मनेर शरीफ़: बिहार की सूफ़ी विरासत

बिहार को नालंदा, विक्रमशिला और बोध गया जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों तथा उसके प्राचीन अतीत और बौद्ध विरासत के लिए जाना जाता है। लेकिन कई लोगों को ये नहीं पता कि बिहार का सूफ़ी परंपरा से भी गहरा नाता रहा है। इस बात की गवाह है मनेर शरीफ़ दरगाह जो पश्चिम पटना से 24 कि.मी. दूर है। मनेर में दो शानदार मक़बरे हैं, बड़ी दरगाह और छोटी दरगाह जहाँ दो सूफ़ी संत दफ़्न हैं। वास्तुकला के शानदार उदाहरण, ये स्मारक पूर्वी भारत में मुग़ल शैली के बेहतरीन स्मारकों में से हैं। दिलचस्प बात ये है कि इन मक़बरों का निर्माण बिहार के मुग़ल गवर्नर इब्राहीम ख़ां ने करवाया था। आज भी मनेर शरीफ़ ज़ियारत का एक महत्वपूर्ण केंद्र है।

बिहार से सूफ़ियों के सम्बन्ध का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहां सूफ़ी संतों की कई मस्जिदें और ख़ानकाहें हैं। इनमें से एक सूफ़ी संत बाबा पीर दमड़िया की ख़ानक़ाह भी है जो भागलपुर में है और जिसके प्रति मुग़लकालीन बादशाहों की विशेष आस्था थी। बिहार में महत्वपूर्ण सूफ़ी केंद्रों में बिहार शरीफ़, मनेर शरीफ़, फुलवारी शरीफ़ और अज़ीमाबाद शामिल है। मनेर शरीफ़ में दो मक़बरे, बड़ी दरगाह और छोटी दरगाह क्रमश: सूफ़ी संत मख़दूम याह्या मनेरी और मख़दूम शाह दौलत को समर्पित हैं। इन स्मारकों के महत्व को समझने के लिए पहले हम मनेर के सूफ़ी संबंधों की पड़ताल करते हैं।

मौजूदा समय में बिहार के पटना ज़िले में स्थित मनेर को प्राचीन काल से ही इस्लामिक शिक्षा का केंद्र माना जाता था। कुछ पारंपरिक विवरणों के अनुसार मोमिन आरिफ़ और इमाम ताज फ़क़ीह मनेर के पहले मुस्लिम सूफ़ी थे। मनेर एक प्राचीन स्थान है और यह बिहार में इस्लाम धर्म के अध्ययन और इस्लामिक गतिविधियों के प्राचीनतम केंद्रों में से एक केंद्र हुआ करता था। इमाम ताज फ़क़ीह (सन 1130) एक महान धर्मशास्त्री थे जो यरुशलम से यहां आए थे। मख़दूम याह्या मनेरी सहित मनेर के कई सूफ़ी संतों उनके वंशज थे। कहा जाता है कि मोमिन आरिफ़ यमन से भारत आए थे और क़रीब सन 1180 में उन्होंने बिहार में ख़ुद को स्थापित कर लिया था। विश्वास किया जाता है कि उनकी क़ब्र मनेर में इंस्पेक्शन बंगले के उत्तर-पश्चिमी दिशा में है। मनेर में रहने वाले कई लोग ख़ुद को उनके वंशज होने का दावा करते हैं।

बिहार में जो सूफ़ी व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण थी, उसमें दक्षिण बिहार और मनेर में सुहरावरदिया और फ़िरदौसिया व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण थी। फ़िरदौसिया व्यवस्था सुहरावरदिया व्यवस्था का ही हिस्सा थी। ख़्वाजा बख़्तियार काकी के यहां आने के बाद भारत में सूफ़ी व्यवस्था के संस्थापक ख़्वाजा बदरउद्दीन समरक़ंदी, दिल्ली में बस गए थे। लेकिन फ़िरदौसिया लगभग 14वीं सदी के आसपास बिहार आए थे उसी के बाद यहां सूफ़ी व्यवस्था फलीफूली। उन्होंने मनेर में कई ख़ानकाहें स्थापित की थी।

मनेर के इतिहास में मख़दूम याह्या मनेरी सबसे महत्वपूर्ण संतों में से एक हैं। वह बिहार के मशहूर सूफ़ी संत मख़दूम शरीफ़उद्दीन मनेरी के पिता थे। याह्या मनेरी का जन्म, मनेर में हुआ था और सन 1290-91 में यहीं उनका निधन हुआ। वह संतो के परिवार के सदस्य और इमाम ताज फ़कीह के पोते थे। यासीर अरसलान ख़ां ने “बिहार में फ़ारसी भाषा और साहित्य के विकास में सूफ़ियों का योगदान” विषय पर शोध किया है। उन्होंने अपने शोध के एक पर्चे में अब्दुस समद का हवाला दिया है जो 16वीं सदी के चित्रकार और जीवनी लेखक थे। यासीर के अनुसार अब्दुस समद अपने दुर्लभ कार्य “अख़बार-उल-आसिफ़ा” में लिखते हैं, “सिराज-उल-मज्द के लेखक शेख़ याह्या बिन इस्राइल (मख़दूम याह्या मनेरी) अपने समय के महान हस्तियों में से एक थे। उनके दादा (इमाम ताज फ़कीह) पवित्र शहर ख़लील (यरुशलम) से मनेर आए थे जहां वह इस्लाम के मानदंड स्थापित करने के बाद वापस अपने घर वापस चले गए….शेख़ याह्या बिन इस्राइल ने मनेर में अपने आध्यात्मिक अनुभव पर महारथ हासिल की और 11 अगस्त सन 1291 को उनका वहीं निधन हो गया…” उनके पुत्र मख़दूम शरीफ़उद्दीन मनेरी की बिहार के सबसे महत्वपूर्ण और पूज्नीय सूफ़ी संतो में गिनती होती है। उन्होंने दो किताबें लिखीं-मकतूबात-ए-सादी और मकतूबात-दो-सादी जिसे रहस्यवादी घार्मिक शिक्षा और इस्लाम के सिद्धांतों का बेहतरीन संग्रह माना जाता है। इनकी क़ब्र बिहार शरीफ़ में है जहां उन्होंने अपने जीवन के बाक़ी दिन बिताए थे।

मनेर में बड़ी दरगाह मख़दूम याह्या मनेरी की है। इसका निर्माण और विकास इब्राहीम ख़ां ने करवाया था जिसे दिलावर ख़ां के नाम से भी जाना जाता था। इब्राहीम ख़ां, मुग़ल शासन के दौरान सन 1605 और सन 1619 के बीच बिहार का गवर्नर था। इब्राहीम ख़ां ने मनेर में और भी कई स्मारक बनवाए जैसे ख़ानकाह और छोटी दरगाह। छोटी दरगाह एक अन्य सूफ़ी संत शेख़ बायज़ीद की है जिन्हें शाह दौलत के नाम से भी जाना जाता था। वह इमाम ताज फ़कीह के आठवें वंशज थे। माना जाता है कि शाह दौलत का सन 1608 में निधन हुआ था।

परंपराओं के अनुसार इब्राहीम ख़ां शाह दौलत का मूरीद था। कहा जाता है कि उसने अपने पीर की क़ब्र के पास जो दरगाह बनाई थी वह उसका बहुत ही महत्वाकांक्षी वास्तुशिल्पीय प्रयास था। छोटी दरगाह वाक़ई बहुत ख़ूबसूरत इमारत है जिसका निर्माण कार्य 1616 के आसपास पूरा हुआ था।

ये दरगाह एक उठे हुए ऊंचे चबूतरे पर बनी हुई है। दरगाह की दीवारों पर सुंदर, महीन नक़्क़ाशी की गई है। इसके ऊपर एक सुंदर गुंबद है जिसकी छत पर क़ुरान की आयतें लिखी हुई हैं। दरगाह की वास्तुकला मुग़ल वास्तुकला शैली से बहुत मिलती जुलती है जिसका जहांगीर के समय में चलन था। कहा जाता है कि ये पूर्वी भारत में बेहतरीन मुग़ल स्मारकों में से एक है।

दरगाह परिसर के अंदर एक मस्जिद है जिसे इब्राहीम ख़ां ने सन 1619 में बनवाया था। प्रवेश-द्वार पर एक पुराना अभिलेख है जो सन 1603-04 का है। ये प्रवेश-द्वार उत्तर दिशा की तरफ़ खुलता है।

याह्या मनेरी अथवा बड़ी दरगाह का मक़बरा पूर्व दिशा में एक बड़े जलाशय के पास एक मस्जिद में है। मक़बरे की दीवारों पर चिनाई का काम है और घाट भी बने हुए हैं। इसके अलावा यहां स्तंभ वाले बरामदे भी हैं। मक़बरा उत्तर और पश्चिम में एक अहाते में है जहां पुराने पेड़ लगे हुए हैं और कई क़ब्रें भी हैं। मस्जिद के तीन गुंबद हैं और कुछ छोटे अनूठे विहार हैं जिनका निर्माण इब्राहीम ख़ां ने सन 1605-06 में करवाया था। ये मक़बरा शाह दौलत के मक़बरे की तरह भव्य नहीं है लेकिन ये ज़ियारत का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।

सिकंदर लोदी, बाबर और हुमांयू जैसे बादशाह भी ज़ियारत के लिए मनेर की इन दरगाहें पर आए थे जहां सूफ़ी संत दफ़्न हैं। परगना मनेर को कभी कभी मनेर-ए-शेख़ याह्या भी कहा जाता था। इसका नाम सूफ़ी संत शेख़ याह्या के नाम पर रखा गया था।

इन दरगाहों पर सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालू ज़ियारत के लिए आते हैं। सूफ़ी धरोहर वाला पवित्र शहर मनेर सही मायने में बिहार के क़ीमती नगीनों में से एक है।

मुख्य चित्र: छोटी दरगाह, मनेर शरीफ़, ब्रिटिश लाइब्रेरी

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