बिहार के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक मानचित्र पर मंदार पर्वत का एक विशेष स्थान है। बिहार-झारखंड की सीमा पर यह भागलपुर-दुमका मार्ग पर, भागलपुर प्रमंडल के बांका ज़िले के अन्तर्गत बौंसी नामक प्रखंड में स्थित है।
मंदार पर्वत के साथ देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन की पौराणिक गाथाएं जुड़ी हुई हैं। पुरातन काल में 16 महाजनपदों में से एक अंग देश में स्थित मंदार की महत्ता के वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में विस्तार से मिलते हैं। वहीं दूसरी ओर इसकी चट्टानों पर उकेरी गयी प्राचीन मूर्त्तियां और शिला-लेख, इसके ऐतिहासिक-पुरातात्विक महत्व की गवाही दे रहे हैं।
मंदार पर्वत से जुड़ी पौराणिक गाथाओं का ज़िक्र करते हुए पुराविद् डॉ. आर. पाटिल ‘द एंटीक्वेरियन रिमेंस इन बिहार’ में बताते हैं कि अमरत्व प्राप्ति की मंशा से देवताओं और असुरों ने मिलकर अमृत मंथन किया था जिसमें मंदार पर्वत को ‘मंथनी’ (churning rod) और मिथकीय बासुकी नाग को नेति अर्थात् रस्सी के रूप में प्रयोग किया गया था। ‘स्कंध पुराण’ के ‘मंदार महात्म्य खंड’ में समुद्र मंथन की गाथा और मंदार पर स्थित विभिन्न धार्मिक स्थलों की विस्तार से चर्चा की गई है। इस मंथन में समुद्र के गर्भ से 14 रत्न प्राप्त हुए थे, जिनमें महालक्ष्मी, ऐरावत, कामधेनु, कौस्तुभ मणि, कल्प वृक्ष आदि के नाम शामिल हैं।
ग्रेनाइट पत्थर की एक ही चट्टान (monolith) से निर्मित मंदार पर्वत क़रीब 700 फ़ुट ऊंचा है। इसकी शाखायें सात भागों में बंटकर, पश्चिम से पूरब की ओर धीरे-धीरे उठती हुईं शिखर तक जाकर, मनोहारी दृश्य पैदा करती हैं।
समुद्र मंथन की गाथा में वर्णित है कि मधु नामक असुर ने अमरत्व प्राप्ति की मंशा से छल से अमृत पी लिया था, जिसका वध भगवान विष्णु ने किया था। मधु असुर का वध करने के कारण विष्णु का एक नाम मधुसूदन अर्थात् मंदार मधुसूदन पड़ गया जिनके प्रति इस क्षेत्र के लोगों में विशेष श्रद्धा है। भगवान मधुसूदन की प्राचीन मूर्ति मंदार के निकट बौंसी बाज़ार में एक भव्य मंदिर में स्थापित है। पहले यह मूर्ति मंदार पर्वत पर बने मंदिर में स्थापित थी जिसके क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उसे यहां लाया गया।
प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर मंदार पर्वत की तलहटी में एक मेला लगता है जो ‘बौंसी मेला’ के नाम से मशहूर है। यह मेला सोनपुर मेले के बाद बिहार का सबसे बड़ा मेला माना जाता है, जिसमें स्थानीय लोगों के साथ बिहार और झारखंड तथा निकटवर्ती बंगाल के लोग बड़ी संख्या में भाग लेते हैं। ऐसी लोक-आस्था है कि मकर संक्रांति के दिन स्वर्ग- लोक के समस्त देवतागण विष्णु स्वरूप मधुसूदन को अपनी श्रद्धा अर्पित करने के लिये मंदार पधारते हैं।
मकर संक्रांति के दिन बड़े धूम-धाम और बाजे-गाजे के साथ मंदार मधुसूदन की प्राचीन मूर्ति की शोभा-यात्रा निकाली जाती है।उसके बाद उन्हें मंदार पर्वत की परिक्रमा करायी जाती है। इस दिन श्रद्धालूगण सबसे पहले मंदार पर्वत की तलहटी में स्थित पापहारिणी सरोवर में स्नान करते हैं और इसके बाद सरोवर के बीच में स्थित अष्टपद लक्ष्मीनारायण मंदिर में जाकर पूजन करते हैं। उसके बाद बौंसी मेले का आनंद उठाते हैं।
पुराविद् डॉ. डी.आर. पाटिल के अनुसार विभिन्न पौराणिक गाथाओं से सम्बद्ध होने के कारण, मंदार धार्मिक दृष्टि से, समय के साथ, महत्त्वपूर्ण होता गया और एक तीर्थ-स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसकी पहचान वैष्णव सम्प्रदाय के भागवत-पंथ के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में बन गयी। वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु ने 1505 ई. में यहां की यात्रा की थी।
मंदार पर्वत की इस धार्मिक महत्ता के कारण समय के अंतराल में हिन्दू धर्मावलंबी कई राजा और शासक इससे जुड़ते गये। उन्होंने मंदार पर्वत की चट्टानों पर कई धार्मिक मूर्तियां बनवायीं जो विशेष रूप से समुद्र मंथन के प्रसंगों से जुड़ी थीं। मंदार के पत्थरों पर उकेरे गये भगवान विष्णु और उनके विभिन्न अवतारों, देवी लक्ष्मी, महाशंख, सुदर्शन चक्र, सरस्वती, गणेश, दुर्गा, मधु असुर आदि की असंख्य मूर्तियां और मंदिरों-गुफाओं के भग्नावशेष आज भी इसकी गवाही दे रहे हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है, मानों इन चट्टानों पर पौराणिक कथाएं साकार हो उठीं हों। मंदार का गहन अध्ययन करनेवाले पुराविद डॉ. अजय सिन्हा का मानना है कि साहित्यिक ग्रंथों में वर्णित मंदार संबंधी कथ्यों की, इसके ऐतिहासिक तथ्यों के साथ पुष्ट समानता है।
यही कारण है कि जहां एक ओर मंदार के पौराणिक-धार्मिक महत्ता की चर्चा विष्णु, नरसिंह, कूर्म, बामन, वाराह, स्कंध पुराणों में है, वहीं इसके इतिहास, पुरातत्व और शिल्प की विस्तृत चर्चा बुकानन, फ्रैंकलिन, मार्टिन, बेगलर, हंटर और ब्लोच सहित डॉ. डी.आर. पाटिल, जे. एन. समाद्दार, आर.बी. बोस, डॉ. अभय कान्त चौधरी, डॉ. अजय सिन्हा सरीखे पुरातत्व वेत्ता, इतिहासकारों और विद्वानों ने अपने ग्रंथों में की है।
पुराविदों के अनुसार मंदार की चट्टानों पर उकेरी गई अधिकांश मूर्तियों और शिल्पों का श्रेय मगध के उत्तर गुप्त-वंश के राजा आदित्य सेन को जाता है। आदित्य सेन वैष्णव मत को मानने थे । इसी कारण ‘परम भागवत’ कहलाते थे और मंदार पर्वत से घनिष्ठता के साथ जुड़े थे। ‘द ग्लोरीज़ आफ़ मगध’ में जे.एन. समाद्दार बताते हैं कि उत्तर गुप्त-वंश के माधवगुप्त के बाद उनके पुत्र आदित्य सेन राजगद्दी पर बैठे जो अपने वंश के पहले शाही शासक थे जिन्होंने ‘परम भट्टारक महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की थी।
मंदार पर्वत एवं देवघर वैद्यनाथ मंदिर के शिला-लेखों से जानकारी मिलती है कि राजा आदित्य सेन ने मंदार पर्वत पर भगवान विष्णु के अवतार नरहरि के मूर्ति की स्थापना की थी। ‘प्री-हिस्टोरिक, एनशिएंट एण्ड हिन्दू इंडिया’ में पुराशास्त्री आर. डी. बनर्जी तथा ‘कारपस इंसक्रिप्शंस इंडीकेरम’ में जे.एफ़.फ़्लीट बताते हैं कि राजा आदित्य सेन की रानी कोणादेवी ने 7 वीं शताब्दी में, मंदार पर्वत की तलहटी में, पापहारिणी नामक सरोवर का निर्माण करवाया था। आदित्य सेन के शासनकाल में ही बलभद्र नामक व्यक्ति ने विष्णु के एक अवतार वाराह की मूर्ति मंदार पर स्थापित की थी।
मंदार पर्वत-क्षेत्र का गहन अध्ययन करनेवाले पुराविद डॉ. अजय कुमार सिन्हा अपनी पुस्तक ‘एनशिएंट हेरिटेज आफ़ अंग’ में बताते हैं कि मंदार पर्वत के चारों ओर बिखरी हुईं अनगिनत मूर्तियां एवं प्राचीन संरचनाओं के अवशेष इस बात की ओर इशारा करते हैं कि 7 वीं से 10 वीं सदी के दौरान मंदार शिल्प का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा होगा। मंदार की धार्मिक पृष्ठभूमि से प्रभावित हिंदू राजाओं के संरक्षण में पलने वाले शिल्पियों ने मंदार की चट्टानों पर शिल्प के इन अद्भुत नमूनों को अंजाम दिया होगा।
मंदार के शिला-खंडों पर हिंदूओं के धार्मिक और अमृत मंथन की पौराणिक गाथाएं मानों साकार हो उठीं हैं। मंदार की चट्टानों पर समुद्र मंथन के अग्रदेव भगवान विष्णु अपने विभिन्न अवतारों में, अपनी अर्धांगिनी देवी लक्ष्मी सहित सम्पूर्ण आभामंडल के साथ विराजमान हैं।
यूं तो मंदार पर भगवान विष्णु की कई मूर्तियां हैं, लेकिन सबसे आकर्षक है शेषशायी विष्णु की मूर्ति जो पर्वत पर 110’x50′ आकार वाले सीता कुण्ड के अंदर इसकी उत्तरी दिवार पर उकेरी गई है। कुण्ड के जल में डूबी रहनेवाली यह मूर्ति सिर्फ़ सूखे मौसम में ही नज़र आती है। क्षेत्रीय अनुसंधान कर्ता उदय शंकर बताते हैं कि शिल्पकारों ने इस कुशलता के साथ इस मूर्ति का निर्माण किया है कि यह देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक तो पानी में डूबी रहती है, लेकिन देवोत्थान एकादशी के बाद से धीरे-धीरे पानी से निकलने लगती है। शिल्प-कला के साथ प्रकृति के ॠतु-चक्र का ऐसा सामंजस्य विरले ही देखने को मिलता है।
उक्त सीता कुण्ड के उपर उत्तर दिशा में 15’x10′ आकार वाली एक संकरी गुफा में नरसिंह भगवान का मंदिर है जिसकी चट्टान पर नरसिंह की रौद्र मुद्रा में मूर्ति अंकित है। इस गुफा में विष्णु की एक अन्य मूर्ति के साथ लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियां भी अंकित हैं।
नरसिंह गुफा के बग़ल वाली चट्टान पर वामन त्रिविक्रम की कलात्मक चतुर्भूजी मूर्ति (190×165 सेंमी) देखी जा सकती है जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। वामन त्रिविक्रम विष्णु के पांचवें अवतार माने जाते हैं। ॠगवेद के अनुसार त्रिविक्रम ने अपने तीन क़दमों से, तीनों लोकों को नाप लिया था। अपना एक पांव ऊपर की दिशा में उठाते हुए चित्रित मंदार की त्रिविक्रम मूर्ति इस धार्मिक मान्यता को दर्शाती है।
नरसिंह मंदिर की ऊपर पहाड़ी पर शंख कुण्ड नाम का एक सरोवर है। इस कुण्ड से पुरावेत्ता डॉ. अजय कुमार सिन्हा ने विष्णु की एक आवक्ष प्रतिमा सहित, वाराह, विष्णु और स्थानक मुद्रा में विष्णु की अन्य दो मूर्त्तियों की खोज की थी, जो भागलपुर संग्रहालय में मौजूद हैं।
मंदार पर्वत पर संभंग मुद्रा में खड़ी विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति (86×54 सेंमी.) अत्यंत आकर्षक है। इस मूर्ति में भगवान विष्णु जहां अपने दोनों ऊपरी हाथों में मानक (standard) धारण किये हुए हैं, वहीं निचले दोनों हाथ क्रमशः लक्ष्मी और सरस्वती के ऊपर हैं। इसके अलावा नरसिंह विष्णु की एक अन्य चतुर्भुज खड़ी मूर्ति अत्यंत क्रोधित मुद्रा में है। किसी पुरुष देवता पर आरूढ़ यह मूर्ति अपने निचले दोनों हाथों से हिरण्यकशिपु को पकड़े हुए है।
भगवान विष्णु की विविध मूर्त्तियों के अलावा मंदार पर्वत की चट्टानों पर उनके द्वारा धारित किये जाने वाले पवित्र मांगलिक वस्तुओं के भी मनोहारी चित्रण देखे जा सकते हैं। नरसिंह मंदिर के पास मिली विष्णु द्वारा धारित सुदर्शन चक्र की मूर्ति भागलपुर संग्रहालय में संकलित है। समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक महाशंख सदैव भगवान विष्णु के हाथों में विद्यमान रहता है। महाशंख की एक विशालाकार मूर्ति मंदार पर्वत के ऊपर स्थित शंख-कुण्ड में देखी जा सकती है जिसे एक बड़े प्रस्तर-खंड को तराशकर बनाया गया है।
इसी तरह अमृत मंथन में चौदह रत्नों के रुप में कामधेनु गाय भी मिली थी। मंदार की तलहटी में एक छोटे मंदिर में कामधेनु की एक अत्यंत कलात्मक प्रस्तर मूर्ति देखी जा सकती है। अंग्रेज़ विद्वान फ्रैंकलिन पाटलिपुत्र की खोज संबंधी अपनी पुस्तक ‘पोलिबोथरा’ में बताते हैं कि माला और पुष्पों से सज्जित 6’3″ लम्बी और 3’4″ ऊंची कामधेनु की यह मूर्ति भूरे बलुआ पत्थर से निर्मित है, जिसके थन में मुंह लगाकर बछड़े दूध पी रहे हैं।
जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि समुद्र मंथन की पौराणिक गाथा में मधु असुर का प्रसंग वर्णित है। मधु ने अमरत्व प्राप्ति की मंशा से छल से अमृत का पान कर लिया था जिसके सिर को भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से काटकर धड़ से अलग कर दिया था। मंदार के नरसिंह मंदिर के बग़ल की चट्टान पर मधु असुर के सिर की एक विशाल मूर्ति मौजूद है। मंदार का दौरा करनेवाले अंग्रेज़ विद्वान कैप्टन शेरविल बताते हैं कि मधु असुर के सिर की मूर्ति का आकार ऊपर से नीचे 6’7″ है। क्षेत्रीय परम्पराओं का ज़िक्र करते हुए डॉ.अभय कान्त चौधरी ‘जर्नल आफ़ बिहार रिसर्च सोसाइटी’ में प्रकाशित अपने लेख में बताते हैं कि स्थानीय लोग पुराने समय से इसे मधु असुर के सिर की मूर्ति मानते आये हैं।
मंदार पर्वत पर पौराणिक गाथाओं एवं भगवान विष्णु से संबंधित उक्त मूर्त्तियों के अलावा भी कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इन मूर्तियों में महालक्ष्मी, दुर्गा, महाकाली, सरस्वती, गणेश, सूर्य, अंधकासुर वध आदि की मूर्तियां पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
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