मुंबई के पाठारे प्रभु

मुंबई को सपनों की नगरी कहा जाता है क्योंकि यहां हर साल देश के कोने कोने से हज़ारों लोग अपने सपनों को साकार करने आते हैं। आपको है जानकर आश्चर्य होगा कि मुंबई में आकर सबसे पहले बसने वालों में पाठारे प्रभु समुदाय था जो यहां 800 साल पहले आया था!

मुंबई शहर के विकास में इस समुदाय का बहुत बड़ा योगदान रहा है जिसका सबूत है प्रसिद्ध महालक्ष्मी मंदिर और आलीशान ब्रीच कैंडी इलाक़ा जो पाठारे समुदाय के योगदान से बना था। पाठारे प्रभु मुंबई के मौलिक निवासी हैं जिन्होंने विधि, शिक्षा-क्षेत्र और शहर की मूलभूत सुविधाओं के विकास में अपनी छाप छोड़ी है।

माना जाता है कि पाठारे प्रभु 13वीं शताब्दी में देवगिरी के राजा बिंब के साथ मुंबई आए थे। इसे लेकर अलग अलग बातें कहीं जाती हैं। उस समय शहर का वो रुप नहीं था जो आज हमें नज़र आता है। तब मुंबई सात द्विपों का एक समूह हुआ करता था जिनके इर्द गिर्द कच्छ भूमि थी। उत्तर की दिशा में सबसे बड़ा द्वीप सालसेट था जो मुख्य भूमि से जुड़ा हुआ था। लिव हिस्ट्री इंडिया ने प्रसिद्ध वकील और पाठारे प्रभु समुदाय के सम्मानित सदस्य राजन जयकर से समुदाय के इतिहास और संस्कृति के बारे में बात की।

पहले पाठारे प्रभु गुजरात सल्तनत के शासकों के अधीन रहते थे लेकिन सन 1534 में पुर्तगालियों के द्वीप पर कब्ज़े के बाद उन्हें प्रताड़ित किये जाने लगा। ये एक मुश्किल दौर था, इतना मुश्किल कि उन्हें उनके द्वारा बनाये गए मंदिरों को ढ़कना पड़ा और मूर्तियों को छुपाना पड़ा था। पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरनी ब्रेगेंज़ा की शादी जब इंग्लैंड के किंग चार्ल्स द्वतीय से हुई तब सन 1662 में ये द्वीप अंग्रेज़ों को मिल गए। इसके बाद पाठारे प्रभु के दिन फिरे। अंग्रेज़ों ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे अपने धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र हैं। आश्वासन मिलने के बाद पाठारे प्रभु समुदाय ने प्रभादेवी और महालक्ष्मी जैसे कुछ महत्वपूर्ण मंदिर बनाये। ब्रिटिश शासनकाल में प्रशासन में समुदाय के लोग ऊंचे ओहदे पर थे।

पाठारे प्रभु एक समृद्ध, बुद्धिमान और विपुल समुदाय रहा है। उनके पास ज़मीनें थीं और कुछ तो मौजूदा मुंबई के हर इलाक़े में बड़े भू-भाग के मालिक थे। पाठारे प्रभु समुदाय पारंपरिक रुप से मुंबई के चर्नी रोड इलाक़े में ठाकुरद्वार में रहते थे। आज ये समुदाय शहर के हर हिस्से और विश्व के अनेक देशों में बसा हुआ है। दिलचस्प बात ये है कि ठाकुरद्वार नाम वहां समुदाय द्वारा बनाये गए मंदिर के नाम पर ही पड़ा है। ये मंदिर मराठी वास्तुकला वाडा शैली में बना है जिसमें लकड़ी के पैनल और लकड़ी की सकरी सीढ़ियां हैं।

पाठारे प्रभु समुदाय बहुत शिक्षित रहा है और इसके लोग विशेषकर विधि (क़ानून) के पेशे से जुड़े हुए थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि बम्बई हाई कोर्ट के पहले चार भारतीय वकीलों में से तीन इसी समुदाय के थे। इस समुदाय के वकील और बैरिस्टर एम.आर. जयकर लंदन की प्रिवी कैंसिल के भी सदस्य थे। ये कौंसिल सबसे बड़ा कोर्ट था जो अंग्रेज़ों के शासनकाल के दौरान भारतीय मामलों को देखता था। जयकर ने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया था। 30 के दशक में उन्होंने गोल मेज़ सम्मेलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सन 1948 में जब पूना विश्वविद्यालय स्थापित हुआ था तब वह उसके पहले वाइस चांसलर बने थे।

पाठारे प्रभु आज भी अपनी कई पुरानी परंपराओं से जुड़े हुए हैं। ये पहला समुदाय था जिसने आधुनिकता को अपनाया। समुदाय की महिलाओं ने सबसे पहले 19वीं शताब्दी में शिक्षा प्राप्त की थी। अंग्रेज़ों के शासनकाल में उन्हें अंग्रेज़ों और पुर्तगालियों की भाषा पढ़ना और बोलना सिखाया गया था। समुदाय की महिलाएं आज भी नौ ग़ज़ की पारंपरिक साड़ी पहनती हैं लेकिन साथ ही उन्होंने अपने पहनावे में आधुनिक और पश्चिमी शैली भी अपनायी है। 19वीं और 20वीं शताब्दी की तस्वीरों और पेंटिगों में ये देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए उनके फूली हुई आस्तीन के ब्लाउज़ देखे जा सकते हैं जो विक्टोरियन फ़ैशन से प्रभावित थे। ये ब्लाउज़ समुदाय में बहुत लोकप्रिय हुए थे। इन महिलाओं ने सबसे पहले साड़ी के साथ ऊंची एड़ी की सैंडिलें पहननी शुरु की थीं। बाद में ये देश के अन्य हिस्सों में फ़ैशन बन गया था।

जिस तरह पारसी महिलाओं में गारा साड़ियां प्रचलित थीं, उसी तरह पाठारे प्रभु की महिलाओं में कासबी साड़ियां लोकप्रिर्य थीं जिसके की बार्डर ज़री यानी सोने और चांदी के होते थे। सुश्री केतकी कोठारे जयकर बताती हैं कि इंदुरी और इरकली साड़ियां भी समुदाय की महिलाओं में लोकप्रिय हैं। ये महिलाएं शादी समारोह में शेला पहनती हैं। शेला एक तरह की शॉल होती है।

पहनावे के अलावा इस समुदाय की महिलाएं ख़ास तरह के गहने भी पहनती हैं। ये महिलाएं ख़ास तरीक़े से नथ पहनती हैं जो दूसरे समुदाय की महिलाओं के नथ पहनने के तरीक़े से एकदम अलग होती है। पाठारे प्रभु महिलाओं की नथ का निचला हिस्सा नथुनों से होते हुए नीचे लटका होता है। नथ के अलावा बाज़ूबंद, चूड़ियां, बिंदी और मंगलसूत्र से ही पता चलता है कि कोई पाठारे प्रभु महिला विवाहित या नहीं । दिलचस्प बात ये है कि शादी के समय दुल्हन के गले में मंगलसूत्र, दूल्हा की बजाय परिवार का सबसे वरिष्ठ सदस्य पहनाता है। शादी में महिलाएं सोने की चूड़ियां पहनती हैं जिसे नावड़ी कहते हैं। इनकी संख्या 11 या फिर 21 होती है। बताया जाता है कि समुदाय की महिलाएं सोने के ज़ेवर के साथ मोती के ज़ेवर नहीं पहनती हैं। समुदाय के पुरुषों की भी अलग शैली होती है जो समय के साथ बदलती रही है।

 

समुदाय की भाषा में गुजराती भाषा की झलक है। पाठारे प्रभु एक ख़ास तरह की बोली बोलते हैं जिसे पराभी कहते हैं। शिक्षाविदों के अनुसार ये बोली उत्तरी और दक्षिणी मराठी बोली की तरह है और इसमें गुजराती के वाक्यांश भी मिलते हैं।

पाठारे प्रभु का रसोईघर

भारत में आधुनिक पाक-कला पर सबसे पहले जो किताबें लिखी गईं थीं उनमें से एक किताब लक्ष्मीबाई धुरंदर ने लिखी थी जो पाठारे प्रभु समुदाय की थीं। इस किताब का नाम था ग्रहणी मित्र जो सबसे पहले सन 1910 में प्रकाशित हुई थी। ये किताब सिर्फ़ पाठारे प्रभु पाक-शैली तक ही सीमित नही है बल्कि इसमें दूसरे समुदाय के भोजन की विधियां भी शामिल हैं। इसके अलावा इंग्लिश और फ्रैंच भोजन की विधिया भी इसमें हैं। इस किताब का मक़सद समुदाय की नवविवाहिता को पाक कला में निपुण करना था ताकि वह एक अच्छी मेज़बान बन सके। किताब में क़रीब एक हज़ार विधियां थीं और सन 1935 तक इसके आठ संस्करण प्रकाशित हुए थे। ये पाठारे प्रभु वधू के साज़-ओ-सामान का एक अहम हिस्सा हुआ करता था।

पाठारे प्रभु के भोजन में मांस और मछली ख़ास होती है। मुंबई के भू-गोल की वजह से वे मांस और मछली खाने लगे थे। हमने शेफ़ कुणाल विजयकर से बात की जो पाठारे प्रभु भोजन के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने बताया कि इस समुदाय का ज़्यादातर भोजन काफी शाही होता है। उनके अनुसार भोजन में चार या पांच सामग्रियों का ही प्रयोग किया जाता है। उनके अपने मसाले होते हैं जैसे प्रभु सांबर जिसका समुदाय के भोजन में बहुत इस्तेमाल होता है। पाठारे प्रभु लोकप्रिय गुजराती भोजन उंडियो को अपनी तरह से मांस के साथ बनाते हैं।

समुदाय की सबसे लोकप्रिय किवदंती का संबंध महालक्ष्मी मंदिर से है। माना जाता है कि 18वीं शताब्दी के मध्य में बॉम्बे द्वीप को वोर्ली द्वीप से जोड़ने की कोशिश की गई लेकिन पानी की ववजह से बांध बार बार टूट जाता था। माना जाता है कि ऐसे समय पाठारे प्रभु ठेकेदार रामजी शिवजी प्रभु ने सपने में महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली को देखा। उन्होंने देखा कि जिस जगह बांध बनाया जा रहा था वहां देवी की एक मूर्ति है। सपना देखने के बाद उस जगह छानबीन की गई और वहां एक मूर्ति मिली। इस मूर्ति को रखने के लिये ही महालक्ष्मी मंदिर बनाया गया और इसी तरह बांध भी बन गया। हालंकि इस कहानी की सत्यता तो कोई प्रमाणित नहीं कर सकता लेकिन हां ये ज़रुर है कि शहर के विकास में इस समुदाय ने बहुत योगदान किया।

त्यौहार और सृजनात्मकता

पाठारे प्रभु समुदाय बेहद रतनात्मक है जिसकी झलक त्यौहारों ख़ासकर दीवाली के पहले वाले दिनों में दिखाई पड़ती है। दीवाली आने के आठ दिन पहले तरह तरह की रंगोलियां बनाई जाती हैं। जयकर ने हमें रंगोली की डिज़ाइन वाली किताब भी दिखाई जो 60 साल पुरानी है जो उन्हें समुदाय की एक महिला ने उपहार में दी थी। किताब में दीवाली के पहले र इसके दौरान बनाई जाने वाली रंगोली की कई डिज़ाइन हैं।

दीवाली के अलावा गणेश उत्सव भी समुदाय का महत्वपूर्ण त्यौहार है। परंपरा के अनुसार समुदाय के कई परिवारो के पुरुष घर में गणेश की मूर्ति हाथ से बनाते हैं। राजन जयकर ने बताया कि उनका परिवार गणपति मूर्ति की नहीं बल्कि उनके यहां चावल से गणपति की मूर्ति बनाने की परंपरा है। उन्होंने चावल से गणेश की मूर्ति बनाने की कला अपने पिता से सीखी थी और पिछले पचास साल से इस तरह मूर्तियां बना रहे हैं। उनके पिता ने ये कला अपने पिता से सीखी थी, हम यह अनुमान लगा सकते है की ये परंपरा सदियों पुरानी है।

भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल के सबसे महत्वपूर्ण कलाकारों में से एक एम.वी. धुरंधर भी पाठारे प्रभु समुदाय के थे। उनकी कलाकृतियों में समुदाय की परंपराओं की झलक मिलती है। उनकी एक कलाकृति में हिंदू शादी का चित्रण है। चित्र में महिलाओं के ज़ैवर और फूलों को ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि ये पाठारे प्रभु विवाह है।

पाठारे प्रभु समुदाय संख्या में भले ही छोटा है लेकिन उनकी संस्कृति, परंपराओं और मुंबई पर उनके प्रभाव को संजोकर रखने की ज़रुरत है।

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