मैसूरु का राज महल

कर्नाटक के शाही शहर की कभी न भुलाई जानेवाली तस्वीर अगर कोई है तो वह है काले आकाश के बीच चमकता हुआ मैसूरू महल । लेकिन क्या आपको पता है कि ठीक इसी जगह पर बनने वाला यह चौथा महल है?

लेकिन हम आपको इस महल के बारे में कुछ बताएं, उससे पहले इसका थोड़ा इतिहास जानना भी ज़रूरी है। मैसूरू का नाम महिषासुर के नाम पर रखा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार दानव महिषासुर ने प्राचीन काल में इस क्षेत्र के कुछ हिस्से पर राज किया था। दुर्गा का एक ऱूप यानी चामुंडी देवी ने उसका बध किया था। उसके बाद चामुंडी देवी मैसूरू के शासक वंश वाडियार की संरक्षक बन गई थीं । वाडियार वंश की शुरूआत यादवराय वाडियार (1399-1423) ने की थी।

इनका आरंभ विजयनगर राजशाही के एक जागीरदार की तरह हुआ था। उन्होंने पहला मैसूरू महल बनवाया, जो लकड़ी का था। लेकिन तालिकोट के युद्ध (सन 1565) के बाद विजयनगर राजशाही बिखरने लगी थी। सत्ता में ख़ालीपन का फ़ायदा उठाकर राजा वाडियार ने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उन्होंने अपने लगभग 38 वर्ष (1578-1617) के शासन में एक छोटी सी रियासत को बड़े राज्य में बदल दिया। उन्होंने मैसूरू के बजाय श्रीरंगापट्टनम को अपनी राजधानी बना लिया। श्रीरंगापट्टनम, कावेरी नदी के बीच एक ख़ूबसूरत द्वीप है। इस तरह राजधानी का दुश्मनों से प्राकृतिक सुरक्षा भी मिल गई।

सन 1638 में बिजली गिरने से यह महल तबाह हो गया था। कांतिराव नसारा राजा वोडियार (1638-1659) ने इसे दोबारा बनवाया। उन्होंने पुराने महल में कुछ नयी इमारतें और बनवा दीं। लेकिन इस महल की रौनक़ ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रही । 18वीं सदी में चिक्का देवराज वाडियार (1638-1659) की मृत्यू के बाद रियासत में अफ़रातफ़री फैल गई।

सन 1760 से सन 1799 तक मैसूरू पर हैदर अली ने राज किया। हैदर अली कृष्ण वादडियार-द्वितीय (1734-1766) की सेना का सिपहसालार था। उसके बाद हैदर अली के बेटे टीपू सुल्तान ने सल्तनत को बहुत फैलाया। इस उठापटक में मैसूर महल की बड़ी अंदेखी हो गई। आख़िर में सन 1793 में टीपू सुल्तान ने इसे पूरी तरह धवस्त करवा दिया।

सन 1799 में टीपू सुल्तान अंगरेज़ों के हाथों श्रीरंगापट्टनम की जंग में मारा गया। अंगरेज़ों ने रियासत की बागडोर पांच वर्ष के राजकुमार कृष्णा वाडियार-तृतीय (1794-1868) को सौंप दी। उसके वाडियार राजवंश अंगरेज़ों के अधीन हुकुमत करने लगा।

मैसूरू को दोबारा राजधानी बनाया गया। राजा की पहली ज़िम्मेदारी नया महल बनवाना था। यह महल तीसरी बार बनाया जाना था। लेकिन जल्दबाज़ी में बनाया गया यह महल ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया। सन 1897 में चमराजा वाडियार की बड़ी बेटी की शादी के अवसर पर आग लगने से पूरा महल जल गया।

कृष्णराजा वाडियार-चतुर्थ के ज़माने में ही मौजूदा मैसूरू महल चौथी बार बनवाया गया। यह महल उनकी माता यानी वाणी विलास सनदिहाना की महारानी कैम्पा ननजाम्मन्नी ( 1895-1902) की देखरेख में बनवाया गया।क्योंकि वह नाबालिग़ राजकुमार की सरपरस्त की हैसियत से हुकुमत का कामकाज देख रहीं थीं।

मैसूरू महल

ब्रिटेन के मशहूर आर्किटैक्ट हैनरी इरविन ने महल का नक्शा तैयार किया था। यह महल सन 1912 में बनकर तैयार हुआ था। इसके निर्माण पर कुल साढ़े इक्तालीस लाख रूपये खर्च हुये थे। इस तीन मंज़िला महल में 145 फुट ऊंचा एक मीनार भी है। बुनियादी तौर पर इसका डिज़ाइन इंडो-सरास्निक (अरबी) है लेकिन इसमें हिंदू, मुग़ल, राजपूत और गोथिक शिल्प की झलक भी मिलती है।

मुख्य द्वार पर एक बड़ी महराब बनी है जिस पर मैसूरु राज्य का चिन्ह और हथियार बने हुये हैं। उसके आसपास संस्कृत में वाडियार राजवंश का सिद्धांत , “न बिभेति कदाचन” अर्थात “कभी भयभीत न हों” लिखा है। बीच की मेहराब के ऊपर धन की देवी गजलक्ष्मी की मूर्ती बनी ही है जिसमें वह अपने हाथी के साथ हैं।

महल का सबसे बड़ा आकर्षण अष्टकोणीय कल्याण मंडप है। तमाम शाही शादी-ब्याह, जन्म दिन के कार्यक्रम और उत्सव वहीं मनाये जाते थे। अंदर की छतों पर की गई कांच-चित्रकारी में राज्य-चिन्ह के रूप में मोर की छवी बनाई गई है।

साथ ही फूलों के मंडल बने हैं जो धातु की बीमों के सहारे खड़े हैं। फ़र्श पर चमकदार टिइलों से बहुत सुंदर ज्यामितीय डिज़ाइनें बनाई गई हैं। यह टाइलें ब्रिटेन से मंगवाई गईं थीं। यहां 26 पैंटिंगें हैं जिनमें दशहरे का जुलूस दिखाया गया है। यह पैंटिंगें सन 1934 से सन 1945 तक खींचे गये फ़ोटो के आधार पर बनाई गई हैं।

मैसुरू में धूमधाम से दशहरा मनाने की सदियों पुरानी परम्परा है। इस मौक़े पर एक विशेष दरबार आयोजित किया जाता था। शाही तलवार की पूजा की जाती थी। बड़े पैमाने पर जुलूस निकाला जाता था जिसमें हाथी, घोड़ों, ऊंटों के साथ बैंड-बाजे और नाच-मंडलियां भी चलती थीं। राजा शाही हाथी पर सवार रहते थे । वह हौदा पर बैठकर जनता का अभिवादन स्वीकार करते थे। उनका हौदा 84 किलोग्राम सोने से सजा होता था जिसे आज महल में भी देखा जा सकता था।

25वें राजा जयचमाराजेंद्र वाडियार मैसूरू के तख़्त पर बैठनेवाले अंतिम शासक थे। सन 1940 में अनकी मृत्यू और फिर भारत की आज़ादी के बाद रियासतें ख़त्म हो गईं। जूलूस आज भी निकलते हैं लेकिन तख़्त पर पर चामंडी देवी हिराजमान होती हैं।

महल के अन्य उल्लेखनीय कमरों में राजा का सार्वजनिक दरबार हॉल और निजी दरबार हॉल हैं| सार्वजनिक दरबार हॉल में केरल के प्रसिद्ध कलाकार राजा रविवर्मा द्वारा सीता के स्वयंवर की पेंटिंग है। इसमें आठ रूपों में देवी के चित्र भी हैं।

निजी दरबार हॉल, जिसे अम्बा विलास भी कहा जाता है, में फर्श पर प्रत्येक कच्चा लोहा स्तंभ, संगमरमर जड़े हुए अर्ध-कीमती रत्नों के बीच है। यहां 200 किलो सोने से बना शाही सिंहासन (अम्बरी) है।

महल में एक बहुत बड़ा कुश्ती का आंगन भी है। कुश्ती को मैसुरू के राजों का हमेशा से संरक्षण प्राप्त रहा था। हर दशहरे के मौक़े पर एक बड़े दंगल का आयोजन होता था।

महल के अंदर 14वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक के कुल 12 मंदिर हैं जिन पर विभिन्न शिल्पकारियों के नमूने देखे जा सकते हैं| मैसूरू महल शहर के बीच, ख़ूबसूरत बाग़ों से घिरा खड़ा है। जो कभी वाडियार राजवंश का सत्ता-केंद्र हुआ करता था,आज यह महज़ अपने शानदार अतीत की याद दिला रहा है।

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