चम्बल का डाकू मोहर सिंह

कोरोना महामरी के कारण लॉकडाउन का पालन कर रहे अनेक लोगों ने मई के पहले हफ्ते में एक ऐसी खबर को देखा जो उनके लिये कौतूहल का विषय थी। ९२ वर्ष की उम्र में हुआ डाकू मोहर सिंह का लम्बी बीमारी के बाद निधन। आज के दौर में भी किसी डकैत का ९२ वर्ष तक जीवित रहना खुद में इस बात का सूचक है कि वह व्यक्ति अपने साथ दशकों का इतिहास समेट कर ले गया है।

खूँखार बागी, डाकू मोहर सिंह गुर्जर उर्फ दद्दा उर्फ़ जेंटलमैन डाकू जैसे कई अन्य नामों से पुकारे गये मोहर सिंह का निजी जीवन और बीहड़ में बागी बनने की कहानी बिलकुल डकैतों पर बनी किसी भी सामान्य हिंदी फिल्म के कथानक के जैसी है। मध्य प्रदेश के बीहड़ों में एक सामान्य से गाँव का एक सामान्य सा गूजर लड़का और जमीनी विवाद में उसके साथ हुयी मारपीट के बाद के घटनाक्रम में उसके हाथ से हुआ पहला क़त्ल और यहीं से शुरू हुयी एक नये डकैत की कहानी जो बागी भी बना और रॉबिनहुड भी कहलाया।

मोहर सिंह चंबल की डांग में बसे हुए गांवों में एक छोटे से गांव का सामान्य सा युवक था। गुर्जर समुदाय के मोहर सिंह के परिवार के पास गांव कुछ जमीन और खेती बाड़ी थी। लेकिन चंबल के इलाके में किसानों की जमीनों पर फसलें कम लेकिन दुश्मनियां अधिक उगती हैं, और इस इलाके में पैदा हुयी नाइँसाफी और बदले के जुनून की सैकड़ों कहानियों के बीच मोहर की ज़िंदगी बदलने की कहानी भी एक दुखद घटना से शुरू हुयी। मोहर सिंह की जमीन का कुछ हिस्सा उसके खानदान के ही दूसरे परिवार ने दबा लिया, इसके बाद गांव में झगड़ा हुआ और मामला पुलिस के पास गया। पुलिस ने उस समय चंबल में चल रही रवायत के मुताबिक पैसे वाले का साथ दिया और मोहर का पक्ष नहीं सुना, मामला अदालत में पहुँचा और केस चलता रहा, इस मामले में मोहर सिंह ही मुख्य गवाह था।

उत्तर भारत के सभी राज्यों में गाँव के ऐसे जमीन विवाद के मुकदमों में गवाही देना सीधी दुश्मनी पालने का कारण बनता आया है और मोहर के मामले में भी यही हुआ। जटपुरा में एक दिन मोहर सिंह को उसके मुखालिफों ने रोक कर गवाही न देने का दवाब डाला, मोहर सिंह ने ये बात ठुकरा दी तो उसके दुश्मनों ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। घायल मोहर सिंह ने पुलिस की गुहार लगाई लेकिन थाने में उसकी आवाज सुनने की बजाय उस पर ही केस थोप दिया गया। बुरी तरह से अपमानित हुए मोहर सिंह को कोई और रास्ता नहीं सूझा और 1958 में अपने गाँव के मंदिर पर मोहर सिंह ने अपने दुश्मनों को धूल में मिला देने की कसम खाई उसने चंबल की राह पकड़ ली। मोहर सिंह ने पहला शिकार अपने गांव के दुश्मन का किया। कालान्तर में मोहर सिंह का वो गाँव उस जगह से लगभग एक किलोमीटर दूर जाकर बस गया और पुराना गांव बिसुली नदी के कछार में समा गया।

गाँव से बीहड़ तक

१९५८ में गाँव में हुए विवाद के बाद जब मोहर सिंह ने बन्दूक उठायी तो उसके पास बीहड़ में जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था। लेकिन चम्बल के बीहड़ों में उस दौर में बागियों की दुनिया में बहुत कुछ हो रहा था। कँटीली झाड़ियों और सूखे दरख्तों से भरे घने बीहड़ों और चंबल की घाटी में बागियों की हनक और धमक ब्रितानी सरकार के ज़माने से ही चल रही थी और चंबल में पचास के दशक में जैसे बागियों की एक पूरी बाढ़ आई हुयी थी। मोहर ने जब बीहड़ों में पदार्पण किया तब उस दौर में मान सिंह राठौर उनके पुत्र तहसीलदार सिंह समेत डाकू रूपा, लाखन सिंह, गब्बर सिंह, लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित, माधो सिंह (माधव) जैसे खूंखार बागी और उनके गिरोह थे। डाकू फिरंगी सिंह, देवीलाल और उसका पूरा गिरोह, छक्की मिर्धा और गैंग, स्यो सिंह(शिव सिंह) और रमकल्ला जैसे बागी बीहड़ों में नाम बना चुके थे।

बीहड़ की तरफ रुख करने के बाद पहले तो उसने बाकि बागियों के गैंग में शामिल होने की कोशिश की, लेकिन दो साल तक जंगलों में भटकने के बावजूद मोहर सिंह की किसी गैंग से बात नहीं बनी और बीहड़ के अन्य गिरोहों ने उसे नौसिखिया करार दे दिया, एक दिन उसने फैसला कर लिया कि वो खुद का गैंग बनायेगा और गैंग भी ऐसा कि जिससे चंबल थर्रा उठे। पुराने गिरोहों और बागियों की चिंता किये बिना मोहर सिंह ने देखते ही देखते 150 से ज्यादा खूंखार डाकूओं का अपना गिरोह चंबल घाटी में उतार दिया। और बहुत जल्द डाकुओं की सबसे बड़ी पल्टन के सरदार मोहर सिंह का नाम उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान की पुलिस फाइलों में E-1 यानि दुश्मन नंबर एक के तौर पर दर्ज हो गया था।

शुरुआत में मोहर सिंह ने अपने साथियों के साथ छोटी वारदात करना शुरू किया, और बागी बन जाने के बाद पुलिस के दस्तावेजों में पहली बार मेहगांव थाने में मुक़दमा अपराध संख्या 140/60 पहला अपराध था जो मोहर सिंह गैंग के खिलाफ दर्ज हुआ। 1960 में ही गौहद थाने में हत्या के प्रयास का एक दूसरा अपराध दर्ज हुआ 1961 में गौहद थाने में ही मोहर के खिलाफ पहला कत्ल का केस दर्ज हुआ और इसके बाद एक अपराध और घटनाओं का एक लम्बा सिलसिला अगले डेढ़ दशक तक चलता रहा। साठ के दशक में डाकू मानसिंह के बाद चंबल घाटी का सबसे बड़ा नाम मोहर सिंह का था। १९६० में शुरू की गयी मोहर सिंह की फाईल में लगातार मामले जुड़ते चले जा रहे थे। मोहर सिंह ने पहले तो भिंड और आसपास के इलाके में अपराध किये लेकिन जैसे जैसे गैंग बढ़ने लगा वैसे ही मोहर सिंह ने भी अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया।

मुखबिरों का दुश्मन मोहर सिंह

लेकिन शातिर मोहर सिंह ने पुलिस से बचने का तोड़ निकाल लिया था, उसने चंबल में ऐलान कर दिया था कि जो कोई भी उनके गैंग की मुखबिरी करेगा या पुलिस को उनके बारे में सूचना देगा उसके पूरे परिवार को ख़त्म कर दिया जायेगा। इस बात का उसने कड़ाई से अमल किया और एक एक करके मुखबिरों की हत्या होने लगी। मुखबिरों को निबटाने के मामले में मोहर सिंह बेहद खूंखार हो जाता था और मुखबिरों को एवं उनके परिवार पर मोहर सिंह शिकारी की तरह से टूट पड़ता था। मोहर सिंह के गैंग के ऊपर ज्यादातर मुखबिरों के कत्ल के मामले बन रहे थे, लेकिन चंबल में मोहर सिंह का ख़ौफ़ पुलिस और उसके मुखबिरों पर लगातार बढ़ता जा रहा था। मोहर सिंह का नाम बहुत ही कम समय में मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में फैल गया था। जहां दूसरे गिरोहों और बागियों को किसी भी गांव में रूकते वक्त मुखबिरी का डर रहता था वही मोहर सिंह का गिरोह बेखटके अपनी बिरादरी के गांवों में ठहरता और पुलिस को खबर होने से पहले ही निकल जाता था।

मोहर सिंह का गैंग

कुश्ती और पहलवानी का शौक़ीन मोहर सिंह अपने गैंग के अनुशासन को लेकर बेहद सतर्क था। मोहर सिंह जल्द ही पुलिस के लिये एक छलावा बन चुका था। पुलिस के मुखबिर उसके गैंग की किसी भी गतिविधी की सटीक जानकारी हासिल करने में बिलकुल नाकाम साबित हो गये थे। एक से एक बड़ी डकैतियां और एक से एक बड़े कारनामे लगातार उसके नाम दर्ज होते रहे।मोहर सिंह ने अपने गैंग को सबसे बड़ा गैंग बनाने के साथ-साथ कुछ कठोर नियम भी बना रखे थे, वो अपने गैंग में किसी भी महिला डाकू को शामिल करने के खिलाफ था। इसके साथ ही उसने अपने गैंग को सख्त हिदायत दी थी कि किसी भी लडकी और औरत की तरफ आंख उठाकर भी न देखे नहीं तो मोहर सिंह उसको खुद सजा देगा। यही कारण था कि उसके गैंग के ऊपर किसी भी गांव में बहू-बेटी को छेड़ने या परेशान करने का कोई मामला कभी कहीं भी दर्ज नहीं हुआ। 1965 तक मोहर सिंह चंबल के डाकू सरदारों में एक प्रमुख नाम बन गया था, पुलिस के साथ उसकी मुडभेड़ रोजमर्रा की बात हो गयी थी। पर्याप्त पैसे आने के साथ ही मोहर सिंह ने पुलिस से भी बेहतर हथियार उस वक्त हासिल कर लिए थे और उसने अपने गैंग को बचाने और वारदात करने के नये तरीके खोजने शुरू कर दिये थे।

धीरे धीरे मोहर सिंह का गैंग इतना बड़ा हो चुका था कि चंबल ने इससे पहले इतना बडा़ गैंग कभी देखा नहीं था। आधुनिक हथियारों से लैस डेढ़ सौ हथियारबंद बागियों के गिरोह के साथ मोहर सिंह का पुलिस से सीधी टक्कर लेने का दुस्साहस उसे चंबल का बेताज बादशाह बना चुका था। जल्दी ही पूरे गैंग पर 12 लाख से ज्यादा का ईनाम घोषित हो चुका था जो उस दौर का सबसे बड़ा ईनाम माना गया था।मोहर सिंह चंबल में दूसरे गैंग के साथ मिलकर भी पुलिस को चकमा देने और वारदात करने का एक नया तरीका शुरू कर दिया था। मोहर सिंह, माधो सिंह , सरू सिंह, राम लखन मास्टर और देवीलाल के गिरोह चंबल में इकट्ठा होकर वारदात करने लगे थे। पुलिस भी 100-200 की संख्या में इकट्ठा हथियारबंद डाकुओं से मुकाबला करने में बचती थी। एक तरफ मोहर सिंह का गैंग बढ़ रहा था उधर दूसरी तरफ पुलिस भी एक एक कर चंबल के दूसरे डकैतों और उनके गिरोहों का खात्मा कर रही थी। पुलिस ने मोहर के अलावा बाकी सबको निपटाना शुरू कर दिया और उसी क्रम में 1963 में कुख्यात डकैत सरगाना फिरंगी सिंह, 1964 में देवीलाल शिकारी और गैंग, 1964 में ही छक्की मिर्धा, 1965 में स्योसिंह (शिव सिंह ) और उसी वर्ष  1965 में रमकल्ला जैसे डकैत मुडभेड़ में मार गिराये गये।

ऐसे हुयी उस दौर की सबसे महँगी “पकड़”

बीहड़ों में अपहरण को ‘पकड़’ कहा जाता है और लम्बे समय से बाग़ी अपने शिकार का अपहरण करके बीहड़ों में ओझल होते रहे हैं और फिरौती की रकम मिलने के बाद ही उन्हें छोड़ते हैं। मोहर सिंह का गैंग भी पकड़ पर खासा भरोसा रखता था और इसी बीच 1965 में मोहर सिंह के साथी नाथू सिंह ने एक योजना बनायी जो मोहर सिंह को भी पसंद आयी, उस दौर में चंबल के इलाके में किसी बागी ने ये सोचा भी नहीं था कि दिल्ली के भी किसी आदमी को पकड़ बनाया जा सकता है। ठीक उसी समय नाथू सिंह ने इस योजना को अमली जामा पहनाया। मोहर को इस बात की सूचना थी कि दिल्ली में रह रहा एक बड़ा मूर्ति तस्कर शर्मा चोरी की मूर्तियां खरीदने कही तक भी जा सकता है। इसी बात का फायदा उठाते हुए मोहर सिंह ने अपने आदमियों के माध्यम से शर्मा को सन्देश भेजवाया कि कुछ प्राचीन मूर्तियां है जो चोरी की गयी हैं और चंबल में एक शख्स से मिल सकती है।

प्राचीन मूर्तियों के नाम पर मूर्ति तस्कर झांसे में आ गया, पहले उसने अपना एक आदमी चंबल में भेजा, उस आदमी को मोहर के गिरोह ने पकड़ लिया और फिर उसके सहारे मूर्ति तस्कर को संदेश भेजा गया कि मूर्ति सही है। शर्मा भी बिना देर किये अगली ही फ्लाईट से ग्वालियर पहुँचा और वहां से उसे एक कार में बैठाकर मूर्तियां दिखाने के बहाने मोहर के लोग चंबल की डांग में ले आये। जंगल में अपने को डाकुओं से घिरा देखकर शर्मा को फ़ौरन समझ आ गया कि वो डाकुओं के चंगुल में फंस चुका है। शर्मा की पहचान दिल्ली के नामी गिरामी बड़े लोगो से थी। इस घटना के बाद दिल्ली से भोपाल संदेश गया और केन्द्र से भी मुरैना पुलिस को त्वरित कार्रवाई करने के निर्देश दिये गये थे। लेकिन तीन राज्यों की पुलिस मिलकर भी शर्मा के बारे में कोई जानकारी नहीं जुटा पायी और आखिर में शर्मा के परिवार को लाखों रूपए मोहर सिंह को देने पड़े। छूटने के बाद चंबल में अफवाह उड़ी थी कि मोहर ने शर्मा को छोड़ने के एवज में ५० लाख रुपये लिये हैं। चम्बल के इतिहास में इतनी बड़ी रकम इससे पहले कभी किसी पकड़ से हासिल नहीं की गई थी, हालांकि मोहर सिंह के ख़ास लोग इस रकम को 26 लाख रूपए बताते थे।

मोहर- माधो की दोस्ती

मोहर सिंह पुलिस की डायरी में एक ऐसा नाम बन गया था जिसको पुलिस महकमा चलता-फिरता भूत कहने लगा था। हर बड़ी वारदात के पीछे पुलिस पहले अपने गैंग चार्ट के एनिमी 1 यानि दुश्मन नंबर एक यानि मोहर सिंह का हाथ देखती थी। लेकिन अगर मोहर उनके लिये दुश्मन नंबर एक था तो दूसरे नंबर पर था उसका खास दोस्त माधो सिंह। चंबल में मोहर सिंह और माधों सिंह की दोस्ती एक मिसाल मानी जाती है। दोनो के गैंग चंबल के सबसे बड़े गैंग थे, और दोनों ने मिलकर चंबल के इतिहास में 500 सदस्यों की सबसे बड़ी गैंग बना ली थी। चंबल में डकैतों से लोग कराह उठे थे सरकार की चूलें हिल उठी थी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 1965 से 1969 तक चम्बल के दस्युओं के ऊपर हत्या के 230, डकैती के 350 और पकड़ (अपहरण) के लगभग 600 से अधिक मामले दर्ज हो चुके थे।

पुलिस और मोहर-माधो की ये आंख-मिचौली पूरे चंबल में एक दिलचस्प कहानी बनती जा रही थी, कि तभी इस कहानी में एक आश्चर्यजनक मोड़ आ गया। दरअसल मध्यप्रदेश सरकार मोहर की वजह से बढ़ती हुयी समस्या को लेकर बेहद चिंतित हुई और उसने इस समस्या से निपटने के उद्देश्य से एक सदस्यीय आयोग बना दिया। पुलिस पर डकैतों को मारने और गिरफ्तार करने का दबाव बढ़ने लगा। मोहर सिंह और पुलिस की लगातार मुडभेड़ होने लगी, लगभग 14 साल तक के उसके दस्यु जीवन में लगभग 76 बार उसका और पुलिस का आमना-सामना हुआ और हर बार मोहरसिंह बच निकला। मोहर के मुताबिक उन्होंने 15-20 लोगों को मौत के घाट उतारा था लेकिन पुलिस रिकॉर्ड में मोहर सिंह और उनके गैंग के नाम 80 से ज्यादा हत्या और 350 से ज्यादा लूट, अपहरण, डकैती और हत्या की कोशिशों के मामले दर्ज हुए थे।

मोहरसिंह को भी समझ आ रहा था कि पुलिस का घेरा बढ़ रहा है, और बीहड़ों की यह पुलिस के साथ आंख-मिचौली किसी भी दिन उसकी मौत का कारण बन सकती है। इसी बीच एक दिन माधों सिंह ने उसको चौंका दिया, माधौं सिंह ने उसे बताया कि जय प्रकाश नारायण चंबल में एक बड़ा समर्पण करा रहे हैं। कुछ साल पहले विनोबा भावे भी दस्युओं का एक बड़ा समर्पण करा चुके थे जिसमें लोकमन दीक्षित (डाकू मानसिंह राठौर गैंग के दाहिने हाथ)  और मानसिंह गैंग के काफी लोगों ने समर्पण किया था और वे सभी आराम से अपनी जिंदगी जी रहे थे। चंबल में राज कर रहा मोहर सिंह भले ही ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था लेकिन उसे इस बात का अंदेशा था कि गोली का अंत हमेशा गोली से ही होता है। कम उम्र में ही इतना कुख्यात हो चुका मोहर मौत को हमेशा अपने आस-पास मंडराते हुए देखता था। आत्मसमर्पण के रूप में उसे मौत की छाया को दूर करने का सहारा दिखा तो उसने वही रास्ता चुना। 1972 में जौरा बाँध और समीप के गाँधी मैदान में उस दिन हज़ारों लोगों की भीड़ जमा थी और यह पूरा इलाका चंबल के इतिहास के सबसे बड़े समर्पण का गवाह बना जब मोहर के नेतृत्व में  500 से ज्यादा डाकुओं ने जय प्रकाश नारायण के चरणों में अपनी बंदूकें रख दी।

जेल-अदालत और मोहर सिंह की ज़िद

आत्मसमर्पण के बाद मोहर सिंह, माधो सिंह, नाथू सिंह और सरु सिंह के साथ सैकड़ों अन्य बागी ग्वालियर जेल ले आये गये, जेल में ही उनके मुकदमों की अदालत लगती थी। मोहर को 15 महीने ग्वालियर जेल में रखा गया फिर  8 महीने नरसिंहगढ़ जेल और उसके बाद मुगावली (खुली जेल) में रखा गया। आत्मसमर्पण के बाद जब भी मोहर को पुलिस अभिरक्षा में कहीं स्थानान्तरित किया जाता तो पुलिस की 50-60 बड़ी-बड़ी गाडियां उसके वाहन के आगे पीछे चल रही होती थीं। एक दिन जेल में चल रही अदालत के न्यायाधीश ने एक मामले में मोहर को सजा ए मौत के तहत फाँसी और साथ में दस हजार रुपये जुरमाना का आदेश दिया। मोहर ने खुद अपना बचाव किया और जज से पूछा कि उसके फाँसी पर चढ़ जाने के बाद जुर्माना कौन और कैसे अदा कर पायेगा। इस तर्क के बाद अदालत में सन्नाटा पसर गया।

इसी तरह एक दिन कोई वरिष्ठ पुलिस अफसर ग्वालियर जेल पहुँचे और उन्होंने मोहर से कहा कि अगर उन्हें आठ दिन और मिल गये होते तो वे मोहर को जेल के बाहर ही मार देते या पकड़ लेते। मोहर ने तत्काल उस अफसर को चुनौती देते हुए कहा कि पुलिस तमाम हथकंडे अपना कर भी कभी बीहड़ में मोहर की शक्ल तक नहीं देख पायी और वे उसे धमकी न दें , उसने उक्त अफसर को खुली चुनौती देते हुए यह भी कहा कि वो जेल में रह कर भी उनसे दो दो हाथ करने को तैयार है। ऐसे ही अन्य मामले में एक जेल सुपरिंटेंडेंट की कारगुज़ारियों से नाराज़ होकर मोहर के बागियों ने उसकी पिटाई कर दी।

यह मामला इस कदर उछला कि, बात सूबे के मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुँच गयी लेकिन वहाँ से भी फरमान आया कि उन सभी खूँखार बागियों को बड़ी मशक्कत के बाद जैसे-तैसे इन्हें अभी जंगल (बीहड़) से बाहर लाया गया है, और जेल स्टाफ को उनके साथ धैर्य और धीरज से बर्ताव करना चाहिये। मोहर सिंह जब तक जेल में रहा तब तक देशी घी और मुर्गा माँस जैसे अपने पसंदीदा भोजन के अलावा कभी जेल की रोटी को हाथ तक नहीं लगाया। मोहर पर एक जेल अफसर के सरकारी आवास पर कब्ज़ा करने के आरोप भी लगे थे। मोहर को उनके सभी गुनाहों के लिये 20 साल की सजा हुई, लेकिन ‘जेंटलमेन’ डकैत को सजा माफी के साथ 1980में ही रिहा कर दिया गया था। मोहर सिंह जेल में सजा काटने के बाद मेहगांव लौट कर आत्मसमर्पण के बाद सरकार से अनुदान में मिली 35 एकड़ जमीन पर खेती करने लगे। 1994 में वह कांग्रेस में शामिल हो गये और भिंड जिले की मेहगांव नगर पंचायत के जनपद अध्यक्ष चुने गये।

चम्बल से फ़िल्मी दुनिया तक

दस्यु जीवन में ही मोहर सिंह को सिनेमा देखने का भी काफी शौक था और दस्युओं पर बनी फिल्में वे चाव से देखते थे। जेल से बाहर आने के बाद उनकी फिल्म में काम करने की महत्वाकांक्षा हुयी और अपने सबंधों के माध्यम से मोहर ने इस इच्छा को भी पूरा किया। कम ही लोग जानते हैं कि मोहर सिंह और उनके साथ माधौसिंह ने 1982 में रिलीज हुई फिल्म ‘चंबल के डाकू’ में अभिनय किया था। जावेद खान द्वारा निर्मित एवं एस. अजहर द्वारा निर्देशित यह फिल्म दस्यु समस्या पर बनी पहली ऐसी फिल्म मानी जाती है, जिसमें किन्हीं असली बागियों (मोहर सिंह-माधौसिंह) ने काम किया था।

आत्मसमर्पण के बाद सामान्य जीवन में लौट आने के बाद भी मोहर सिंह का मानना था कि उनके गैंग ने कभी भी किसी मां-बहन या बेटी के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया और उन्हीं की दुआओं से वे जिंदा बच गये वर्ना पुलिस मुडभेड़ में मार दिये जाते। कल के कुख्यात डाकू मोहर सिंह बाद में समाजसेवी मोहर दद्दा और नेताजी मोहर सिंह बनने तक के रास्ते में मोहर सिंह ने कई उतार-चढ़ाव देखे थे । जेल से बाहर आने के बाद मोहर ने धार्मिक कार्यों में भी काफी रूचि ली और अपने गाँव के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाने के अलावा उनका काफी समय बटेश्वर, मितावली और पड़ावली में स्थित इन मंदिरों के आसपास ही कटता था। लम्बे समय तक मधुमेह से ग्रसित रहने के बाद मोहर सिंह ने ९२ वर्ष की उम्र में ५ मई 2020 को मध्यप्रदेश के मेहगांव कस्बा स्थित अपने निवास पर अंतिम सांस ली।

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