महाराणा कुंभ की धरोहर

कुंभलगढ़ भारत के शानदार क़िलों में से एक है जिसकी बाहरी दीवार 36 कि.मी. लंबी है और इसके दायरे में घने जंगल और 360 से ज़्यादा मंदिर तथा महल आते हैं। कुंभलगढ़ क़िला आज उस शक्तिशाली शासक की एकमात्र निशानी है जिसने इसे बनवाया था। इतिहास में महाराणा प्रताप जैसे मेवाड़ के बहादुर शासक अमर हो चुके हैं लेकिन राणा कुंभ को वो दर्जा नहीं मिला जिसके वे हक़दार थे। राणा कुंभ न सिर्फ़ भवनों बड़े निर्माता थे बल्कि वह विद्वान और बहादुर योद्धा भी थे।

महाराणा कुंभ (कुंभकरण) का जन्म मकर संक्रांति के दिन सन 1417 को हुआ था। उनके पिता महाराणा मोकल और माता रानी सोभाग्य देवी थीं। वह 16 वर्ष की आयु में ही,सन 1433 में मेवाड़ के महाराणा बन गये थे क्योंकि उनके पिता की हत्या हो गई थी। यह हत्या एक षड्यंत्र के तहत दरबारियों ने ही की थी। महाराणा बनने के बाद कुंभकरण ने 35 साल तक शासन किया।

महाराणा कुंभ के जीवन और उनकी उपलब्धियों के बारे में हमें प्रशस्ति अभिलेखों से जानकारी मिलती है। अमूमन दरबारी कवि कविता के रुप में शासक की उपलब्धियों और उनके वंश के बारे में वर्णन करते थे जिसे प्रशस्ति या तारीफ़ कहते हैं। महाराणा कुंभ के जीवन के बारे में सबसे महत्वपूर्ण प्रशस्तियां हैं- कुंभलगढ़ क़िले की कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460), चित्तौड़गढ़ क़िले की कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति (1460) और रणकपुर जैन मंदिर में अंकित रणपुर प्रशस्ति (1439)।

इन अभिलेखों से हमें पता चलता है कि सन 1433 में सत्ता संभालने के बाद महाराणा कुंभ ने सबसे पहले अपने पिता की मौत का बदला लिया था। महाराणा कुंभ ने अपने विश्वासपात्र सलाहकार मंडोर के राव रणमल राठौर, जो मेवाड़ दरबार के एक वरिष्ठ सदस्य थे, की मदद से षड्यंत्रकारियों को हराया। इसके बाद उन्होंने मेवाड़ साम्राज्य के विस्तार के लिये कई सैन्य मुहिम चलाईं। इसके पहले उनका साम्राज्य सिर्फ़ चित्तौड़गढ़ क़िले और आसपास के गांवों तक ही सीमित था। सन 1439 तक आते आते उनका साम्राज्य पूर्व में गागरोन से लेकर पश्चिम में नागौर और उत्तर में पोखरन से लेकर दक्षिण में गुजरात तक फैल गया। कीर्ति स्तंभ और कुंभलगढ़ अभिलेखों के अनुसार जब दिल्ली के सुल्तान ने आमेर और रणथंभोर रियासतों पर हमला कर उन पर क़ब्ज़ा कर लिया था तब महाराणा कुंभ ने आमेर और रणथंबोर के राजाओं की मदद की थी और उनके राज्य उन्हें दोबारा वापस दिलवाए थे।।

बहुत जल्द मेवाड़ एक बड़ा साम्राज्य बन गया जिसने पूर्व में मालवा और दक्षिण में गुजरात की सल्तनतों के ख़िलाफ़ कई सफल लड़ाईयां लड़ीं। सन 1437 और सन 1454 में मालवा के सुल्तान मेहमूद ख़िलजी ने मेवाड़ और चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़े के लिये कई प्रयास किये लेकिन हर बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा। इसी तरह सन 1456 में भी गुजरात के सुल्तान अहमद शाह-द्वतीय ने भी प्रयास किया लेकिन उसे भी मुंह की खानी पड़ी। आख़िरकार उसी साल मेवाड़ और गुजरात की सल्तनतों के बीच चंपानेर संधि हुई लेकिन इससे भी हुआ कुछ नहीं और महाराणा कुंभ की फ़ौज ने उन्हें बुरी तरह हरा दिया।

महाराणा कुंभ अपने बनवाए हुए सुंदर भवनों और क़िलों के लिये जाने जाते हैं। आज मेवाड़ में क़रीब 82 क़िले हैं जिसमें से 32 क़िले महाराणा कुंभ ने बनवाये थे। इन्हें बनाने वाले शिल्पाचार्य (वास्तुकार) मंडन और जैता थे।

मेवाड़ की सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिये कुंभ ने सन 1452 में आबू में अचलगढ़ और वसंतगढ़ क़िले बनवाए। मेवाड़ साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा के लिये सन 1458 में विशाल कुंभलगढ़ क़िला बनवाया गया जिसकी दीवार 36 कि.मी. लंबी है। आज भी कुंभलगढ़ क़िले की दीवार भारत में वास्तुशिल्पीय अचरजों में से एक मानी जाती है।

चित्तौड़गढ़ में आज हमें जो कुछ नज़र आता है उसमें से ज़्यादातर का निर्माण महाराणा कुंभ के शासनकाल में हुआ था। उन्होंने चित्तौड़गढ़ की मरम्मत करवाई थी और क़िले के सात प्रवेश द्वार बनवाये थे जो आज बहुत प्रसिद्ध हैं। कुंभ ने सन 1448 में मालवा पर जीत की याद में नौ मंज़िला कीर्ति स्तंभ जिसे विजय स्तंभ के नाम से जाना जाता है, बनवाया था। ये उस समय अद्वतीय माना जाता था।

दिलचस्प बात ये है कि संस्कृत ग्रंथ एकलिंग महात्म्य के अनुसार महाराणा कुंभ को वेद, स्मृतियों, उपनिषदों और व्याकरण का अच्छा ज्ञान था। उनकी साहित्य, संगीत और नाटकों में भी बहुत दिलचस्पी थी और उन्होंने “संगीतराज”, “सूद प्रबंध”, “संगीत रत्नाकर”, “रसिक प्रिया” (मेवाड़ बोली में गीत गोविंद की व्याख्या जो मूल रुप से संस्कृत में लिखी गई थी), “कामराज रतिसार शतक”, आदि की रचना की। इसके अलावा उन्होंने अपने दरबार में संस्कृत भाषा के कवियों, जैन कवियों और विद्वानों को भी प्रश्रय दिया।

साम्राज्य में शांति होने के बाद महाराणा कुंभ ने कुंभलगढ़ जाकर सन 1457 से लेकर 1468 तक शांतिपूर्ण जीवन जिया। यहीं जब वह सन 1468 में महादेव मंदिर में पूजा कर रहे थे, उनकी हत्या कर दी गई और उनका हत्यारा कोई और नहीं बल्कि उनका पुत्र उदय सिंह-प्रथम था जो ख़ुद तख़्त पर बैठना चाहता था।

आज अगर आप कुंभलगढ़ क़िले जाएं तो वहां आपको राणा कुंभ की बारे कारनामों की कहानियां सुनने को मिलेंगी। इसके अलावा वहां आपको पता चलेगा कि वह क्या क्या शानदार और अद्भुत चीज़े छोड़ गए हैं।

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