मध्य भारत में छत्तीसगढ़ राज्य ऐतिहासिक धरोहरों के साथ-साथ खूबसूर्ती का ख़ज़ाना भी है। वहां के बिलासपुर ज़िले में एक प्राचीन शहर है जो इतिहास में डूबा हुआ है और यहाँ इसके लंबे अतीत के प्रमाण भी मिलते हैं। मल्हार शहर इस क्षेत्र के सबसे दिलचस्प पुरातात्विक स्थलों में से एक है। वहां पाये गये एक क़िले के और मंदिरों के संरचनात्मक अवशेषों तथा मिट्टी के बर्तनों, सिक्कों, लघु मूर्तियों आदि जैसी कलाकृतियों से पता चलता है कि इस शहर में दूसरी ई.पूर्व सदी से 13वीं सदी तक लगातार बसाहट थी। क्या आप जानते हैं कि मल्हार शहर में मौर्य, सातवाहन, गुप्त और कलचुरि जैसे भारतीय इतिहास के कुछ सबसे प्रमुख राजवंशों का शासन था, जिसके सबूत यहाँ में आज भी मौजूद हैं?
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 143 किमी और बिलासपुर के ज़िला मुख्यालय से लगभग 32 किमी दूर स्थित मल्हार एक ऐतिहासिक क़िलेबंद इलाक़ा है।
यहां आपको अन्य चीज़ों के अलावा दो ख़ंदकों वाले मिट्टी के एक पुराने क़िले के अवशेष, मंदिर और एक बड़ा टीला मिलेगा। मंदिरों में भीम कीचक और पातालेश्वर मंदिर बहुत प्रसिद्ध हैं।
मल्हार शहर मध्य भारत के क्षेत्र दक्षिण कोशल का एक हिस्सा था जिसमें जो क्षेत्र आते थे वे अब छत्तीसगढ़ और पश्चिमी ओडिशा में शामिल हैं। यहां मिले कलचुरि युग के शिलालेखों (1163 और 1167) के अनुसार मल्हार को पहले मल्लाला और मल्ललपट्टन नाम से जाना जाता था। यहां कभी बौद्ध, ब्राह्मण और जैन जैसे विभिन्न धर्म फले -फूले।
भौगोलिक स्थिति की वजह से मलहार एक महत्वपूर्ण शहर हो गया था। मल्हार शहर प्राचीन व्यापार मार्ग पर पड़ता था जो कौशांबी, भरहुत, बांधवगढ़ और सिरपुर जैसे महत्वपूर्ण शहरों को भारत के दक्षिण-पूर्वी तटों से जोड़ता था। इस वजह से ये शहर राजनीतिक और धार्मिक रुप से बहुत संपन्न बन गया था। कहा जाता है कि दक्षिण-पूर्वी समुद्री तट की तरफ़, पुरी जाने वाले श्रद्धालु यहां ठहरकर मंदिरों में पूजा करते थे। मल्हार तीन नदियों-पश्चिम में अरपा (महानदी की उप-नदी), पूर्व में लीलागर और दक्षिण में शिवनाथ (महानदी की उप-नदी) नदी से घिरा हुआ था।
यहां कुछ सालों पहले ही खुदाई की गई है, जिसकी दिलचस्प बात ये है कि खुदाई में यहां अलग अलग काल में लंबे समय तक इंसोनों के रहने के प्रमाण मिले हैं। मल्हार में सन 1974-1977 और बाद में सन 2009-2012 में खुदाई की गई थी। पहली खुदाई सागर विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग ने की थी। इसमें 1000 ई.पू से 1300 तक के अनुक्रम का पता चला था जिसे पांच अवधियों में बांटा गया था। बाद में क़िलेबंद क्षेत्र में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने खुदाई करवाई, जिसमें मौर्य-काल से पहले से लेकर बाद के गुप्त-काल तक के पांच सांस्कृतिक कालों का पता चला।
इस पर आधारित मल्हार में ये पांच अलग सांस्कृतिक काल माने जाते हैं –
आद्धैतिहासिक – 1000 ई.पू से 350 ई.पू. तक
मौर्य, शुंग, सातवाहन- 350 ई.पू से लेकर 300 ई. तक
सरभापुरिया और सोमवंशी- 300 ई. से लेकर 600 ई. तक
परवर्ती सोमवंशी- 650 ई. से लेकर 900 ई. तक
कलचुरि- 900 ई. से लेकर 1300 ई. तक
मल्हार में आबादी का पहला चरण 1000 ई.पू. से लेकर 350 ई.पू. के बीच की अवधि का है। इस काल के साक्ष्य के रुप में लाल बर्तन और काली पॉलिश वाले बर्तन आदि शामिल हैं।
मल्हार में महान मौर्य साम्राज्य के बारे में मौर्य-काल की ईंटों, मिट्टी के बर्तनों, टेराकोटा मूर्तियों और पंच मार्क्ड सिक्कों से जानकारी मिलती है जो क़िले क्षेत्र में और अन्य टीलों पर मिले थे। पहली और दूसरी शताब्दी के बीच सातवाहनों ने दक्षिण कौशल के इस क्षेत्र पर शासन किया था। मल्हार में खुदाई से सातवाहन राजवंश के शासनकाल के सिक्के और मिट्टी की एक महत्वपूर्ण मुहर मिली जिस पर सातवाहन राजा पुलुवामी (शासनकाल 110-138 ई.) का नाम अंकित है। इस अवधि के अन्य प्रमाण भी हैं जिनमें दूसरी शताब्दी का एक शिलालेख शामिल है जिसमें एक मंत्री द्वारा किए गए दान का उल्लेख है।
मल्हार में विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति एक दिलचस्प खोज रही है। यह मूर्ति यहाँ सन 1960 में मिली थी और इसमें प्राकृत भाषा और ब्रह्मी लिपि में एक अभिलेख है जो 200 ई.पू. का है। कहा जाता है कि इसे सांचे में बनी विष्णु की सबसे पहली मूर्ति माना जाता है।
वाकाटक राजवंश और गुप्त राजवंश ने भी इस क्षेत्र पर शासन किया था जो उनके अभिलेखों से स्पष्ट है। गुप्त शासनकाल के दौरान मल्हार एक समृद्ध शहर के रूप में विकसित हुआ था। यहां गुप्त युग की विभिन्न अलंकृत मूर्तियों और छवियों के साथ दो मंदिरों के अवशेष मिले हैं। इससे पता चलता है कि गुप्त साम्राज्य में यहां गुप्त-कला ख़ूब फूलीफली थी। यहां विष्णु, शिव, सूर्य और कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी मिलीं।
गुप्त राजवंश के पतन के बाद, स्थानीय राजवंशों जैसे शरभपुरीय, पांडुवंशी और सोमवंशियों ने मल्हार और दक्षिण कौशल के एक बड़े हिस्से पर शासन किया। वह समय यहां राजवंशों के शासन का तीसरा काल था। शरभपुरीय राजवंश ने पांचवीं और छठी सदी में उन क्षेत्रों पर शासन किया जो आज छत्तीसगढ़ और ओडिशा के हिस्से हैं। कहा जाता है कि वे शुरु में गुप्त-शासकों के जागीरदार हुआ करते थे लेकिन गुप्त साम्राज्य के पतन होते ही उन्होंने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उनके शासनकाल में पत्थरों और पकी हुई ईंटों के घर बने जिनके फ़र्श धंसे होते थे। इस काल के मिले मिट्टी के बर्तनों में पतले सामान भी शामिल हैं जिनके भीतर चमकदार काली और बाहर की तरफ़ लाल तथा काली पॉलिश की गई थी। खुदाई के दौरान कई मंदिरों के अवशेष मिले हैं जिससे लगता है कि इस काल में धार्मिक भवनों के निर्माण को बढ़ावा दिया जाता रहा होगा।
यहाँ बौद्ध संरचनाओं और नक़्क़ाशीदार बौद्ध मूर्तियों का निर्माण 7वीं और 9वीं शताब्दी के बीच की अवधि की एक दिलचस्प विशेषता थी। बुद्ध और बोधिसत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली बौद्ध मूर्तियों तथा जैन तीर्थंकरों, यक्ष और यक्षी की मूर्तियों की खोज से पता चलता है कि यहां दोनों धर्मों के लोग प्रेम से रहते थे और कला और वास्तुकला का भी बहुत विकास हुआ था।
9वीं शताब्दी में कलचुरि राजवंश ने यहां अपना शासन स्थापित कर लिया। उन्होंने सोमवंशी शासकों को बेदख़ल कर 18वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में मराठों के आगमन तक रतनपुर से लगभग सात सौ वर्षों तक शासन किया। कलचुरी युग के मंदिर और शिलालेखों के अवशेष सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं।सन 1167 के एक शिलालेख में सोमराज नामक ब्राह्मण द्वारा केदार (शिव) के नाम से मल्हार में शिव के एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। यह शिलालेख रतनपुर के कलचुरि राजवंश के जाज्वल्यदेव-II के शासनकाल का माना जाता है।
मल्हार में कुछ उल्लेखनीय मंदिर हैं- दिन्देश्वरी मंदिर, भीम कीचक मंदिर और पातालेश्वर मंदिर। भीम कीचक मंदिर का स्थानीय नाम देउर मंदिर है। शैलीगत विवरण के अनुसार ये मंदिर छठी-सातवीं शताब्दी का है। अब इस मंदिर का निचला हिस्सा ही बाक़ी रह गया है। मंदिर का प्रवेश द्वार शिव, पार्वती और गणों के विभिन्न प्रसंगों को दर्शाने वाले सुंदर नक़्क़ाशीदार दृश्यों से सजाया गया है और यहाँ गंगा और यमुना की आदमक़द प्रतिमाएँ भी हैं। गर्भगृह में एक शिवलिंग भी है।
अभिलेखों के अनुसार पातालेश्वर मंदिर का निर्माण एक ब्राह्मण ने 12वीं शताब्दी में कलचुरि शासक जाजल्लदेव-II के समय करवाया था। मंदिर केदार यानी शिव को समर्पित था। गर्भगृह में एक शिवलिंग है जो मंडप के नीचे है। यहां सीढ़ियों से पहुँचा जा सकता है। भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण के रायपुर सर्किल के अनुसार चूंकि शिवलिंग नीचे है इसलिये इसे पातालेश्वर मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर में शिव और शैव-संप्रदाय के अन्य देवी-देवताओं की छवियां भी उंकेरी हुई है।
विविध प्रकार के सिक्कों, ईंटों की संरचनाएं, धार्मिक संरचनाएं, मिट्टी के बर्तन, मुहरें, शिलालेखों आदि से पता चलता है कि मल्हार निश्चित रूप से इस क्षेत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण शहर रहा होगा। मल्हार में एक संग्रहालय भी है जिसमें कुछ पुरानी मूर्तियां रखी हुई हैं जो खुदाई में मिली थीं।
मल्हार अपने इतिहास और समृद्ध पुरातात्विक संग्रह की वजह से अपने आप में एक ख़ज़ाना है।
मुख्य चित्र: मल्हार का भीम कीचक मंदिर, सारा वेल्श -विकिमीडिआ कॉमन्स
वहाँ कैसे पहुंचें:
मल्हार छत्तीसगढ़ में, बिलासपुर से लगभग 27 किमी दूर बिलासपुर-रायपुर रोड पर है। बिलासपुर तक सड़क-वाहन, रेल या विमान से पहुंचा जा सकता है। मल्हार के लिए बिलासपुर से सार्वजनिक परिवहन सेवा भी उपलब्ध है।
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