सन 1807 में ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले भू-वैज्ञानिक और वनस्पति शास्त्री फ़्रांसिस बुकानन हैमिल्टन को बंगाल सरकार ने इस इलाक़े की भौगोलिक स्थिति, इतिहास और लोगों के बारे में सर्वे करके एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा। सर्वे के दौरान उनकी नज़र महास्थानगढ़ पर पड़ी। सात दशकों बाद सन 1879 में भारतीय पुरातत्व के पितामह एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने इस इलाक़े का दौरा किया। उन्होंने शहर की दीवारों पर कलाकृतियां और मूर्तियां देखीं। उन्हें लगा कि इनका संबंध पुंद्रनगर से है जिसका उल्लेख साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है।
वैदिक ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण में, उपमहाद्वीप के पूर्वी हिस्सों में लोगों के रहने का उल्लेख मिलता है। शायद इसी से शहर का नाम भी पड़ा। 7वीं शताब्दी में भारत आये चीनी भिक्षुक श्वान ज़ांग, ने लिखा है कि पुंद्रनगर में 20 बौद्ध मठ. तीन हज़ार से ज़्यादा बैद्ध भिक्षु, सौ देवालय और विभिन्न संप्रदाय के लोग यहां रहते थे। इनमें जैन दिगांबर भिक्षु भी थे।महास्थानगढ़ ही प्राचीन पुंद्रनगर है । इसकी पुष्टि ऐसे भी होती है कि एक स्थानीय किसान के हाथ एक ऐसा ब्रह्मी शिला-लेख लगा जिसमेंचूना पत्थर पट्टिका पर भू-आवंटन का ज़िक्र था । ये पट्टिका तीसरी शताब्दी की हो सकती है जब मौर्य-शासन होता था। शिला-लेख के अनुसार सपन्न और समृद्ध पुंद्रनगर में एक एक महामात्र को नियुक्त किया गया था। उसने तिल और सरसों के बीज संवर्गिकाओं को देने के आदेश दिये। फ़सल शहर के क़िलेबंदी इलाक़े में एक धान्याघर में रखी जाती थी।
11वीं शताब्दी में सोमदेव की लिखी लोक-कथाओं के संकलन “ कथा सरिता सागर” में पुंद्रनगर से पाटलीपुत्र तक एक सड़क का उल्लेख मिलता है। तब पाटलीपुत्र मौर्यों की राजधानी हुआ करती थी। ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में पुंद्रेनगर व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रेशम की तरह पौंद्रिका पात्रोण और बेहतरीन कपड़ा दुकूला का उल्लेख है। ये दोनों पुंद्रा में बनाये जाते थे।
खुदाई के दौरान तीसरी शताब्दी के तांबे के सिक्के मिले थे जो शहर की दीवारों पर चिपके हुए थे।ये सिक्के शहर के काल को दर्शाते हैं। कनिंघम को एक हिंदू मंदिर और कई बौद्ध और हिंदू प्रतिमाओ के टूटे हुए अवशेष भी मिले थे। इनमें से कुछ गुप्तकाल, इसके बाद और पाल सेना के समय के हैं। ये अवशेष इस स्थान की विविधता को दर्शाते हैं।
खुदाई में क़िले की बड़ी दीवार में सुरंग और खाई भी मिली थी जिससे पता चला था कि उस समय शहर की सैन्य घेराबंदी हुआ करती होगी। दिलचस्प बात ये है कि इस तरह के सैन्य अभ्यास का उल्लेख अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में मिलता है। लेकिन महास्थानगढ़ में मिली सुरंग भारतीय पुरातत्व में इस तरह की तकनीक का पहला पुरातात्विक सबूत है। खुदाई के स्थल से तीर, कमान, भाले, टेराकोटा के गोले जैसे कई हथियार मिले जो 7वीं और 8वीं शताब्दी के बताये जाते हैं। शहर की घेराबंदी के बाद महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण हुआ था जो संभवत: पाल-युग में हुआ होगा, जब उत्तर बंगाल में काफ़ी समय तक शांति थी।दिलचस्प बात ये है कि कई भवनों को बनाने में पत्थर-खंडों का इस्तेमाल किया गया था। उस समय बांग्लादेश में पत्थर-खंड नहीं होते थे,इसका मतलब है वह ज़रूर बाहर से मंगवाये गये होगें।
खुदाई से यह भी पता चलता है कि चौथी शताब्दी के अंत और तीसरी शताब्दी की शुरुआत में महास्थानगढ़ की स्थापना के समय ये एक समृद्ध शहर रहा होगा। शहर का प्रमुख आकर्षण दुर्ग है जिसके कई द्वार हैं। उत्तर में काटा द्वार, पूर्व में दोराब शाह तोरन, दक्षिण में बुरीर फाटक और पश्चिम में तामरा दरवाज़ा।शहर के बाहर कई स्तूप हैं जिससे पता चलता है कि शहर बहुत फैला हुआ था।
लेकिन सन 1255 में आए भीषण भूकंप में शहर नष्ट हो गया। भूकंप में करतोया नदी बहुत गंदली होगई थी जिसकी वजह से लोग शहर छोड़कर चले गए थे। महास्थानगढ़ प्राचीन बंगाल में शहरीकरण का गवाह है लेकिन लोगों को इसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। सन 2010 की रिपोर्ट “सेविंग अवर हैरिटेज” में इसे दुनिया के उन 12 स्थानों में शुमार किया गया है जिसकी मरम्मत लगभग असंभव है। इसकी, इस बुरी दशा के प्रमुख कारण हैं कुप्रबंधन और लूटखसोट ही हैं।
कवर फोटो- अजीम खान रॉनी
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