मध्य प्रदेश, आमतौर पर खजुराहो और मांडू जैसी चंद ऐतिहासिक जगहों के लिये जाना जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है, मध्यप्रदेश में इनके अलावा भी देखने और जानाने के लिये बहुत कुछ है। यह प्रदेश कुछ सबसे आकर्षक स्मारकों और पुरातात्व के हिसाब से अहम स्थलों का घर भी है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि राज्य के मंदसौर ज़िले में औलिकार वंश के राजा यशोधर्मन का शिलालेख मौजूद है। यशोधर्मन ने मध्य एशिया की शक्तिशाली जनजाति के हूण राजवंश को हराया था। औलिकार वंश के बारे में लोग ज़्यादा नहीं जानते हैं। लेकिन औलिकार वंश के इतिहास से मंदसौर क्षेत्र के प्रारंभिक दौर के बारे में दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं।
उज्जैन से लगभग 120 किलोमीटर दूर पर राजा यशोधर्मन का “मंदसौर स्तंभ शिलालेख” है। दरअसल यह छठी शताब्दी के शिलालेखों का एक समूह है। इन शिलालेखों में तिब्बत की घाटियों में बसने वाली जनजाति हूण के राजा मिहिरकुल पर औलिकार राजा यशोधर्मन की जीत का उल्लेख है।
प्राचीन काल में दशापुरा के नाम से जाना जाने वाला मंदसौर एक लोकप्रिय सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था। यह क्षेत्र संभवतः गुप्त-राजवंश (शासनकाल तीसरी-छठी शताब्दी) की प्रमुख प्रांतीय राजधानियों में से एक था। इस अवधि से संबंधित कई शिलालेख शहर और इसके आसपास के इलाक़ों में पाए गए थे। मालवा और मेवाड़ की सीमा पर सामरिक महत्व के रूप से स्थित होने की वजह से मध्ययुगीन काल में यहां समय समय पर गुर्जर प्रतिहारों, दिल्ली सल्तनत और मुग़लों का शासन रहा।
मंदसौर से लगभग 4 किमी दूर सोंदानी गांव में, लाल बलुआ पत्थर से बने एक स्तंभ पर उकेरा गया शिलालेख, औलिकार वंश के राजा यशोधर्मन के शासनकाल का है। प्राचीन काल में औलीकार एक क़बीला था, जिसने वर्तमान मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र पर शासन किया था। इसके दो घरानों ने चौथी और छठी सदी के आसपास इस इलाक़े पर शासन किया था। यशोधर्मन सबसे महत्वपूर्ण राजा था, जिसका संबंध औलिकार वंश के दूसरे घराने से था। दूसरे शाही घराने ने छठी शताब्दी में शासन किया था। वह संभवतः गुप्त-शासनकाल में एक सामंत था, जिसने गुप्त साम्राज्य में राजनीतिक अशांति और आक्रमणों का लाभ उठाकर
ख़ुद को आज़ाद घोषित कर दिया था। यह शिलालेख संस्कृत में लिखा गया है। उस पर लेखक का नाम वसुला दर्ज है। शिलालेख एक शोकगीत या मरसिये के रूप में लिखा गया है, जिसमें राजा की मृत्यु के बाद उसकी वीरता और विजय का वर्णन किया गया है।
हालांकि शिलालेख में वर्णन काफ़ी विस्तृत नहीं है लेकिन यह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि पत्थर की पट्टियों के साथ ये स्तंभ शिलालेख केवल उन तीन शिलालेखों में शामिल है जो यशोधर्मन के शासनकाल पर प्रकाश डालते हैं।
शिलालेख से पता चलता है, कि यशोधर्मन ने अपने सभी शत्रुओं को पराजित किया था और उत्तर में हिमालय, दक्षिण में महेंद्र पर्वत (पूर्वी घाट) और पूर्व में लौहित्य नदी (ब्रह्मपुत्र), पश्चिम में पश्चिम पयोढ़ी (अरब सागर) तक अपने शासन का विस्तार किया था। इसमें यह भी लिखा है कि यशोधर्मन ने उन क्षेत्रों तक पर कब्ज़ा कर लिया था जिन पर गुप्त राजा भी नहीं कर पाए थे। संभवतः अपना इन्हीं सफलताओं के कारण उसने ख़ुद को राजाधिराज और परमेश्वर घोषित कर दिया था।
जैसा कि शिलालेख में लिखा है, इसमें कोई शक़ नहीं, कि हूण राजवंश पर जीत उसके शासनकाल की एक बड़ी उपलब्धी थी। हूण चौथी और छठी शताब्दी के बीच मध्य एशिया की एक जनजाति थी जिसे किडाराइट्स, हफथाली, अल्चोन और नेज़क के रूप में वर्गीकृत किया गया था। वे पहली बार 5वीं शताब्दी में भारत में आए थे लेकिन सबसे शक्तिशाली गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने उन्हें मार भगाया था। छठी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद हूण राजवंश ने एक बार फिर भारत में प्रवेश किया। लगभग 6वीं शताब्दी के आसपास तोरमाण के नेतृत्व में अलचोन के हूणों ने उत्तरी भारत में मध्य प्रदेश में एरण तक पर कब्जा कर लिया था।
तोमर का उत्तराधिकारी उसका पुत्र मिहिरकुल था, जिसे भारत का सबसे शक्तिशाली हूण राजा कहा जाता था। लगभग सन 525 में उसके शासनकाल में पंजाब से लेकर ग्वालियर तक के क्षेत्र आते थे। प्राचीन लेखों में उसे एक अत्याचारी और बर्बर राजा बताया गया है। माना जाता है कि उसके पास एक बड़ी सेना थी जिसमें कई हाथी और घोड़ें थे। कहा जाता है कि उसने कश्मीर और गांधार से अपना विजय अभियान शुरू किया था और बौद्ध स्थलों और मठों को नष्ट कर दिया था। यहां तक कि रास्ते में उसने कई लोगों को मार भी डाला था।
वह मध्य भारत तक आया लेकिन वह लंबे समय तक इस क्षेत्र पर कब्जा नहीं कर सका और यशोधर्मन ने उसे हरा दिया। हार के बाद उसे राजा को हरजाना भी देना पड़ा था। “वो (यशोधर्मन) जिनके दो चरणों में शीश नवाए जाते थे और उनके सर के बालों की लटों से झूलते फूल का हम प्रसाद लेते थे और प्रसिद्ध राजा मिहिरकुल जिसका सर भगवान स्थाणु के अलावा पहले श्रद्धा से कभी नहीं झुका, जिसकी बाहों में वो बर्फ़ीले पहाड़ थे जिन्हें अपने अजेय दुर्ग होने का दम्भ था, उसका माथा पहली
बार ऐसे शक्तिशाली के हाथों से श्रद्धा में झुकने को बाध्य हुआ है।
सन 1879 में आर्थर सुलिवन नाम के किसी व्यक्ति ने मंदसौर में पत्थर के स्तंभ शिलालेख की एक नक़ल के टुकड़े को देखा और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को शिलालेख की एक हाथ की लिखी प्रति भेजी। इसी प्रति की वजह से सन 1884 में पुरालेखवेत्ता जॉन फ़ेथफ़ुल फ़्लीट ने असली स्तंभ शिलालेख की खोज की थी। जिसके बारे में शोद्ध-पत्र पहली बार सन 1886 में भारतीय पुरातन खंड-15 में प्रकाशित किया था।
आज शिलालेख अपने मूल स्थान पर मौजूद है जो अब मंदसौर में यशोधर्मन पुरातत्व संग्रहालय का एक हिस्सा है।
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