उत्तराखंड में नानक सागर नाम की एक कृत्रिम झील है जिसे देवहा नदी पर बांध बनाकर बनाया गया था। लेकिन सिखों के लिए ये झील किसी चमत्कार से कम नहीं है क्योंकि वे नहीं मानते कि यह झील इंसान की बनायी हुई है। कहा जाता है कि एक बार जब पहले सिख गुरु नानकदेव अरदास के दौरान पास के एक नगर में रुके थे तब स्थानीय योगियों ने अपने योग के दम पर उस क्षेत्र के सभी कुओं को सुखा दिया था। इसके बाद तंज़ करते हुए उन्होंने गुरु नानक से नहाने के लिए पानी उपलब्ध कराने को कहा।
चूंकि गुरु नानक ने अपने तीसरे अरदास पर यहां यात्रा समाप्त की थी इसलिए सिखों के लिए ये स्थान पवित्र तीर्थस्थल है। देवहा नदी के तट पर बना गुरुदारा नानकमत्ता देखने में बहुत सुंदर है हालंकि इसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। गुरु नानक ने अपने अनुयायी भाई मरदाना को नदी के तट से मिट्टी पर एक लकड़ी से रेखा खींचने को कहा। रेखा खींचते ही उस पर पानी भर गया जिसे आज नानक सागर कहा जाता है। बांध के बीच में एक कुआं है जिसे बावड़ी साबिह कहते हैं।
लेकिन नानकमत्ता की कहानी आरंभिक 16वीं शताब्दी में गुरु नानक के आने के पहले की है। इससे पहले कुमाऊं की पहाड़ियों में घना जंगल हुआ करता था जहां योगियों का निवास होता था जो 11वीं शताब्दी के गुरु गोरखनाथ के अनुयायी थे।
गुरु नानक का अचानक गोरखमत्ता पहुंचना योगियों को पसंद नही आया। गुरु नानक को वहां से भगाने के लिए वे लगातार उन पर व्यंग करते रहते थे। एक किवदंती पीपल के एक पेड़ के बारे में है जो सूख गया था। इसके नीचे गुरु नानकदेव भजन कीर्तन किया करते थे। एक दिन उन्होंने अपने अनुयायी भाई मरदाना से कहा कि जब वह कीर्तन करें तब वह रबाब (वाद्य यंत्र) बजाएं। कहा जाता है कि जैसे ही गुरु नानक जी ने कीर्तन करना और भाई मरदाना ने रबाब बजाना शुरु किया, पीपल के मुरझाए पेड़ में जान आ गई और वह हरा-भरा हो गया।
इस चमत्कार से योगी बहुत नाराज़ हो गए और वे अपनी शक्ति से पेड़ को जड़ से उखाड़ने लगे लेकिन जब पेड़ ज़मीन से पांच फुट ऊपर था, तभी गुरु नानक ने अपना हाथ उठाया और पेड़ को उखड़ने से वहीं रोक दिया। यह पेड़ पंजा साहिब नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि गुरुद्वारा नानकमत्ता परिसर में जो पीपल का पेड़ है वो वही पवित्र पेड़ है।
ट्रेवल ऑफ़ गुरु नानक (1969) के लेखक सुरेंदर कोहली ने इस किताब में इस तरह के कई चमत्कारों का उल्लेख किया है जो गुरु नानकदेव और योगियों के बीच लगातार लड़ाई के दौरान हुए थे। गुरु जी नानकमत्ता में दो महीने रुके थे और फिर लखीमपुर खिरी चले गए थे। उत्तर-पश्चिमी गुरुद्वारा नानकमत्ता से महज़ 400 मीटर दूर एक छोटा सा गुरुद्वारा है जिसके साथ भी एक चमत्कार की घटना जुड़ी हुई है। 17वीं शताब्दी में नानकमत्ता में एक ऐसी घटना हुई जिसका किसी को अंदाज़ा नहीं था। गुरुद्वारा नानकमत्ता के प्रभारी ने सिखों के छठे गुरु हरगोविंद से शिकायत की, कि गोरखपंथी योगी अपने पुराने ढर्रे पर लौट गए हैं और उन्हें परेशान कर रहे हैं। गुरुद्वारा के प्रभारी बाबा अलमस्त ने कहा कि उन्हें भगाने के लिए योगियों ने पीपल के पेड़ में आग लगा दी। गुरु नानक न सिर्फ़ गुरुद्वारे गए बल्कि योगियों से पीपल वापस भी ले लिया और पेड़ के जले हिस्सों पर केसर छिड़का जिससे पेड़ फिर जीवित हो गया। गुरुद्वारा नानकमत्ता के पास बाबा अलमस्त की स्मृति में भी एक छोटा सा गुरुद्वारा बनाया गया है। नानकमत्ता के पड़ोस में एक और गुरुद्वारा है जहां माना जाता है कि गुरु नानक ने 50 कि.मी. दूर पीलीभीत रवाना होने से पहले अपने घोड़े को बांधा था। इसी तरह पीलीभीत में भी एक गुरुद्वारा है जो उनकी स्मृति में बनवाया गया था।
एच.आर. नेविल के, नैनीताल डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर्स (1904) के अलावा अन्य कई किताबों में नानकमत्ता का उल्लेख मिलता है। नानकमत्ता का “एक ऐसे छोटे से गांव के रुप में उल्लेख है जिसकी आबादी 571 थी।” गज़ेटियर्स के अनुसार “ये स्थान मूलत: सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के गुरुद्वारे के लिए प्रसिद्ध है। इस गुरुद्वारे का उल्लेख औरंगज़ेब के समय का है और इसे स्थानीय लोग बहुत पवित्र मानते हैं।”
योगियों द्वारा गुरु जी को तंग करना जारी था। इस बार योगियों ने उनसे भोजन मांगा। गुरु जी ने भाई मरदाना से बरगद के पेड़ पर चढ़कर पेड़ की शाखाओं को हिलाने को कहा। कहा जाता है कि मरदाना ने जैसे ही पेड़ की शाखाओं को हिलाया, ऊपर से भोजन गिरने लगा और तभी से ‘भंडारा साहिबा’ (वह स्थान जहां लोगों को मुफ़्त भोजन परोसा जाता है) की परम्पा शुरू हुई । इसी जगह एक छोटा सा गुरुद्वारा बनाया गया था।
18वीं शताब्दी में ये क्षेत्र रोहिल्लाओं के अधीन था और इतिहास में नानकमत्ता को एक ऐसा सुरक्षित जंगल बताया गया था जहां स्थानीय लोग मराठों और मुग़लों के हमलों के वक़्त पनाह लेते थे। नानक बांध का निर्माण सन 1962 में हुआ था जबकि जिस गुरुद्वारे को हम आज देखते हैं, उसका निर्माण सन 1975 में हुआ था। इंडो-अरबी शैली में सफ़ेद संग मरमर से बना ये गुरुद्वारा खिली धूप में नदी के तट पर किसी मोती की तरह चमकता है। यहां विभिन्न धर्मों के मानने वाले आते हैं और इसका शांतिपूर्ण माहौल पूजा-अर्चना के लिए अनुकूल है। ये जगह गुरु नानक के धैर्य और क्षमा के संदेश की याद दिलाती है जिसका पालन उन्होंने योगियों के साथ अनबन के समय भी किया था।
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