मध्यप्रदेश में खजुराहो के मंदिर अपनी अलौकिक मूर्तिकलाओं के लिए, विशेषतः कामुक मूर्तियों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं लेकिन क्या आपको पता है कि देश में और भी ऐसे मंदिरसमूह हैं जो अप्सरा और देवांगना की प्रतिमाएँ एवं बेहतरीन शिल्पकला में खजुराहो को टक्कर देते हैं। ऐसा ही एक मंदिरसमूह हैं मार्कण्डा मंदिरसमूह; जो महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली ज़िले में स्थित हैं।
गढ़चिरौली ज़िले के चामोर्शी तहसील में है मार्कण्डा मंदिरसमूह जिसे मार्कण्डादेव भी कहते हैं, जो नागपुर से १७८ किमी और चंद्रपुर से क़रीब ६५ कि.मी. दूर वैनगंगा नदी के बाएं तट पर स्थित है। किसी समय यह बड़ा शहर हुआ करता था लेकिन लगातार बाढ़ की वजह से लोग यहां से विस्थापित होते गए और अब यहॉं की आबादी महज़ एक हज़ार है।
इस छोटे से गांव में २४ सुंदर मंदिर हैं जो ४० एकड़ क्षेत्रपर फैले हुए हैं। ये मंदिर मुख्यतः भगवान शिव को समर्पित हैं। मंदिर का एक प्रवेशद्वार नदी के तरफ़ और दुसरा सामने की ओर हैं, तथा पूर्ण मंदिरसमूह चारो ओर से मजबूत किलाबंदी में स्थापित हैं l माना जाता है कि मंदिर का नाम मार्कण्डा, मार्कण्डेय ऋषि के नाम पर रखा गया था जो परम शिव भक्त थे। पौराणिक मान्यता के अनुसार ऐसा भी माना जाता है कि इन मंदिरों का निर्माण उन्होंने ही करवाया था।
हिंदू मिथकोंके अनुसार महान ऋषि मृकण्डु और उनकी पत्नी मरुद्मति ने पुत्र की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की। उनकी इस कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव जी स्वयं प्रगट हुए और उन दम्पत्ति की मनोकामना पूर्ण करने हेतु उन्हें दो विकल्प दिए, एक- ऐसा पुत्र जो न्याय परायण होगा लेकिन उसका जीवनकाल अल्प होगा और दूसरा- ऐसा पुत्र जो कम ज्ञान वाला होगा लेकिन उसकी उम्र अधिक होगी। मृकण्डु ऋषि ने पहला विकल्प चुना और उनके घर मार्कण्डेय ने जन्म लिया जो बहुत बुद्धिमान था लेकिन जिसकी १६ साल की उम्र में मृत्यु निश्चित थी।
माता-पिता की तरह पुत्र मार्कण्डेय भी शिव-भक्ति करने लगा। मृत्यु के निश्चित दिन भी वह शिवलिंग के रुप में शिवजी की पूजा कर रहा था। भक्ति में उसकी अटूट श्रद्धा की वजह से मृत्यु के देवता यमराज के संदेशवाहक उसके प्राण नहीं ले सके। फिर यम स्वंय उसके प्राण लेने धरती पर आए और मार्कण्डेय के गले में फंदा डाल दिया। लेकिन फंदा ग़लती से शिवलिंग पर पड़ गया। इससे क्रोधित होकर शिव अवतरित हुए और यम पर वार कर दिया। शिव ने यम के प्राण छीन लिए, लेकिन इस शर्त पर यम को फिर जीवित कर दिया कि वह मार्कण्डेय के प्राण कभी नहीं लेगा।
ये पक्के तौर पर नहीं पता है कि इन मंदिरों का निर्माण किसने करवाया। इस विषय को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. वा.वि. मिराशी के अनुसार मार्कण्डा के मंदिर संभवत: राष्ट्रकुट के शासक गोविंद तृतीय ने बनवाए होंगे। हालंकि राष्ट्रकुट ने विदर्भ में ८ वीं शताब्दी से लेकर १० वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया लेकिन अन्य इतिहासकार मिराशी से सहमत नहीं हैं और उनका मानना है कि मंदिरों का निर्माण उत्तर कलचुरी राजवंश के शासन के दौरान ८५० ई.स. और १००० ई.स. के बीच हुआ था। ये मंदिर चंदेल राजवंश के समय बने मंदिरों, ख़ासकर खजुराहों के मंदिरों से काफ़ी मेल खाते हैं। ये मंदिर कला की उन अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भारत में ९ वीं से ११ वीं शताब्दी तक फली फूली थीं। खजुराहों और मार्कण्डा मंदिरों के समय प्रबोधचंद्रोदय, कर्पूरमंजरी, विद्या शलभंजिका और काव्यमीमांसा जैसे काव्य-संग्रह और नाटकों का निर्माण हुआ । इन साहित्यिक कृतियों में उद्धृत कुछ प्रसंगों या विषयों को इन दोनों मंदिरों में प्रतिमाओं के बेहद खुबसूरती से तराशा गया है।
सदियों तक इन मंदिरों को भुला दिया गया था और वे गढ़चिरौली के घने जंगलों में खो भी गए थे। सन १८७३ में जब अंग्रेज़ पुरातत्वज्ञ अलेक्ज़ैंडर कनिंगहम भारत आए तब उन्होंने इन मंदिरों की दोबारा खोज की। वह लिखते हैं- “इनमें से कुछ मंदिर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं और दूसरे मंदिर बहुत छोटे हैं लेकिन लगते बहुत प्रभावशाली हैं और कुल मिलाकर वे ऐसे बेहद मनोरम मंदिर हैं जो मैंने पहले कभी नहीं देखे। वे न तो खजुराहो की तरह विशाल हैं और न ही संख्या के मामले में खजुराहो के मंदिरों के आगे टिकते हैं लेकिन मूर्तिकला और अलंकरण के मामले में वे खजुराहो के तरह ही काफ़ी समृद्ध हैं। इन मंदिरों की उम्र बताना मुश्किल है क्योंकि मंदिरों में कोई शिला-लेख नहीं है लेकिन इनकी बनावट खजुराहो के चंदेल मंदिरों और अन्य जगहों के मंदिरों से इतनी मेल खाती है कि बिना शंका के कहा जा सकता है कि इनका निर्माण १० वीं और ११ वीं शताब्दी में हुआ था।”
आज ये मंदिर भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षित स्मारकोंकी सूची में हैं । इन २४ में से कुछ मंदिर तो अपनी सुंदरता और समृद्ध शिल्पकला के कारण बेहद बेमिसाल माने जाते हैं।
मार्कण्डेय ऋषि मंदिर :
मार्कण्डा मंदिरसमूह में मार्कण्डेय ऋषि मंदिर सबसे विशाल मंदिर है जिसमें कलाकृतियों की भरमार है। ये मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। ये मंदिर खजुराहो के मंदिरों से काफ़ी मेल खाता है। पूरी सतह पर मूर्तियां, अलंकरण, मानव छवियों, हंसों, बंदरों और व्याल के शिल्प पाए जाते हैं ।
यहां पाई जाने वाली मूर्तियों में उमा-महेश्वर, जगदंबा, चामुंडा, लक्ष्मी, पार्वती, अभिषेकलक्ष्मी, विलक्षण सदाशिव, हरिहरपितामहार्क, त्रिमुखी ब्रह्मा, वीणाधारिणी सरस्वती इत्यादि के चित्रांकन के साथ-साथ शिव के विभिन्न रूपों, जैसे की – यमांतक शिव, अंधकारी, भैरव, कालभैरव, वीरभद्र, नटेश, त्रिपुरांतक, गजसंहार, भिक्षान्तक आदि शिल्पोंका अंतर्भाव हैं ।
बाहरी दीवारों पर इंद्र,अग्नी,वायू,कुबेर जैसे अष्टदिक्पालों के साथ अप्सराओं, सुरसुंदरी या देवांगना के नक्काशीदार शिल्प आगंतुकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। नृत्य क्रिया में तल्लीन सुरसुंदरी और अप्सराओं के आकर्षक शिल्पो के कारण मंदिर का प्रांगण अधिक आकर्षक प्रतीत होता हैं । इन सुरसुंदरीयों में दर्पणसुंदरी,केतकीभरण, कर्पूरमंजरी, मातृका / पुत्रवल्लभा, चामरी, दलमलिका, शलभंजिका, पद्मगंधा, नर्तकी, शुकसारिका, नूपुरपादिका, मर्दला, आलसकन्या,चंद्रावली , वेणुवादिका, पत्रलेखिका, शुभगामिनी आदि देवांगनायें चित्रित की गयी हैं।
सर अलेक्ज़ेंडर कनिंगहेम ने इस तरह के ४०० से ज़्यादा शिल्पों की गिनती की थी। मानव चित्रों के बीच जो मूर्तियां हैं उनमें आधी मूर्तियां शेर और हाथियों की हैं। आधे से ज़्यादा भित्तिपट्टिकों पर शिव और पार्वती के विभिन्न मुद्राओं के शिल्प हैं। यहां देवांगनाओंकी निर्वस्त्र छवियां भी हैं लेकिन इनमें अश्लीलता नहीं दिखाई देती।
क़रीब ३५० साल पहले मंदिर पर बिजली गिरी थी। इस वजह से विशाल आवर्त का ऊपरी हिस्सा महामंडप की छत के ऊपर गिरा जिससे महामंडप भी नष्ट हो गया और पास का एक छोटा मंदिर भी तहस नहस हो गया था । माना जाता है कि 300 साल पहले महामंडप की छत को फिर बनाया गया था लेकिन बहुत ही लापरवाही से। इसकी मरम्मत चांदा के गोंड राजाओं के वास्तुकारों ने की थी। उन्होंने छत बनाने में बड़े बड़े खंबों और जालीदार मेहराबों का इस्तेमाल किया था।
मार्कण्डेय ऋषि मंदिर के सामने और नदी के किनारे नंदीकेश्वर का मंडप है जो नंदी का मंदिर हुआ करता था। इस तरह के मंदिर शिव को समर्पित मुख्य मंदिरों के समीप हुआ करते थे। नंदीरकेश्वर मंडप अब उध्वस्त हो चुका है।
मृकण्डु ऋषि मंदिर :
मार्कण्डा मंदिरसमूह में दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है मृकण्डु ऋषि मंदिर। माना जाता है कि मृकण्डु ऋषि मार्कण्डेय के पिता थे। मंदिर के सभागार की छत चार खंबों पर टिकी हुई है जिस पर सुंदर नक़्क़ाशी है। मंदिर के ऊपर एक विशाल आवर्त है जो देखने में भव्य है। ये मंदिर शिव को समर्पित है और मंदिर के भीतर शिवलिंग भी है।
यमधर्म मंदिर :
यम धर्मराज को समर्पित ये मंदिर अपने आपमें अनौखा है। यहां की मेहराबें मृत्युंजय के रुप में शिव को समर्पित हैं। देखने से लगता है कि इसे बनाने वाले का उद्देश्य शिव को यम (मृत्यु) और मृत्यंजय (मृत्यु पर विजय हासिल करने वाला) के रुप में दिखाना था। मंदिर की बाहरी दीवारों के प्रकोष्ठ में चामुण्डा, अंधकासुर वध और सात अश्वोंपर सवार सूर्यदेव की मूर्तियां हैं।
दशावतार मंदिर :
इस मंदिर में भगवान विष्णु के दस अवतार (दशावतार) सुंदर मूर्तियों के रूप स्थापित किये गए हैं l इस मंदिर को भित्तिस्तंभो द्वारा १२ विभागों में विभाजित किया हैं । ये मंदिर संभवतः पूरे समूह में सबसे पुराने हैं।
उपरोक्त मंदिरों के अलावा मंदिर परिसर में उमा-महेश्वर, शक्तिदेवी, शिव, गणेश, विश्वेश्वर, भीमसेन, वीरेश्वर, भीमाशंकर, राज राजेश्वर, मामलेश्वर, नाग ऋषि आदि के भी मंदिर हैं।
विदर्भ और आसपास के राज्यों से आज भी हर साल महाशिवरात्री के अवसर पर लोग यहां बड़े पैमाने पे आते हैं। इस मौक़े पर यहाँ काफी बड़ा मेला लगता है जहां लोग वैनगंगा के पवित्र जल में अपने पाप धोकर प्रायश्चित्त करते हैं। ये मेला लगभग फ़रवरी के महीने में लगता है जिसमें एक लाख से ज़्यादा लोग इकट्ठा होते हैं। दुर्भाग्य से स्थानीय लोगों के अलावा इस शानदार ‘विदर्भ के खजुराहो’ के बारे में बाहर के लोग कुछ ख़ास नहीं जानते।
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