क्या आप जानते हैं कि ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर का नाम शिव को समर्पित त्रिभुवनेश्वर (तीन विश्वों के भगवान) के नाम पर पड़ा है? और यह भी कि ओडिशा के सबसे बड़े और सबसे पुराने में से एक मंदिर लिंगराज में त्रिभुवनेश्वर का वास है?
ऐसा माना जाता है कि किसी ज़माने में पवित्र भुवनेश्वर झील सात हज़ार मंदिरों से घिरी हुई थी। इसीलिये इसका नाम “ओडिशा का मंदिरों का शहर” पड़ गया था। हालांकि अब इन में से सिर्फ़ पांच सौ मंदिर ही बच पाये हैं। उनमें भी एक हज़ार साल पुराना,सबसे ऊंचा यानी,180 फुट ऊंचा लिंगराज मंदिर पूरे परिदृश्य पर छाया हुआ है।
लिंगराज मंदिर आज जिस हालत में मौजूद है, वह 11वीं शताब्दी में बनवाया गया था।लेकिन संस्कृत के ग्रंथों में बताया गया है कि इससे पहले इस जगह पर, 7वीं सदी की शुरूआत में, पत्थरों से बना एक मंदिर था। लेकिन उस शुरूआती मंदिर के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती।
11वीं शताब्दी में बनाया गया मंदिर सोमवंशी या केशारी राजवंश ने बनवाया था। इस राजवंश ने मौजूदा ओडिशा पर 9वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी के बीच शासन किया था । इसी दौर में काफ़ी विकास हुआ था जिसे बाद में “कलिंग स्कूल आफ़ आर्ट एंड आर्किटेक्चर” के नाम से जाना गया।
लिंगराज मंदिर, कलिंगा की उत्कृष्ट शिल्पकारी को अपने शुद्ध और परिपक्व रूप में पेश करता है।इतिहासकार के.सी.पाणिग्राही के अनुसार सोमवंशी राजा यायाती-दिव्तीय ने इस मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ करवाया था। लेकिन मंदिर का काम उनके पुत्र उद्दयोता केसरी ने पूरा करवाया था।उदितोता केसरी के शिलालेख निकटवर्ती खंडगिरी गुफाओं में पाए जाते हैं जो उनके शासन और भुवनेश्वर क्षेत्र में और आसपास की वास्तुकला गतिविधियों में शामिल होने का सुझाव देते हैं| दिलचस्प बात यह है कि सोमवंशी राजवंश के बाद ओडिशा पर शासन करनेवाले गंगा राजवंश ने भी वहां कुछ नये निर्माण करवाये थे, वह आज भी मौजूद हैं।
लिंगराज मंदिर एक आयताकार परिसर में बना है। इसका रुख़ पूर्वी दिशा में है और यह बालू पत्थर और लाल मिट्टी से बना है। हिंदी मंदिर-शिल्पकारी के हिसाब से यह मंदिर पांच रथ वर्ग में आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि या तो मंदिर, ज़मीन पर तैयार किये गये पांच उभारों पर या बुर्ज पर बनाया गया है। मंदिर की मीनार की दीवारों को लघु शिखर, और विभिन्न आकृतियों में महिला आकृतियों के साथ उकेरा गया है। प्रवेश द्वार का बरामदा चंदन की लकड़ी का बना है।
लिंगराज मंदिर के चार प्रमुख भाग हैं- विमान (ढ़ांचा जिसमें गर्भगृह शामिल है), जगनमोहन (सभा-स्थल), नट-मंदिर (उत्सव-स्थल) और भोग मंडप (प्रार्थना स्थल)। नृत्य स्थल जो उस दौर में मौजूद देवदासी प्रथा के उत्थान के साथ जुड़ा था।
लेकिन ओडिशा के तमाम मंदिरों में लिंगराज मंदिर की एक ख़ास पहचान इसलिये भी है कि परम्परा से हट कर, यह शुद्ध रूप से शिव मंदिर से शिव-विष्णु मंदिर तक विकसित हुआ। सोमवंशी राजा शिव की पूजा करते थे लेकिन उनके उत्तराधिकारी पूर्वी गंगा राजवंश के शासक विष्णु सम्प्रदाय पर श्रृद्धा रखते थे। उन्हेंने 12वीं शताब्दी में पुरी में जगन्नाथ मंदिर बनवाया था।
लिंगराज मंदिर पर गंगा शासकों का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है। इस मंदिर परिसर में विष्णु के द्वारपाल यानी- जय और प्रचंड, जगन्नाथ, लक्ष्मी नारायण और गरुड विष्णुपंथ की निशानियां हैं।उन्होंने मंदिर का स्वरूप बदल दिया। मध्य में बनी मूर्ती की पूजा हरिहर के रूप में की जाने लगी। हरिहर अर्थात शिव और विष्णु का मिला-जुला रूप। यहां अन्य मूर्तियां भी हैं- उनमें अर्धानारीश्वर, भैरव, लकुलीश, काम, सूर्या, और कार्तिकेय का उल्लेख किया जा सकता है।
लिंगराज मंदिर परसर में बड़ी दीवार से घिरे पचास से भी ज़्यादा अन्य मंदिर हैं। यह मंदिर गणेश, पार्वती, नंदी के अलावा कई अन्य भगवानों को समर्पित हैं जो अलग अलग रूपों और आकारों के हैं और अलग अलग युगों में बनाये गये हैं।
लिंगराज मंदिर परिसर में मौजूद विभिन्न मंदिरों में तीस से ज़्यादा शिला-लेख मौजूद हैं। सबसे पुराना शिला-लेख सन 1115 का है। यह शिला-लेख, पूर्वी गंगा राजवंश के राजा अनंतवर्मन चोडगंगा के शासन के 37वें वर्ष में लिखा गया था। शिला-लेख में एक ऐसा दीपक दान दिये जाने का भी ज़िक्र है जो भगवान की मूर्ती के सामने लगातार जलता रहता था।
राजा कपिलेंद्र देवा (1434-1466) के ज़माने का भी एक दिलचस्प शिला-लेख मिला है। राजा देवा, ओडिशा के पूर्वी गंगा राजवंश के उत्ताराधिकारी थे और उन्होंने गजपति राजवंश की नींव डाली थी। राजा ने अपने अधीन तमाम छोटे राजों के नाम एक आदेश जारी किया था कि वह सब अच्छा व्यवहार करें और बुराई से बचें।अगर उनमें से किसी ने भी इस आदेश का पालन नहीं किया तो उनकी सम्पत्ति ज़ब्त करली जायेगी और उनको गद्दी से हटा दिया जायेगा। इस शिला-लेख का महत्व इसलिए भी है कि राजा कपिलेंद्र ने, पूर्वी गंगा राजवंश के राजा भानु देवा-चतुर्थ के विरूद्द सैनिक बग़ावत करके ओडिशा में गजपति राजवंश की स्थापना की थी। अपना और अपने शासन का दबदबा क़ायम रखने के लिये ही उन्हेंने इस शिला-लेख के ज़रिये अपने अधीन राजाओं को यह चेतावनी दी होगी ताकि वह उसके वफ़ादार बने रहें।
लिंगराज मंदिर की उत्तरी दिशा में बिंदूसागर झील है। झील की पश्चिमी दिशा में एकाम्र वन (बाग़) है। 13वीं की संस्कृत ग्रंथ ब्रह्म पुराण में पुराने शहर भुवनेश्वर को एकाम्र क्षेत्र लिखा गया है। अर्थात वह स्थान है जहां आम का पेड़ लगा है। ब्रह्म पुराण में यह भी लिखा है कि लिंगराज मंदिर की प्रमुख मूर्ती आम के पेड़ के नीचे ही थी। भुवनेश्वर के इस एकाम्र क्षेत्र को यूनेस्को वर्ड हेरीटैज की अस्थायी सूची में शामिल कर लिया गया है।
लिंगराज मंदिर, एकाम्र क्षेत्र के मध्य में स्थित है। यह ओडिशा की सांस्कृतिक पहचान है। जहां प्रति दिन सैंकड़ों श्रृद्धालू दर्शन करने के लिये आते हैं। लेकिन इस मंदिर परिसर की असली रौनक़ महाशिवरात्री को ही देखने को मिलती है।
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