की थी जो उन्होंने ठुकरा दी। उन्होंने सरकार से कहा कि ये रक़म देश में कृषि के विकास में लगा दी जाये। बाद का समय उन्होंने सार्वजनिक जीवन से कटकर पवित्र ग्रंथों को पढ़ने में गुज़ारे 22 जनवरी सन 1967 में 81 की आयु में डॉ. पांडुरंग सदाशिव खानखोजे ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनका जीवन असाधरण था जो शुरु तो हुआ अंग्रेज़ हुक़ूमत से लड़ने वाले एक क्रांतिकारी के रुप में लेकिन अंत हुआ एक ऐसे क्रांतिकारी के रुप में जिसने विदेशी ज़मी पर लाखों लोगों की भूख मिटाई।
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