वाराणसी से लगभग 70 किलोमीटर पूर्वोत्तर दिशा में स्थित गाज़ीपुर शहर में उस ब्रितानी गवर्नर जनरल की याद में बनवाया गया एक मक़बरा है जो अपने जीवन काल में कभी अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वॉशिंगटन से एक युद्ध में हार गया था। हालाँकि अपने जीवन में उन्होंने इस हार के अलावा कई युद्ध जीते भी थे। उन्होंने कई कालजयी फ़ैसले लिये जिसके लिये उन्हें आज भी याद किया जाता है। लार्ड कार्नवालिस के इस मक़बरे को स्थानीय लोग लार्ड साहब या लाट साहब या लाड साहब का मक़बरा भी कहते हैं।
अमेरिकी क्रान्तिकारी युद्ध और कार्नवालिस बनाम जार्ज वॉशिंगटन –
19 अक्टूबर सन 1781, ब्रितानी इतिहास के पन्नों में एक काली तारीख़ के रूप में दर्ज है। इसी दिन युद्ध को जीतने की आशा को त्याग कर ब्रितानी गवर्नर जनरल चार्ल्स कॉर्नवालिस ने अपने 8 हज़ार सैनिकों के साथ, तत्कालीन अमेरिकी जनरल जॉर्ज वॉशिंगटन के समक्ष, यॉर्कटाउन नामक शहर में आत्मसमर्पण कर दिया था। कॉर्नवालिस अपने सैनिकों के साथ सन 1781 की ग्रीष्म ऋतु के पूर्वार्ध से ही अमेरिका के वर्जीनिया पोर्ट टाउन में डटे हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही न्यूयॉर्क से ब्रितानी समुद्री बेड़ा उनकी मदद के लिये आ जायेगा। लेकिन अक्टूबर महीने की शुरुआत में हीलगभग 17 हज़ार अमेरीकी और फ्रांसीसी सैनिकों की सेना का नेतृत्व कर रहे जनरल जार्ज वाशिंगटन एवं जनरल जीन बैपटिस्ट ने ब्रितानी कब्ज़े वाले शहर यॉर्कटाउन को चारों ओर से घेर लिया। वहीँ दूसरी तरफ़ समुद्री रास्ते पर फ़्राँसीसी एडमिरल फ्रैंकोइस द् ग्रास ने सधी हुयी रणनीती के तहत अपने समुद्री जहाज़ों के बेड़े को चेसपीक बे एवं यॉर्क नदी के इर्द गिर्द लगा दिया था। इस तरह उसने उस शहर के सभी जलीय रास्तों पर कब्ज़ा कर लिया था।
इस फ़्रांसीसी-अमेरिकी प्रतिवाद और सधी हुयी रणनीति ने ब्रितानी सेना के रसद और आयुध भण्डार को लगभग ख़त्म कर दिया, महीनों के इंतज़ार के बाद भी जब ब्रितानी समुद्री जहाज़ मदद के लिये नहीं पहुंचे तो कोई और विकल्प न मिलता देख, निराश होकर जार्ज वॉशिंगटन ने आत्मसमर्पण करने का फ़ैसला लिया और 17 अक्टूबर 1781 को उन्होंने इस आशय से जनरल वॉशिंगटन को एक पत्र लिखा और उनसे आत्मसमर्पण की शर्तों के बारे में पूछा। जार्ज वॉशिंगटन ने उसी दिन उस पत्र का जवाब दिया और अगले ही दिन 18 अक्टूबर को अपनी शर्तें लिख कर भेज दीं। 19 अक्टूबर को जॉर्ज वाशिंगटन ने कॉन्टिनेंटल काँग्रेस को इस बारे में सन्देश भिजवाया। उसी दिन शहर के मूर हाउस में दोनों ओर के अफ़सरों ने काग़ज़ात पर दस्तख़त किये और उसी शाम ब्रितानी सेना ने यॉर्कटाउन शहर छोड़ दिया।
यॉर्कटाउन में रिहाईश के दौरान जनरल कॉर्नवालिस ने वहां थॉमस नेल्सन हाउस में अपनामुख्य कार्यालय बनवाया था । गृहयुद्ध के दौरान एक अस्पताल के रूप में भी उस भवन का उपयोग हुआ था । कार्नवालिस के आत्मसमर्पण के बाद क्रान्तिकारी युद्ध का लगभग अंत सा हो चला था। नयी सेना के लिये धन की व्यवस्था न होने के कारण ब्रितानी सरकार ने अमेरिका से शान्ति बहाली की अपील की। लगभग २ साल बाद, 3 सितम्बर सन 1783 को, पेरिस-सन्धि पर दोनों तरफ़ से हस्ताक्षर हो जाने के बाद यह युद्ध हमेशा हमेशा के लिये खत्म हो गया।
लार्ड कॉर्नवालिस और भारत –
लार्ड चार्ल्स कार्नवालिस की पहचान भारतीय इतिहास में एक सफल गवर्नर जनरल के साथ एक समाज सुधारक एवं प्रशासक के रूप में की जाती रही है। सन 1786 में भारत के दूसरे गवर्नर जनरल और कमांडर इन चीफ़ के रूप में नियुक्त होने के बाद कार्नवालिस ने अपने कौशल और चतुराई से तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत के प्रति लोगों में पनपी घृणा की भावना को काफ़ी हद तक दूर किया था । साथ ही राजस्व एवं न्यायिक सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधार भी किये थे। उनका पहला कार्यकाल सितम्बर सन 1786 से अक्टूबर 1793 तक रहा था। इसी शासनकाल के वर्ष 1790 -1792 के दौरान हुए तीसरे मैसूर युद्ध में अपने सफल अभियान के लिये भी उन्होंने नाम कमाया था।
तीसरा मैसूर युद्ध –
लगभग २ साल तक चले इस युद्ध में ब्रितानी सेना का नेतृत्व लार्ड कॉर्नवालिस ने किया था। दूसरी तरफ़ से मैसूर के शासक टीपू सुलतान थे। कार्नवलिस इससे पहले दोनों मैसूर-युद्धों के बारे में गहरी जानकारी लेकर मैदान में उतरे थे । उनके साथ निज़ाम और मराठों की सेनायें भी थीं। उन्होंने टीपू सुलतान को बार बार हराया और अंत में तीसरे मैसूर-अंग्रेज़ युद्ध में टीपू को श्री रंगपट्नम में सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े थे। इस सन्धि में अंग्रेज़ों ने आधे राज्य पर क़ब्ज़ा कर लिया था । अंग्रेज़ों ने बारामहल , डिंडिगुल और मालाबार के इलाक़े भी छीन लिये थे। इसके अलावा टीपू से तीन करोड़ रुपये हर्जाना भी लिया गया था और उनके पुत्रों को बंधक बनाया गया था। मराठों को तुंगभद्रा का क्षेत्र मिला और निज़ाम को पन्नार तथा कृष्णा के बीच का क्षेत्र दिया गया। कार्नवालिस ने बड़ी चतुराई के साथ टीपू को हराया लेकिन निज़ाम और मराठों को भी पनपने नहीं दिया। इस जीत के बाद लार्ड कार्नवालिस का कहना था कि “हमनें अपने दुश्मन को हराया लेकिन अपने दोस्तों को भी मज़बूत नहीं होने दिया”. इस जीत के बाद न सिर्फ़ कार्नवालिस का आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि उनकी छवि भी निखर कर सामने आयी। इसके बाद उन्होंने अपने सामर्थ्य का इस्तेमाल करते हुए सार्वजनिक सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार का ख़ात्मा करने के उद्देश्य से तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में न्यायिक व प्रशासनिक कामों को दो भागों में बांट दिया और यही स्वरुप आगे चलकर इंपीरियल सिविल सर्विस के रूप में विकसित हुआ। भूमि-राजस्व सुधार की दृष्टि से सन 1789 में 10 वर्षीय भूमि व्यवस्था लागू करने के बाद उन्होंने 27 मार्च सन 1793 को बंगाल में स्थायी भू-व्यवस्था को लागू की। साथ ही न्यायिक क्षेत्र में दीवानी और फ़ौजदारी न्यायालयों को श्रेणीबद्घ किया । उसी के बाद देश भर में छोटी अदालतों समेत ज़िला अदालत, प्रांतीय अदालत, सदर दीवानी और फ़ौजदारी अदालतों का गठन हुआ।
लार्ड कार्नवालिस ऐसे पहले ब्रितानी गवर्नर कहलाये जिन्होंने भूमि सुधार और प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापक सुधार किये। उन्हें दो बार भारत के गवर्नर जनरल के रूप में नियुक्ति मिली थी । उन्होंने कलेक्टरों के अधिकार और उनके वेतन का भी निर्धारण करने के अलावा पुलिस व्यवस्था को एक नया आयाम दिया । इसी लिये उन्हें पुलिस व्यवस्था का जनक भी कहा जाता है। उन्होंने सन 1793 में एक क़ानून बनाया, जिसे कार्नवालिस कोड के नाम से जाना जाता है, इसी कोड में कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का विभाजन किया गया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने फ़ौजदारी क़ानून में परिवर्तन करते हुए सन 1797 में एक क़ानून पास किया, जिसमें यह लिखा गया कि हत्या करने वाले को सकी भावना के आधार पर दण्डित किया जाना चाहिये। साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को सुधार के लिये उन्होंने अंग्रेज़ी मजिस्ट्रेट को पुलिस की ज़िम्मेदारी भी सौंपी । उन्होंने ज़मींदारी को लेकर एक क़ानून बनाया जिसके अंतर्गत ज़मींदारों को भू-राजस्व का 8/9 भाग ईस्ट इंडिया कंपनी को देना होता था. इस भू-कर व्यवस्था को लेकर बाद में कुछ संशोधन भी किये गये।
उनके पहले कार्यकाल के बाद उनके स्थान पर आये लार्ड वेलेज़ली(1793-1805) के राज के दौरान भारत में कई युद्ध हुए और देश में एक वित्तीय तनाव और प्रशासनिक अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी। इन परिस्थितियों के उत्पन्न होने के बाद लार्ड कार्नवालिस को पुनः प्रशासनिक व्यवस्था को मज़बूत करने और भारत में शांति स्थापित करने के लिए जुलाई सन1805 में दूसरी बार भारत भेजा गया। लेकिन दुर्भाग्यवश उनका यह दूसरा कार्यकाल कुछ ही दिनों तक चल पाया और केवल दस हफ़्तों के बाद ही 67 साल की उम्र में, 5 अक्टूबर 1805 को उनका निधन हो गया । उनका निधन पूर्वांचल की यात्रा के दौरान गाज़ीपुर में हुआ था । कलकत्ता में रहनेवाले अंग्रेज़ों ने, उनकी याद और उनके सम्मान में, गाज़ीपुर में ही एक भव्य स्मारक का निर्माण करवाया जिसे आज लार्ड कॉर्नवालिस का मक़बरा कहा जाता है।
लार्ड कॉर्नवालिस का मक़बरा –
वाराणसी से लगभग 70 किलोमीटर दूर गाज़ीपुर ज़िले में तक़रीबन ६ एकड़ ज़मीन पर बना यह स्मारक ब्रिटिश वास्तुकला की एक अनूठी मिसाल है। इस मक़बरे के भीतरी भाग में उनकी क़ब्र बनी है । उसके अलावा 3.66 मीटर ऊँचा एक मंच है, जो लगभग 18.30 मीटर की चौड़ाई वाले 12 पत्थरों के खम्भों पर टिका, जिस पर एक बड़े आकार का गुम्बद बना हुआ है। 19 साल में बनकर तैयार हुए धूसर रंग के संगमरमर से बने इस मक़बरे के केन्द्र में सफ़ेद संगमरमर की, लार्ड कार्नवलिस की अवाक्ष मुर्ति, एक वर्गाकार चौकी पर स्थापित की गई है। इसके चारों तरफ़ एक ब्राम्हण, एक मुसलमान और एक अंग्रेज़ और एक सैनिक को मर्माहत मुद्रा में दर्शाया गया है। साथ ही उस पर कमल के फूल, कलियां एवं पत्तियों की उत्कृष्ट नक़्क़ाशी उकेरी गयी है। चौकी के उत्तरी और दक्षिणी फलक पर उर्दू(फ़ारसी) तथा अंग्रेज़ी में लार्ड कार्नवालिस की यश गाथा एक स्मृति लेख के रूप में अंकित की गयी है। इस पर अधोमुखी तोपों से युक्त तथा भाला, तलवार आदि के अंकन से युक्त मनमोहक घेराबन्दी भी की गयी है।
लॉर्ड कार्नवालिस के मक़बरे की देख-भाल की ज़िम्मेदारी भारतीय पुरातत्व विभाग के पास है।स्थानीय लोग यहाँ कम ही जाते हैं। मगर बाहरी पर्यटकों का आना जाना लगा रहता है। आम दिनों में इसके बग़ीचे में प्रेमी युगल और स्थानीय संस्थानों के छात्र-छात्राओं का जमावड़ा अधिक दिखाई देता है।
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