कंधार का नाम सुनते ही दिमाग़ में अफ़ग़ानिस्तान घूमने लगता है । लेकिन ऐसा नहीं है….और भी कंधार हैं ज़माने में अफ़ग़ानिस्तान के सिवा। हमारे अपने भारत में भी एक कंधार है और वह है, महाराष्ट्र के नांदेड ज़िले में मन्याड नदी के तट पर । यहां एक हज़ार साल पुराना कंधार का क़िला भी है जो अब ख़स्ता हालत में है। पहाड़ियों से घिरा कंधार एक ऐतिहासिक शहर है जहां प्राचीन हिंदू और मुस्लिम स्मारकों के अवशेष मौजूद हैं। इसके अलावा यहां राष्ट्रकूट महाराष्ट्र राजवंश से लेकर हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म की वास्तुकला के नमूने भी हैं।
दसवीं शताब्दी में कंधार राष्ट्रकूट राजवंश की दूसरी राजधानी हुआ करता था लेकिन तब इसका नाम कंधारपुर था।
राष्ट्रकूट राजवंश ने छठी और 10वीं शताब्दी के बीच कंधार के अलावा लगभग पूरे कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंद्र प्रदेश तथा तेलंगाना पर शासन किया था।
दक्कन प्रांत में पहले सातवाहन राजवंश का शासन था, बाद में इस पर राष्ट्रकूट राजवंश शासन करने लगे। राष्ट्रकूट शासक एक समय बादामी के चालुक्य शासकों के सामंत हुआ करते थे।
राष्ट्रकूट औरंगाबाद से आए थे और उन्हें वास्तुकला में महारत हासिल थी जो एलोरा के मंदिरों में देखी जा सकती है। राष्ट्रकूट राजा कृष्णा (सन 756-773) द्वारा बनवाए गए भव्य कैलाश मंदिर सहित एलोरा के कुछ मंदिर राष्ट्रकूट शासकों को समर्पित हैं। गुफा नंबर 15 में एक शिलालेख पर आपको दंतिदुर्ग ( सन 735-756) का ज़िक्र मिलेगा जिन्होंने राष्ट्रकूट साम्राज की स्थापना की थी। शिला-लेख में कन्नोज, कलिंगा, मालवा आदि प्रांतों पर दंतिदुर्ग राजा की विजय का इतिहास भी दर्ज है।
अब फिर बात करते हैं कंधार की। राष्ट्रकूट राजवंश के बाद कंधार पर कई शासकों ने राज किया और इन्होंने अपने हिसाब से वहां निर्माण कार्य करवाए। इन शासकों में वारंगल के काकतीय, देवगिरी के यादव, दिल्ली सल्तनत, बहमनी राजवंश, अहमदनगर के निज़ाम शाह और हैदराबाद के निज़ाम शामिल हैं। 24 एकड़ भूमि पर फ़ैले क़िले पर सन 1840 के तक किसी न किसी का कब्ज़ा रहा।
बावड़ी कंधार क़िले का सबसे पुराना अवशेष है जो आज भी मौजूद है। ये बावड़ी यादवों के शासनकाल में बनवायी गयी थी। क़िले के मुख्य द्वार पर आपको फ़ारसी में लिखा शिला-लेख दिखाई देगा जो मोहम्मद बिन तुग़लक़ ( सन1325-1351) की देन है। माना जाता है कि दक्कन के ख़िलाफ़ युद्ध अभियान के दौरान तुग़लक़ यहां रुका था। बाद में अहमदनगर सल्तनत के प्रधानमंत्री मलिक अंबर ( सन 1548-1626) ने बीजापुर के आदिल शाह से गठबंधन कर कंधार का क़िला ले लिया ताकि मुग़लों के ख़िलाफ़ जंग में इसे एक ठिकाने के रुप में इस्तेमाल किया जा सके।
13वीं सदी के बाद बहमनी शासकों ने क़िले में कई प्रमुख निर्माण करवाए। ये क़िला बाक़ी क़िलों से इसलिए भिन्न है क्योंकि ये मैदान पर बना हुआ है जबकि इस प्रांत के ज़्यादातर क़िले पहाड़ियों पर बने हुए हैं। क़िले की सबसे ख़ास बात ये है कि इसके चारों ओर 12 मीटर ऊंची दीवार है जिस पर कुल 18 बुर्ज थे जहां से पहाड़ों के पार तक निगरानी रखी जाती थी। क़िले की सुरक्षा के लिए दीवार के नीचे ख़ंदक भी बनवाई थी।
कंधार में प्राचीन अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं उनमें जतातुन सागर जलाशय भी एक है जो महाराष्ट्र के प्राचीनतम स्मारकों में से एक माना जाता है। शीश महल और अंबर ख़ाना भी आज तक मौजूद हैं। माना जाता है शीश महल की जगह पहले राष्ट्रकूट महल हुआ करता था।
17वीं शताब्दी के मध्य में कंधार मुग़ल शासकों के अधीन हो गया था। मुग़ल शासकों ने यहां दिल्ली, आगरा और फ़तेहपुर सीकरी की तर्ज़ पर रानी महल और लाल महल बनवाए। उन्होंने यहां मशहूर मुग़ल गार्डन भी बनवाए।
शक्तिशाली शासन न होने की वजह से 19वीं शताब्दी के पहले दशक में कंधार के वैभवशाली युग का अंत हो गया था। ऐसा नहीं है कि कंधार सिर्फ़ क़िले के लिए जाना जाता है। 70 और 80 के दशक में स्थानीय गांववालों और पुरातत्ववेत्ताओं को प्राचीन मूर्तियों के अवशेष मिले थे। इनमें एक मनुष्य की 60 फुट ऊंची विशाल मूर्ति के अवशेष भी शामिल थे।
सन 1980 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा करवाई गई खुदाई में इस वास्तुपुरुष की मूर्ति की जगह का पता चल गया था।दिलचस्प बात ये है कि कंधार के साथ कई किवदंतियां जुड़ी हुई हैं। सन 1971 में जारी सरकारी विवरणिका के अनुसार कंधार का मूल नाम पांचालपुरी था और यहीं द्रोपदी ने पांडवों से विवाह किया था। शहर के पास की घाटी पांडवदरा नाम से भी जानी जाती है। तीन तरफ़ से पानी से घिरे कंधार के क़िले में ऊपर से जितना दिखाई पड़ता है उतना ही उसके गर्भ में भी छुपा हुआ है। इसीलिए इस जगह को एक बार ज़रुर देखा जाना चाहिए।
कंधार कैसे पहुंचे?
वायु मार्ग – यहां से सबसे क़रीब नांदेड़ एयरपोर्ट है जो 49 कि.मी. दूर है।
रेल मार्ग – नांदेड़-वाघला स्टेशन 45 कि.मी. दूर है।
सड़क मार्ग – नांदेड़-वाघला स्टेशन से स्थानीय बसें उपलब्ध हैं।