असम में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच माजुली द्वीप है, जो भारत में सबसे बड़े नदी-द्वीप के रुप में जाना जाता है। लेकिन इसके बारे में जो अनोखी बात है, वह यह है कि यह कभी असमिया वैष्णववाद का केंद्र हुआ करता था, जिसका प्रभाव आज भी यहां देखा जा सकता है।
बाढ़ और प्रकृतिक आपदा के बावजूद , ऊपरी असम के जोरहट से नाव के ज़रिये माजुली पहुंचा जा सकता है। माजुली में चारों तरफ़ एक जीवंत संस्कृति और अदभुत प्राकृतिक सुंदरता दिखाई देती है। दिलचस्प बात यह है, कि आज भी इसने अपने सत्रों (धार्मिक प्रतिष्ठानों) के ज़रिये नव-वैष्णव संस्कृति को ज्यों का त्यों असली रूप में ज़िंदा रखा हुआ है। नव-वैष्णव संस्कृति छह सदी पुरानी है।
माजुली के पिछले इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। स्थानीय दस्तावेज़ों के अनुसार अहोम शासकों के आने से पहले ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियों की दिशा बदल गई थी। इसी वजह से 13वीं शताब्दी से पूर्व माजुली एक द्वीप के रूप में उभरा था। 16वीं शताब्दी के ग्रंथ योगिनी-तंत्र में अहोम शासन के आने के पहले माजुली के चुतिया या सुतिया (यह संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है नासमझ। असम की एक मशहूर जन-जाति का नाम भी यही है।) साम्राज्य (13वीं-16वीं शताब्दी) के राजा रत्नध्वजपाल (शासनकाल 1220-1250 ईस्वी) की राजधानी के रुप में ज़िक्र मिलता है।
15वीं शताब्दी तक असम तांत्रिकवाद, शक्तिवाद और शैववाद का प्रमुख केंद्र बन गया था। साथ ही जातिगत भेदभाव, चढ़ावे, पशु बलि और मानव दंड जैसी प्रथाओं का बोल बाला हो गया था। इनसे हो रहे जातीय तनाव और समाज में बिखराव के कारण, यहां कई धार्मिक आंदोलन हुए जिनमें नव-वैष्णव आंदोलन प्रमुख था, जिसका नेतृत्व संत श्रीमंत शंकरदेव (1449-1568 ईस्वी) कर रहे थे। उन्होंने कृष्ण–भक्ति पर ज़ोर दिया, और आस्था, स्मरण और प्रार्थना के ज़रिये मोक्ष के सिद्धांत को बढ़ावा दिया। उन्होंने एक-सरना-नाम-धर्म की शुरुआत की, जो जाप, भक्ति गायन और दैवीय अस्तित्वों के रूपों की कल्पना के माध्यम से सामूहिक श्रद्धा को दर्शाता है। यह चार मुख्य स्तंभों देव (भगवान), नम (प्रार्थना), भक्त और गुरु पर आधारित था। इसमें सभी भक्तों को भगवान की नज़र में समान माना जाता था।
अपने धार्मिक दर्शन और विचारों के समन्वय और उसे मज़बूत करने के लिए 15वीं शताब्दी के अंत में भारत में वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख केंद्रों का दौरा करने के बाद शंकरदेव ने असम और उत्तर बंगाल में वैष्णववाद का संदेश फैलाया। उन्होंने ‘भक्ति‘ पर बहुत ज़ोर देते हुए, धार्मिक प्रथाओं के तरीक़ों को सरल बनाया। उन्होंने समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए पवित्र शास्त्रों को उन्हीं की भाषा में मुहैया कराया।
अपने मिशन के तहत शंकरदेव ने सन 1522 ईस्वी में माजुली का दौरा किया था। स्थानीय कथाओं के अनुसार बताया जाता है, कि इस दौरान उन्होंने बिल्व (असम में बेल फल) का पेड़ लगाकर यहां पहला सत्र (धार्मिक प्रतिष्ठान) स्थापित किया था, और इसका नाम बेलागुड़ी (अब पश्चिमी माजुली में) रखा था। “सत्र” शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है “भक्तों का समागम”। सत्र का उद्देश्य सांस्कृतिक, गैर-धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक प्रथाओं के माध्यम से लोगों को ज्ञान देना है।
दिलचस्प बात यह है, कि अपने प्रवास के शुरुआती दिनों में, शंकरदेव का सामना उनके एक अनुयायी रामदास के साले माधवदेव (1489-1596 ईस्वी) से हुआ। विवाद का विषय था, कि देवी की पूजा के लिए बकरे की “बलि की आवश्यकता है या नहीं”। इसे लेकर शंकरदेव और माधवदेव के बीच बहस हुई, जिसमें जीत माधवदेव की हुई, जो बाद में उनका शिष्य बन गया। ये जुड़ाव, जिसे स्थानीय रूप से ‘मणिकंचन-संजोग‘ के रूप में जाना जाता है, माजुली में वैष्णववाद का आरंभ बिंदु बन गया। अगले 14 वर्षों में दोनों ने मिलकर वैष्णव दर्शन और जीवन शैली के प्रचार के लिए एक साथ काम किया। असम में लगभग 900 सत्रों में से 65 सत्र माजुली में ही बनाये गये।
ये सत्र माजुली निवासियों के सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन का एक अभिन्न अंग बन गये, जिनका केंद्रीय स्वरुप, नामघोर (नामघर) पूजा के केंद्रीय स्थान के साथ-साथ सांस्कृतिक और विकासात्मक सभाओं के रूप में काम करता है। दिलचस्प बात यह है, कि सत्रों ने असमिया कला और संस्कृति के क्षेत्र में अहम भूमिका निभाई और कई प्रकार की कलाओं के बीज बोये, जिनमें प्रमुख हैं बरगीत, ‘सत्रिया नृत्य‘, दशावतार नृत्य आदि। शंकरदेव और माधवदेव ने भाषीय और भूगौलिक बाधाओं को पार करने और अपने संदेश को फैलाने के लिये इन कलाओं की शुरुआत की थी। इन कला रूपों ने आस्था को बढ़ावा देने में मुख्य स्रोत के रूप में काम किया, और ये सुधार और भक्ति का एक अभिन्न अंग बन गये थे। शंकरदेव ने अपने विचारों को असमिया भाषा में प्रचारित किया लेकिन अपने कला रूपों के लिये उन्होंने ब्रजावली भाषा की रचना की, जो ब्रजभाषा और असमिया भाषा का मिश्रण था।
माजुली में अपने प्रवास के दौरान, शंकरदेव और माधवदेव ने बरगीत की रचना की जो धार्मिक भजन हैं। इसके बाद उन्होंने पारंपरिक वैष्णव ऑर्केस्ट्रा गायन-बायन जैसे प्रदर्शन कलाओं की रचना की। लेकिन जो प्रदर्शन कलाएं विश्व में प्रसिद्ध हुईं, वो थे भाओना और सत्रिया नृत्य। भाओना को महाकाव्यों और पुराणों के विषयों पर आधारित नाटक कहा जाता है, जबकि सत्रिया नृत्य पवित्र ग्रंथों की कथाओं पर आधारित पारंपरिक नृत्य रूपों का एक मिलाजुला रूप है। सन 2000 में इसे संगीत नाटक अकादमी ने शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता दी थी।
माजुली सत्र वैष्णव साहित्य का केंद्र भी बन गये हैं। शुरू में शंकरदेव ने ये साहित्य लिखा था, और बाद में उनके अनुयायियों ने इसका पालन किया। इस साहित्य के कुछ अंश यहां और असम के विभिन्न संस्थानों में भी आज पाए जाते हैं। वर्षों से स्थानीय त्योहार में रासलीला और पालनम का आयोजन होता रहा है, जिसे आज भी बड़ी तादाद में यहां आने वाले सैलानी देखना पसंद करते हैं।
जैसे-जैसे माजुली में वैष्णव सत्रों की संख्या बढ़ी, मृदुंग जैसे संगीत वाद्ययंत्र बनाने के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध बांस ज़्यादा उपयोगी हो गया। बांस के फ़्रेम पर सूती कपड़ा, डोरा, मिट्टी और गाय का गोबर लगाया जाता था। इसके अलावा बांस से मुखौटे भी बनाये जाते थे। आज भी ये माजुली के कई घरों में बनाये जाते हैं। हिंदू पौराणिक पात्रों से प्रेरित तीन प्रकार के मुखौटे होते हैं – चो मुखौटा, लोटोकाई मुखौटा और मुख मुखौटा। इतना लम्बा समय बीतने के बावजूद ये परंपरा आज भी जारी है।
सन 1568 में शंकरदेव की मृत्यु के बाद माजुली सत्रों का प्रभाव कोच और अहोम शासकों के शाही दरबार तक फैल गया, जिन्होंने इसे संरक्षण और अनुदान भी दिया। 17वीं शताब्दी तक वैष्णववाद मणिपुर में फैल गया , जो उनके मंदिरों और शास्त्रीय नृत्य मणिपुरी रास-लीला में दिखाई पड़ता है।
आज, माजुली वैष्णव संस्कृति का गढ़ है, जिसमें पीताम्बरदेव गोस्वामी (1885-1962) जैसे समाज सुधारकों ने काफ़ी सुधार भी किये थे। पीताम्बरदेव गोस्वामी माजुली में गरमुर सत्र के सत्राधिकारी भी थे। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के तहत असम प्रांत के जोरहाट ज़िले का हिस्सा बनने के बाद, माजुली में पूर्वी बंगाली और मारवाड़ी आकर बस गये, जो स्थानीय आबादी में घुलमिल गये। भारत की आज़ादी (1947) के 69 वर्षों के बाद माजुली को भारत का एकमात्र नदी-द्वीप ज़िला बना दिया गया।
अब यहां 22 सत्र हैं, जबकि बाक़ियों को प्राकृतिक आपदाओं की वजह से दूसरे स्थानों पर ले जाया गया है। माजुली आज भी वैष्णव कला और संस्कृति का केंद्र है, जिसने अपने समृद्ध सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन को संजोकर रखा हुआ है।
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