बोद्ध धर्म के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया जब गया नामक गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह सिद्धार्थ से बुद्ध बन गये। आज भारत के राज्य बिहार में गया ऐसा दूसरा शहर है जहां सबसे अधिक घनी आबादी है। गया बिहार की राजधानी पटना से सौ कि.मी. दूर है। पटना कभी पाटलीपुत्र के नाम से प्राचीन भारत की राजधानी हुआ करता था।
पीपल के पेड़ का तकनीकि नाम फ़ाइकस रेलिगिओसा है और ये फिग परिवार का माना जाता है जिसमें बरगद जैसे अन्य पेड़ आते हैं। पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त होने की वजह से बौद्ध धर्म के अनुयायी इसे बोधी वृक्ष यानी ज्ञान का पेड़ कहने लगे । इस घटना की वजह से कभी शांत रहने वाला गया गांव बौद्धों के लिये तीर्थ स्थल बन गया और इसका नाम भी गया गांव से बदलकर बोध गया हो गया।
बौद्ध परंपराओं के अनुसार बोध गया बौद्धों के आरंभिक तीर्थ केंद्रों में से एक है जिसका चयन ख़ुद बुद्ध ने उस समय किया था जब वह अंतिम सासें गिन रहे थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में बुद्ध ने अपने एकमात्र साथी आनंद से कहा था उनकी मृत्यु के बाद वे लोग चार स्थानों पर तीर्थ स्थल बनवाएं। ये स्थान हैं- बुद्ध का नेपाल में जन्मस्थान लुंबिनी, बोध गया जहां उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ, वाराणसी का डियर पार्क जहां उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश दिया था और कुशीनगर जहां उन्होंने अपने प्राण त्यागे। बोध गया शुरु से ही भारत और भारत के बाहर के भी बौद्धों के लिये श्रद्धा और उपासना का केंद्र रहा है।
दिलचस्प बात है कि गया न सिर्फ़ बौद्धों के लिये ही नहीं बल्कि जैनियों और हिंदुओं के लिये भी पवित्र स्थल है। प्राचीन हिंदू ग्रंथ रामायण और महाभारत में भी इसका उल्लेख मिलता है। ये वही स्थान है जहां राम, लक्ष्मण और सीता ने दशरथ का पिंड दान किया था। इसीलिये ये स्थान हिंदुओं के लिये बहुत पवित्र स्थल है जहां वे पिंड दान के लिये आते हैं। जैनियों के लिये भी ये स्थान पवित्र है क्योंकि यहां जैन धर्म के संस्थापक महावीर ने शुरुआती वर्षों में भिक्षुक के रुप में भ्रमण किया था।
यहां पहला मंदिर सम्राट अशोक ने 250 ई.पू. में बनवाया था । अशोक ने एक मठ बनवाकर बोधी वृक्ष वज्रासन (हीरों का सिंहासन) के साथ उपहार में दिया था। इसे भरहुत स्तूप में कटघरों पर बने गोलाकार पदक पर देखा जा सकता है। बोधी वृक्ष के स्थान के पास जब खुदाई की गई तो वहां वो सिंहासन मिला जो अशोक ने उपहार में दिया था। लेकिन दुर्भाग्य से उस मठ का कोई सबूत नहीं मिलता है जो अशोक ने बनवाया था। द्वतीय ई.पू. और दूसरी सदी की बीच की अवधि में हमें सबूत के रुप में विशाल कटघरों सहित अन्य कई अवशेष मिलते हैं। ये कटघरे भरहुत और सांची के कटघरों की तरह ही हैं। बोध वृक्ष के पास भी कटघरों की एक प्रतिलिपी है।
बोध वृक्ष के आसपास के कटघरों को संभवत: गुप्तकाल (5वीं-छठी सदी) में मंदिर के पास तक फैला दिया गया था जो गया में ईंटों से बनवाया गया था। दिलचस्प बात ये है कि ये मंदिर कुम्रहार (पटना) में खुदाई में मिले एक फलक पर चित्रित एक मंदिर की नक़ल था जो शायद दूसरी सदी का था।
गया का मौजूदा मंदिर गुप्तकाल के मंदिरों की पुनरावृत्ति है जो संभवत: कुषाण शैली की वास्तुकला पर आधारित है। इस मंदिर के स्तंभ गांधार शैली के हैं और इसका शंख रुपी शिखर भी गांधार स्तूपों पर पाए जाने वाले शिखरों के समान है। बहुत हैरानी की बात ये है कि इस मंदिर का कलश बाद में बने हिंदू मंदिरों के शिखर की तरह ही है। हिंदू मंदिरों की तरह इसके भी ऊपर अमलका और शिखर है। अमलका मंदिर के ऊपर एक विशाल चक्र की तरह होता है अमूमन जिस पर नारियल के साथ कलश बना होता है। इसमें कोई शक नहीं कि गया की स्तूपिका कुषाण युग के गांधार स्तूप के कंगूरे से प्रभावित है। 8वीं और 9वीं सदी में बौद्ध धर्म का प्रभाव ख़त्म होने लगा था लेकिन पाल साम्राज्य (9वीं से 12वीं सदी) और बाद में सेन राजवंश (1170-1230) के शासनकाल के दौरान इसका पुनर्जागरण हुआ।
बख़्तियार ख़िलजी के नेतृत्व में दिल्ली सल्तनत की सेना के हाथों सेन की हार के बाद महाबोधी मंदिर वीरान हो गया। हैरानी की बात ये है कि हार के बाद मंदिर पूरी तरह नष्ट होने से बच गया लेकिन भारत में बौद्ध धर्म के समापन के साथ ही ये मंदिर भुला दिया गया। लेकिन कथा यहीं समाप्त नहीं होती और बर्मा के शाही परिवार ने 19वीं सदी में इसकी फिर मरम्मत करवाई। इस शाही परिवार ने 11वीं सदी में भी एक बार इसकी मरम्मत करवाई थी। बर्मा के शाही परिवार ने भारत की अंग्रेज़ सरकार के सहयोग से सन 1880 में सर एलेक्ज़ेडर कनिंघम के दिशा निर्देश में मंदिर और इसकी आसपास की दीवारों की मरम्मत करवाई थी।
सन 1885 में इंग्लिश कवि और पत्रकार तथा लाइट ऑफ़ एशिया किताब के लेखक सर एडविन ऑर्नॉल्ड ने महाबोधी मंदिर में गहरी दिलचस्पी ली और मंदिर के बारे में कई लेख लिखे। सर एडविन सरकारी संस्कृत कॉलेज के प्रिंसपल (पुणे 1856-61) थे।
उनकी किताब लाइट ऑफ़ एशिया बुद्ध के जीवन पर आधारित थी हालंकि ये सौ फ़ीसद भरोसेमंद नहीं थी और इसकी ख़ूब आलोचना भी हुई लेकिन पश्चिमी देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में इस किताब ने बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने ये किताब श्रीलंका के बेहद सम्मानित भिक्षु और विद्वान श्री सुमंगल की देखरेख में लिखी थी। इस किताब की वजह से विश्व भर के बौद्धों का ध्यान महाबोधी की तरफ़ गया। एडविन ने श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु अंगारिका धरमपाल के साथ मिलकर महाबोधी सोसाइटी ऑफ़ इंडिया बनाई जिसने मंदिर की मरम्मत और इसे बौद्धों को सौंपने की मुहिम चलाई। भारत में बौद्ध धर्म के पुनर्जागरण में अंगारिका धरमपाल की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
दिलचस्प बात है कि आज महाबोधी मंदिर के बाहर जो श्रीबोधी वृक्ष है वो असली वृक्ष नहीं है बल्कि अंतिम वृक्ष से मिले बीजों से लगाया गया वृक्ष है। वृक्ष कई बार नष्ट हुआ और हर बार इसके फल या क़लम से दूसरा वृक्ष लगाया गया। अनुराधापुर में मौलिक बोधी वृक्ष का अंकुर (छोटा पौधा) लगाया था। मौलिक बोधी वृक्ष अशोक की बेटी संघमित्रा अनुराधापुर लेकर आईं थीं। श्रवस्ती में भी बुद्ध के सबसे क़रीबी अनुयायी आनंद ने एक वृक्ष लगाया था। ये वृक्ष जतावना गार्डन के मुख्य प्रवेश द्वार पर लगाया गया था। ये गार्डन अनंत पिंडिका ने बुद्ध को उपहार में दिया था। आनंद द्वारा लगाये गये दूसरे वृक्ष को आनंदबोधी कहा जाता है।
पिछले कई बरसों में बोधी वृक्ष के छोटे पौधे उपहार के रुप में लोगों को दिये गये हैं। जब भी बोधी वृक्ष इंसान या प्राकृतिक आपदा की वजह से नष्ट हुआ, उसके बीज या क़लम से उसे फिर लगाया गया। सन 1811 में ये वृक्ष हराभरा था लेकिन सन 1862 में मंदिर की मरम्मत के दौरान सर एलेक्ज़ेडर कनिंघम ने देखा कि ये वक्ष सूख रहा था। बहरहाल, सन 1876 की भीषण आंधी में ये वृक्ष पूरी तरह नष्ट हो गया और कनिंघम ने सन 1881 में यहां नया वृक्ष लगाया जिसे हम आज देखते हैं।
सन 1891 में अंगारिका धरमपाल मरम्मत के बाद महाबोधी मंदिर देखने के लिये आए। उन्हें ये देखकर हैरानी हुई कि मंदिर पर शैव पुजारियों का कब्ज़ा हो चुका था और मंदिर में बुद्ध की मूर्ति की जगह शिव की मूर्ति रखी हुई थी। मंदिर पर न सिर्फ़ शैव संप्रदाय के लोगों का कब्ज़ा हो गया था बल्कि बौद्धों पर मंदिर में प्रवेश और पूजा करने पर भी पाबंदी लगा दी गई थी।
महाबोधी सोसाइटी की स्थापना कोलंबो (श्रीलंका) में हुई थी लेकिन जल्द ही इसे कलकत्ता (कोलकता) शिफ़्ट कर दिया गया। सोसाइटी ने मंदिर को शैव संप्रदाय से मुक्त कराने के लिये मुहिम छेड़ दी और अदालत तक का दरवाज़ा खटखटाया। पचास साल तक क़ानूनी कार्यवाही के बाद आख़िरकार बौद्धों को मंदिर का कब्ज़ा मिल गया। सोसाइटी को ये सफलता धरमपाल की मृत्यु के 16 साल बाद मिली थी।
ब्राह्मण पुजारियों ने बौद्ध धर्म के प्रभाव के ख़त्म होने के बाद इस मंदिर पर कब्ज़ा कर लिया था। सन 1949 में मंदिर का नियंत्रण बिहार राज्य को मिल गया जिसने नौ सदस्यों की एक प्रबंधन समिति बनाई और इस तरह महाबोधी सोसाइटी का मंदिर पर आंक्षिक नियंत्रण हो गया। आंक्षिक नियंत्रण के बाद यहां फिर बुद्ध की मूर्ति स्थापित की गई और बंगाल के बौद्ध भिक्षु अंगारिका मुनिंद्रा को इसका प्रमुख पुजारी बनाया गया। आज भी क़ानून के मुताबिक़ समिति के ज़्यादातर सदस्यों का हुंदू होना अनिवार्य है लेकिन मंदिर फिर भी बौद्ध मंदिर है। समिति में चार हिंदू, चार बौद्ध और पदेन अधिकारी के रुप में नौवां सदस्यशंकराचार्य मठ का प्रमुख होता है।
महाबोधी मंदिर भारत में ईंटों से निर्मित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। ये मंदिर छठी ई.पू. से लेकर छठी सदी की अवधि के दौरान ईंट से बनाये जाने वाले मंदिरों की कला का एक उत्कृष्ट नमूना है। ये गुप्तकाल (300-600 सदी) में बने और अभी तक सुरक्षित मंदिरों में सबसे सुंदर है। ये मंदिर 55 मीटर ऊंचा है जिसे 19वीं सदी में ख़ूब अलंकृत किया गया था। मध्य लाट/शिखरके आसपास एक चौकोर प्लिंथ है जो चार स्तंभों पर टिका हुआ है। ये दो मीटर ऊंचे जंगले से घिरा हुआ है। मौजूदा जंगला मूल जंगले की नक़ल (प्रतिलिपि) है।
जंगले दो हिस्से अलग अलग शैलियों में बने हैं जिनमें अलग अलग सामग्रियों का प्रयोग किया गया है। दूसरी ई.पू. सदी का जंगला चमकदार बालू पत्थरों से बना है जबकि बाद वाला जंगलादानेदार ग्रेनाइट पत्थर का बना है। जंगलों पर बुद्ध की कई मूर्तियां बनी हुई हैं। इसके अलावा गरुढ़, स्तूप, कलश और कमल के फूल आदि भी बने हुए हैं। जंगलों पर अंकित चित्रों मे जातक कथाओं का वर्णन है। इस जगह बौध धर्म के महायान और वज्रयान मत से जुड़ी अवलोकितेश्वर, वज्रपानी, यमंतक, तारा, जंबभाला, की आकृतियों सहित सूर्य, विष्णु आदि की हिंदू आकृतियाँ भी मिली हैं।
महाबोधी मंदिर अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संरक्षण में है सन 2002 में यूनेस्को ने इसे अपनी विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया था। सन 2013 में मंदिर के ऊपरी हिस्से को 289 किलो सोने से सजाया गया था। ये सोना थाईलैंड के राजा और वहां के लोगों से उपहार के रुप में मिला था। सोने का आवरण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की अनुमति से बनवाया गया है। इस मंदिर की नक़ल सारे विश्व में देखी जा सकती हैं। इसी की तर्ज़ पर चीन, म्यांमार और थाईलैंड में भी मंदिर बनाये गये हैं।
बोधगया मंदिर आज विश्व में बौद्धों का सबसे पवित्र स्थल है। यहां सारे विश्व से श्रद्धालु आते हैं। सैलानियों की ये पसंदीदा जगह है जहां भारत, दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, जापान और अन्य देशों से हर साल हज़ारों लोग आते हैं।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com