मसरूर मंदिर – कला की एक लाजवाब मिसाल

एलोरा का कैलाश मंदिर संभवत: पत्थर को तराशकर कर बनाए गए मंदिरों का एक बेहतरीन नमूना है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि हिमाचल प्रदेश में भी ऐसे मंदिर हैं जो अगर भूकंप में धराशायी न हुए होते तो भारत के सबसे भव्य मंदिरों में उनकी गिनती होती। हम बात कर रहे हैं कांगड़ा में मसरुर के मंदिरों के बारे में। इसे किसने कब और क्यों बनाया, ये आज भी एक बहुत बड़ा रहस्य है ।

8वीं शताब्दी में निर्मित मसरुर के मंदिर कांगड़ा ज़िले में चंडीगढ़ से क़रीब 232 कि.मी दूर हैं । यहां पहुंचने के लिए आपको कांगड़ा के कई घुमावदार रास्तों और हरेभरे जंगलों से होकर गुज़रना होता है। ब्यास नदी की घाटी पर स्थित मंदिर तक जाने के लिए आपको सड़क मार्ग अपनाना होगा जो काफ़ी थकान भरा होता है। आप थकान भरे सफ़र के बाद मदिंर के पीछे वाले हिस्से में पहुंचते हैं लेकिन एक बार यहां पहुंचने पर मंदिर के रहस्यों की परतें खुलने लगती हैं। मंदिर के सामने पहुंचने पर तो आप मंदिरों के अवशेष देखकर अभिभूत हो जाएंगे।

एक बड़े कुंड के आगे उस मंदिर परिसर के अवशेष हैं जिसे एक ही चट्टान को काटकर बनाया गया था। मंदिरों का मुख उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर है और इनके सामने धौलाधार पर्वत श्रृंखला है। ये मंदिर हिमालय क्षेत्र में पत्थर काटकर बनाए गए मंदिरों के एकमात्र उदाहरण हैं।

भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार इन मंदिरों का निर्माण 8वीं और 10वीं शताब्दी के बीच कभी हुआ था। लेकिन इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के लिए मसरुर मंदिर एक पहेली की तरह है क्योंकि किसी विश्वसनीय स्रोत से इसके निर्माण की सही तारीख़ का पता नहीं चल सका है। इसके अलावा न तो मंदिर के शिला-लेख और न ही इतिहास की किताबों में ऐसा कुछ उल्लेख मिलता है जिससे मंदिर के संरक्षक या निर्माण के समय का पता चल सके। मंदिर परिसर नगारा मंदिर वास्तुकला की शैली में बना है। ये शैली 8वीं शताब्दी के बाद मध्य भारत और कश्मीर में विकसित हुई थी। माना जाता है कि इनका निर्माण उन कलाकारों ने करवाया होगा जो मध्य भारत और कश्मीर के बीच आते जाते थे।

मंदिर के आसपास का क्षेत्र बहुत प्राचीन है। प्राचीन समय में ये त्रिगर्ता या जालंधर साम्राज का हिस्सा हुआ करता था। इसका ज़िक्र महाभारत और 5वीं सदी के व्याकरण संबंधी पाणिनी ग्रंथों में मिलता है। ये क्षेत्र ऐसे मार्ग पर पड़ता है जो मध्य एशिया, कश्मीर और पंजाब को तिब्बत से जोड़ता है। इस तरह व्यापार के मामले में इसका बहुत महत्व है और इसीलिये ये क्षेत्र समृद्ध और ख़ुशहाल है। चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग (635 ई.पू.) में कुल्लु जाते समय यहां आया था और उसने इस क्षेत्र की समृद्धि के बारे में भी लिखा है। बहुत संभव है कि मसरुर मंदिर या तो अमीर व्यापारियों ने या फिर कांगड़ा के राजाओं ने बनवाए होंगे। उस समय किसी वित्तीय सहायता के बिना इतने भव्य मंदिर बनवाना संभव नहीं था। सदियों तक ये मंदिर जंगलों में छुपे रहे और बाहर के लोगों को इनके बारे में पता ही नहीं था।

सन 1835 में ऑस्ट्रिया के खोजकर्ता बैरन चार्ल्स हूगल ने कांगड़ा के एक ऐसे मंदिर का ज़िक्र किया है जो उनके अनुसार एलोरा के मंदिरों से काफ़ी मेल खाता था। यूरोप के एक अन्य यात्री ने भी 1875 में एक मंदिर का ज़िक्र किया है लेकिन अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। इसके पहले कि मंदिरों को क़लमबंद किया जाए, दुर्भाग्य से 1905 में भूकंप में ये काफ़ी हद तक नष्ट हो गए। रिक्टर पैमाने पर भूकंप की तीव्रता 7.8 थी और इसका केंद्र कांगड़ा था। ये इस क्षेत्र में आया सबसे ज़बरदस्त भूकंप था जिसने पूरे क्षेत्र को हिलाकर रख दिया था। भूकंप में बीस हज़ार लोग मारे गए थे और कांगड़ा क़िले तथा मसरुर मंदिर सहित कई भवन नष्ट हो गए थे।

सन 1913 में अंग्रेज़ अधिकारी हेनरी शटलवर्थ मसरुर मंदिर आया था और उसने इसके बारे में भारतीय पुरातत्व विभाग के अंग्रेज़ अधिकारी हेरोल्ड हारग्रीव्ज़ को बताया था। हारग्रीव्ज़ ने मंदिरों का अध्ययन किया और सन 1915 में इस पर एक किताब लिखी। किताब के प्रकाशन के फ़ौरन बाद मंदिरों को भारतीय पुरातत्व विभाग का संरक्षण मिल गया जो आज भी जारी है।

मसरुर मंदिर परिसर में मुख्य स्मारक पहली नज़र में मंदिर परिसर लगता है लेकिन ये दरअसल मंदिर का अभिन्न हिस्सा है। मुख्य मंदिर को आज ठाकुरद्वार कहा जाता है और यहां राम और सीता की मूर्तियां हैं। मुख्य मंदिर में पहले शिवलिंग हुआ करता था। राम और सीता की मूर्तियों को वहां संभवत: 1905 के भूकंप के बाद स्थापित किया गया होगा। मंदिर के सामने एक बड़ा मंडप था और बड़े बड़े खंबे थे जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं हालंकि छत पर जाने की सीढ़ियां दोनों तरफ़ अभी भी देखी जा सकती हैं। मुख्य मंदिर के आसपास दुर्गा, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य और अन्य देवी-देवताओं के मंदिरों के अवशेष हैं। मंदिर के सामने एक बड़ा कुंड भी है।

आज मानव रचनात्मकता की इस उल्लेखनीय उपलब्धि को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं। लेकिन मंदिर के गर्भ में आज भी एक रहस्य दबा पड़ा है और वो है इसके जन्म का समय।

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